चुनौती बनना, चुनौती स्वीकार करना

चुनौती बनना, चुनौती स्वीकार करना

                               चुनौती बनना, चुनौती स्वीकार करना

चला जाता हूँ हँसता-खेलता मौज-ए-हवादिस से, 
अगर आसानियाँ हो, जिन्दगी दुश्वार हो जाए।।
         ऋषि वशिष्ठ के ब्रह्मदण्ड द्वारा पराजित विश्वामित्र ने ब्राह्मणत्व की प्राप्ति के लिए
तपस्या की और वह अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में सफल हुए. समस्त देवताओं ने पूरी
शक्ति के साथ विश्वामित्र की तपस्या भंग करने का प्रयत्न किया था, परन्तु वे
विश्वामित्र को उनके मार्ग से विचलित नहीं कर सके थे. जो देवता विश्वामित्र के
विरोधी थे, वे ब्रह्मा जी के पास जाकर यह कहने को विवश हुए कि हम किंकर्त्तव्य-
विमूढ़ हो गए हैं, महर्षि विश्वामित्र के तेज से सूर्य की प्रभा फीकी पड़ गई है. ये
महाकान्तिमान मुनि अग्नि स्वरूप हो रहे हैं. xx आदि अन्ततः ब्रह्माजी को विश्वामित्र
के पास जाकर कहना पड़ा ‘तुमने अपनी उग्र तपस्या से ब्राह्मणत्व प्राप्त कर लिया है”
          तदुपरान्त स्वयं वशिष्ठ जी ने विश्वामित्र का ब्रह्मर्षि होना स्वीकार कर लिया और
उनके साथ मित्रता स्थापित कर ली.
          विश्वामित्र के पास अस्त्र शस्त्र आदि बाह्य साधन नहीं थे, उन्होंने अपनी अन्त-
र्निहित शक्तियों का विकास करके ब्रह्माण्ड को विचलित कर दिया था. इस प्रकार की
शक्तियाँ हमारे व्यक्तित्व में भी समाहित हैं, परन्तु हम उनका विकास नहीं कर पाते हैं.
कारण यह है कि हम जीवन में आने वाली चुनौतियों को स्वीकार करते हुए झिझकते
हैं, परन्तु चुनौतियाँ झकझोर कर हमारी अन्तर्निहित शक्तियों को प्रकट करती हैं.
           इतिहास प्रमाण है कि प्रत्येक देश के महापुरुषों की एक सामान्य विशेषता रही
है वे चुनौतियों को स्वीकार करने में कभी पीछे नहीं रहे हैं. प्रत्येक चुनौती किसी महान
कार्य को करने के संकल्प की अपेक्षा करती है. जो चुनौती को स्वीकार कर लेते हैं, वे
महानतो का वरण करते हैं और इतिहास पुरुष अथवा महान व्यक्ति बन जाते हैं.
मोहन दास करमचन्द गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में यदि प्रथम श्रेणी के डिब्बे में
यात्रा करने के अधिकार को प्राप्त करने के नाम पर श्वेतों की सल्तनत को झुकाने की
चुनौती स्वीकार न की होती, तो वह महात्मा गांधी, राष्ट्रपिता, बापू आदि अभिधानों को
कदापि प्राप्त न हुए होते.
चुनौती स्वीकार करने वाला व्यक्ति स्वयं भी चुनौती बन जाता है, क्योंकि
विरोधी शक्तियाँ उसको सफल न होने देने के लिए साम, दाम, दण्ड, भेद-समस्त मार्ग
अपनाती हैं, परन्तु सच्चे प्रणधारी को विश्व की कोई भी शक्ति विचलित नहीं कर पाती
है. उदयपुर के राणा प्रताप परम शक्तिशाली मुगल सम्राट अकबर के लिए एक बहुत
बड़ी चुनौती बन गए थे, और उसकी आँखों, में आजन्म खटकते रहे थे. कारण यह रहा
कि राणा को टूटना मंजूर था, परन्तु झुकना, यानी अपने दृढ़ निश्चय से डिगना मंजूर नहीं
था. फलतः महाराणा भारत की स्वतन्त्रता एवं देशभक्ति की अस्मिता के रूप में आज
भी पूज्य हैं और युगों तक स्मरणीय एवं आराधनीय बने रहेंगे.
