चम्पारण में गाँधी : एक अवलोकन

चम्पारण में गाँधी : एक अवलोकन

                     चम्पारण में गाँधी : एक अवलोकन

भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का इतिहास साक्षी है कि ‘सत्य’ एवं ‘अहिंसा’ को अपना
ईश्वर मानने वाले युग पुरुष विश्व नागरिक महात्मा गांधी का राजनैतिक जीवन विधिवत्
रूप से चम्पारण से प्रारम्भ हुआ था, जो तत्समय अंग्रेजों के अत्याचार से कराह
रहा था. शोषण, उत्पीड़न, गरीबी, अशिक्षा, आपदाओं, उपेक्षा का पर्याय बने चम्पारण ने
बापू के हृदय को करुणा से भर दिया था. चम्पारण की वेदना ने गांधीजी को सोने की
भाँति तपाकर निखरा हुआ अद्वितीय मानव बना दिया. तपकर निखरा हुआ यह मानव
अन्ततः सम्पूर्ण भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक ध्रुव तारा बन गया. गांधीजी का चम्पारण
आना, सत्याग्रह की शुरूआत करना और भारतवासियों को भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन
की दिशा में प्रेरित करना इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय है. गांधीजी ने स्वयं इसे इन
शब्दों में स्वीकार किया है―
          “बिहार ने ही मुझे सारे हिन्दुस्तान में जाहिर किया. उससे पहले तो मुझे कोई जानता
भी न था. बीस साल अफ्रीका में रहने के कारण में हब्शीसा बन गया था. उसके बाद मैं चम्पारण
आया और सारा हिन्दुस्तान जाग उठा.”
               अप्रैल 1917 में गांधीजी चम्पारण पहुँचे. पहुँचकर देखा कि भारत की स्थिति दक्षिण
अफ्रीका से भी बदतर है. चम्पारण में गांधीजी के आगमन से भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन
को एक नूतन आयाम मिला. गांधीजी को प्रारम्भ में लगा था कि चम्पारण की समस्या
से दो-चार दिन में निपटा जा सकता है, परन्तु यहाँ आकर उन्होंने महसूस किया कि समस्या
से निपटने में वर्षों लग सकते हैं. गांधीजी ने कहा है-“यहाँ मुझे सत्य से प्रत्यक्ष और प्रथम
दर्शन हुआ.
       सर्वविदित है कि दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजों ने बहुसंख्यक काले लोगों के शोषण के विरुद्ध
जनमानस को अहिंसक तरीके से संगठित होने का अद्वितीय पाठ पढ़ाकर गांधीजी
जनवरी 1915 में भारत वापस लौटे. भारत में गांधीजी को प्रायः उन्हीं परिस्थितियों का
सामना करना पड़ा, जो उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में देखी व अनुभव की थीं. दक्षिण अफ्रीका
और फिर भारत में अंग्रेजी शासन तथा उनकी रंगभेद की नीति व स्थानीय लोगों के शोषण
के विरुद्ध महात्मा गांधी ने अहिंसक सत्याग्रह की तकनीक को एक प्रभावकारी शस्त्र के रूप
में अपनाया.
       गांधीजी का भारत के राजनीतिक पटल पर जब प्रादुर्भाव हुआ, उस समय अंग्रेजी सत्ता
के विरुद्ध आन्दोलन की दो धाराएं पृथक्-पृथक् प्रवाहित हो रही थीं-‘गरम दल’ एवं ‘नरम दल’.
ये दोनों धाराएं स्पष्ट हो चुकी थीं. एक तरफ ‘लाल-बाल-पाल’ (लाला लाजपत राय, बाल
गंगाधर तिलक व विपिनचन्द्र पाल) जैसे गरमपंथी येन-केन-प्रकारेण पूर्ण स्वतंत्रता
प्राप्त कर लेने के पक्षधर थे, दूसरी तरफ गोपालकृष्ण गोखले, मोतीलाल नेहरू, श्रीमती
एनी बेसेन्ट जैसे नरमपंथी वैधानिक तरीके से स्वतंत्रता प्राप्त करने के पक्षधर थे.
         गांधीजी स्पष्ट रूप से समझते थे कि अंग्रेजों की चालाकी और शक्ति के सामने
भारतीयों की एक नहीं चलेगी. इन्हीं कारणों से महात्मा गांधी ने इन सबसे अलग अहिंसक
सत्याग्रह का अभिनव मार्ग चुना. गांधीजी ने इसका प्रयोग सर्वप्रथम चम्पारण में अंग्रेज
नीलहों द्वारा कृषकों के शोषण को समाप्त करने के लिए किया. गांधीजी ने अपने ‘सत्य’
एवं ‘अहिंसा’ का प्रयोग चम्पारण रूपी उस प्रयोगशाला में किया, जहाँ असुविधा ही
असुविधा थी. ‘चम्पारण की जाँच’ नामक पुस्तिका में गणेश शंकर विद्यार्थी ने इस
असुविधा का मार्मिक चित्रण करते हुए लिखा है “वहाँ (चम्पारण में) से सज्जनता और
सद्व्यवहार का डेरा उठ चुका था. वहाँ मनुष्यता सिसक-सिसक कर जान दे रही थी.
लोग चुपचाप सहते थे. जब बोले तब उनका गला धरकर दाब दिया गया. क्योंकि कोठी का
साहब सर्वशक्तिमान था. उससे पुलिस डरती थी. उससे कलेक्टर डरता था. उससे सरकार
भय खाती थी स्पष्टतः गांधीजी ने अपना प्रयोग एक जर्जर पाठशाला में प्रारम्भ किया.
        महात्मा गांधी का चम्पारण में आगमन जिन समकालीन परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य
में हुआ था, वह अत्यन्त मार्मिक थीं. 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में चम्पारण बेतियाराज
के अन्तर्गत था. सम्पूर्ण क्षेत्र की देखभाल बेतियाराज द्वारा नियुक्त ठेकेदारों द्वारा की
जाती थी. यह भारतीय ठेकेठार हुआ करते थे, जो नियत समय पर अपने रैयतों से मालगुजारी
वसूल कर राजकोष में जमा कराते थे. बाद में इस क्षेत्र में नील के अंग्रेज व्यापारियों का
आगमन हुआ. चम्पारण में कृषकों के शोषण का अतिमार्मिक क्षण यहीं से प्रारम्भ होता है.
         नील के अंग्रेज व्यापारियों ने बेतियाराज से ठेका लेकर इस क्षेत्र में नील की खेती करनी
प्रारम्भ की. कर्नल हिंकी नामक अंग्रेज व्यापारी ने पहली नीलहा कोठी बारा नामक स्थान पर
स्थापित की. सन् 1880 के आसपास सम्पूर्ण चम्पारण में अंग्रेजों ने नीलहा कोठी स्थापित कर
दी थीं. कुछ नीलहा कोठी वालों ने बेतियाराज से जमींदारियाँ भी खरीद लीं. सम्पूर्ण चम्पारण
में कुल 70 नील की कोठियाँ थीं. कोठीवालों के अधीन जो जमीन थी, उसमें वे नील की खेती
करवाते थे. कृत्रिम रंगों के आविष्कार के बाद नील के बाजार में गिरावट आने से कारखाने
बंद होने लगे. बावजूद इसके मुनाफाखोर अंग्रेजों ने किसानों की मजबूरी का लाभ
उठाकर लगान बढ़ा दिया. इससे चम्पारण के किसानों की स्थिति और भी खराब हो गई.
किसानों में बढ़ रहे असंतोष तथा शोषण की बढ़ती प्रवृत्ति ने उन्हें विद्रोह करने पर मजबूर
कर दिया. चम्पारण में गांधीजी के सशक्त अभियान, जनसहभागिता से अंग्रेज परेशान
हो गए. सम्पूर्ण भारत का ध्यान चम्पारण पर था. स्थिति की गंभीरता को देखते हुए अंग्रेजों
ने एक ‘जाँच आयोग’ का गठन किया. महात्मा गांधी को इसका सदस्य बनाया गया.
          चम्पारण में कृषकों के शोषण का प्रमुख क्षेत्र नीलहों द्वारा स्थापित ‘तिनकठिया प्रथा’
थी. ‘तिनकठिया प्रथा में कोठीवाले रैयतों से उनकी जोत के एक हिस्से में नील की खेती
करवाते थे. इसके बदले बहुत ही कम मूल्य देने की व्यवस्था थी. सन् 1860 के आसपास
एक बीघा (20 कट्ठे का एक बीघा होता है) में पाँच कट्ठा नील बोना अनिवार्य था. सन्
1867 तक यह कम होकर तीन कट्ठा हो गया. इसी कारण इसे ‘तिनकठिया प्रथा कहा गया.
            चम्पारण की भूमि उर्वर होने के बावजूद नील की खेती के लिए उपयुक्त नहीं थी.
बावजूद इसके नीहले डरा-धमकाकर नील की खेती के लिए बाध्य करते थे. इसके बदले
बहुत ही कम मजदूरी मिलती थी. सन् 1867 के पूर्व प्रति एकड़ ₹6.5, 1897 में ₹12
और सन् 1909 में गोखले रिपोर्ट के बाद प्रति एकड़ नील की खेती के लिए ₹ 13.5 भुगतान
किया जाता था.
          जुलाई 1917 में ‘चम्पारण एग्रेरियन कमेटी का गठन किया गया. गांधीजी इस
समिति के सदस्य थे. इस समिति के प्रतिवेदन पर चम्पारण में ‘तिनकठिया प्रथा’ को समाप्त
कर दिया गया. किसानों से अवैध रूप से वसूले गए धन का 25 प्रतिशत वापस कर
दिया गया. 1919 ई. में ‘चम्पारण एग्रेरियन अधिनियम’ पारित किया गया. इस अधिनियम
के पारित होने से चम्पारण के किसानों की स्थिति में सुधार परिलक्षित होने लगा.
चम्पारण में नीलहों के शोषण के विरुद्ध यदाकदा आवाज भी उठती रही. सर्वप्रथम
1867 में लाल सरैया कोठी से नील विद्रोह प्रारम्भ हुआ था. चम्पारण के नीलहे अंग्रेज
जमींदारों में ए.सी. रमन सर्वाधिक क्रूर एवं कामुक था. रमन जब घोड़े पर सवार होकर
निकलता था, तो दूर-दूर तक आतंक फैल जाया करता था. रमन जरासी बेअदबी
की सजा चाबुक से पीठ की चमड़ी उधेड़कर दिया करता था. ऐसी अमानवीय परिस्थितियों
में गांधीजी का आगमन चम्पारण में हुआ था. नील विद्रोह किसानों द्वारा किया गया यह एक
ऐतिहासिक विद्रोह था, जो बंगाल के किसानों ने 1859 ई. में किया था. विद्रोह के प्रारम्भ
में नदिया जिले के किसानों ने फरवरी-मार्च 1859 में नील का एक भी बीज बोने से मना
कर दिया, यह आन्दोलन पूरी तरह अहिंसक था, इसके परिणामस्वरूप 1860 ई. में बंगाल
में नील की खेती लगभग बंद हो गई. 1905-08 तक बिहार के बेतिया और मोतिहारी, जो आज
क्रमशः पश्चिम चम्पारण व पूर्वी चम्पारण जिलों के मुख्यालय हैं, में उग्र विद्रोह हुआ. ब्लूम्सफिल्ड
नामक अंग्रेज की हत्या कर दी गई, जो नील के कारखाने का प्रबंधक था.
      गांधीजी का चम्पारण में आगमन किन परिस्थितियों में हुआ, यह स्पष्ट है, परन्तु
गांधीजी चम्पारण में ऐसे ही नहीं चले आए. चम्पारण के कतिपय व्यक्तियों ने उन्हें चम्पारण
की परिस्थितियों व दुर्दशा से अवगत कराया था. गांधीजी को चम्पारण में लाने का श्रेय
यद्यपि राजकुमार शुक्ल को दिया जाता है, तद्यपि चम्पारण में गांधीजी के क्रिया-कलापों
को कई व्यक्तियों ने प्रभावित किया था. राजकुमार शुक्ल ने दिसम्बर 1916 में अन्य
व्यक्तियों के साथ लखनऊ जाकर महात्मा गांधी से भेंट की और नीलहे किसानों की
दयनीय स्थिति से उन्हें अवगत कराया. लखनऊ में उस समय कांग्रेस का वार्षिक
महाधिवेशन चल रहा था और गांधीजी लखनऊ में थे. इन लोगों ने चम्पारण की धरती पर
पहली बार गांधीजी को लाकर यह एहसास करा दिया कि आजादी की लड़ाई शहरों से
नहीं, अपितु गाँवों से प्रारम्भ की जानी चाहिए. इन लोगों में राजकुमार शुक्ल के अतिरिक्त
पीर मोहम्मद अंसारी (1882-1949 ई) मी थे. पीर मोहम्मद अंसारी बेतियाराज इंगलिश
विद्यालय में अध्यापक थे तथा पत्रकारिता भी किया करते थे. वह इस क्षेत्र के किसानों की
समस्याओं तथा उनके उत्पीड़न को कानपुर से प्रकाशित साप्ताहिक समाचार पत्र प्रताप के
माध्यम से लोगों के सामने लाते थे. प्रताप’ की स्थापना 1913 ई. में गणेश शंकर विद्यार्थी
ने की थी. दिसम्बर 1916 में लखनऊ में होने वाले कांग्रेस के वार्षिक महाधिवेशन में
राजकुमार शुक्ल के साथ पीर मोहम्मद अंसारी ‘मूनिस’ भी गए थे.
       गांधीजी के चम्पारण आगमन से चम्पारण की वेदना राष्ट्र की वेदना बन गई. गांधीजी ने
भीतिहरवा, मधुबन तथा वृन्दावन जैसे सुदूरवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों में अपने आश्रम
स्थापित किए और वहीं से अपनी गतिविधियों का संचालन किया. अंग्रेजों ने उन्हें पग-पग
पर रोका, फर्जी मुकदमों में फँसाया प्रारम्भ में तो गांधीजी को अपने ऊपर लादे गए
फर्जी मुकदमों में ही उलझना पड़ा. बाद में गांधीजी ने महसूस किया कि चम्पारण की
भोली-भाली जनता को साक्षर बनाकर ही स्वतंत्रता आन्दोलन की मुख्यधारा से जोड़ा
जा सकता है. इसके लिए गांधीजी ने चम्पारण में कई उल्लेखनीय प्रयास किए. गांधीजी ने
नीलहे किसानों की समस्याओं को जहाँ राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ा, वहीं समस्या से निपटने
का स्थायी मार्ग भी प्रशस्त किया. चम्पारण गजेटियर के अनुसार गांधीजी जब चम्पारण
पहुँचे थे उसके पूर्व चम्पारण में शैक्षिक संस्थाओं की संख्या केवल 738 थी. गांधीजी
ने चम्पारण की शैक्षिक बदहाली का अवलोकन किया और शिक्षा के प्रसार के लिए अथक
प्रयास किया.
        गांधीजी के छोटे पुत्र देवदास गांधी, बाबा साहब सोमण, श्री पुण्डलीक, हरिभाई देसाई,
आचार्य कृपलानी जैसे लोग बापू के आह्वान पर चम्पारण पहुँचे और निःशुल्क विद्यादान
दिया. गांधीजी की धर्मपत्नी कस्तूरबा बाई के साथ ही अवंतिका बाई जैसी अनेक महिलाओं
ने भी चम्पारण की धरती पर पधारकर गांधीजी के शैक्षिक यज्ञ को कृतार्थ किया. धीरे-
धीरे गांधीजी ने राष्ट्रवादियों की एक लम्बी शृंखला तैयार कर डाली चम्पारण के
बडहरवा लखनसेन नामक गाँव में गांधीजी ने 13 नवम्बर, 1917 को प्रथम पाठशाला स्थापित
की. इसी प्रकार 20 नवम्बर, 1917 को भीतिहरवा, 17 जनवरी, 1918 को मधुबन
आदि में भी विद्यालय स्थापित किए गए. इसी क्रम में 6 अप्रैल, 1936 में वृन्दावन
(कुमारबाग) में ग्राम सेवा संघ की स्थापना की गई. यह क्षेत्र बाद में बुनियादी शिक्षा का प्रथम
प्रयोग स्थल बना,
            अस्तु, गांधीजी के अथक प्रयास एव प्रेरणा से चम्पारण में शोषण एवं उत्पीड़न का
दौर समाप्त हुआ. गांधीजी ने नीलहे किसानों में अंग्रेज शोषकों के विरुद्ध जो अलख जगाया
वह सदैव स्मरणीय रहेगा और भारतीय राजनीति का पथप्रदर्शक बना रहेगा.

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