           प्राचीन परम्परानुसार किसी बड़ी चुनौती के उपस्थित होने के अवसर पर शूरवीरों
की सभा बुलाई जाती थी. मध्य में स्थित वेदी पर पान का बीड़ा रख दिया जाता था,
जो वीर उपस्थित चुनौती को स्वीकार करने के लिए उद्यत होता था, वह उस बीड़ा को
उठा लेता था. स्पष्ट है कि चुनौती स्वीकार करना हरेक के वश की बात नहीं है, परन्तु
यह एक सत्य है कि चुनौती स्वीकार करने वाला व्यक्ति ही जीवन में कुछ करता है।
और सामान्य बनता है, जो हाथ पर हाथ रखकर बैठता है, वह बैठा ही रहता है. वह
न आगे की ओर बढ़ता है और न उच्च शिखर के दर्शन करने में समर्थ होता है,
जो व्यक्ति नदी की धार में कूदने का साहस करता है, वह तैरना भी सीख लेता
है और नदी के पार भी चला जाता है, परन्तु जो ऐसा नहीं करता है, उसके चारों
और यह वाणी गूंजती रहती है-“हौं बौरी बूड़न डरी, रही किनारे बैठ. “
            चुनौती वस्तुतः प्रेरणा का मूर्त रूप होती है. उसकी उपेक्षा जीवन की उपेक्षा
बन जाती है. सिद्धान्त मार्ग और ज्ञानोपदेश तभी मनोरंजनकारी लगते हैं. जब वे किसी
व्यक्ति के जीवन-क्रम के रूप में देखे जाते हैं. हम प्रत्येक सद्गुण का विकास मानव-
जीवन में देखना चाहते हैं, जो सद्गुण का विकास करने की चुनौती स्वीकार करते हैं,
वे सद्गुणी, गुणवान एवं महान बन जाते हैं. उन्हीं के हाथ में सत्पथ के दीपक रहते हैं,
यां वे ही सत्पथ के दीपक बन जाते हैं. सत्पथ के इन दीपकों के चारों ओर लोग
उसी प्रकार एकत्र होते हैं जिस प्रकार किसी उष्ण स्थान पर बादल चारों ओर से आकर
इकट्ठे हो जाते हैं. संसार से तटस्थ रहकर शान्ति-सुखपूर्वक लोक व्यवहार सम्बन्धी
उपदेश देने वालों का उतना अधिक महत्व हमारे देश में नहीं है जितना संसार के
भीतर घुसकर उसके व्यवहारों के बीच सात्विक विभूति की ज्योति जगाने वालों का
होता है. यही कारण है कि हमारे यहाँ उपदेशक ईश्वर के अवतार नहीं माने गए
हैं. अपने जीवन में चुनौतियाँ स्वीकार करके कर्म-सौन्दर्य संघटित करने वाले ही अवतार
माने गए हैं, कर्म-सौन्दर्य को संघटित करने की क्षमता रखने के कारण भारत में क्षात्र-
धर्म की महिमा मानी जाती है, क्योंकि वह अपने धारणकर्ता को जीवन में उपस्थित
होने वाली चुनौतियों को स्वीकार करने की प्रेरणा प्रदान करता है. क्षात्र धर्म की इसी
श्रेष्ठता के कारण हमारे मुख्य अवतार श्रीराम और श्रीकृष्ण क्षत्रिय हैं. मनुष्य की सम्पूर्ण
रागात्मिका वृत्तियों को उत्कर्ष पर ले जाने और विशुद्ध करने की सामर्थ्य चुनौतियों भरे
जीवन में है, हमें स्मरण रखना चाहिए कि क्षात्र धर्म कर्मठ-जीवन की एक पद्धति है,
किसी जाति या सम्प्रदाय विशेष के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं रहता है, जो
व्यक्ति जीवन के संघर्ष में विजयी होने के प्रति दृढ प्रतिज्ञ बनता है, वह क्षात्र धर्म को
धारण करता है. इस संदर्भ में पं. रामचन्द्र शुक्ल ने एक बड़े मार्के की बात कही है-
“यदि राम हमारे काम के हैं, तो रावण भी हमारे काम का है, एक में हम अपने लिए
प्रवृत्ति का क्रम पाते हैं, दूसरे में निवृत्ति का. राम के हाथ से मारे जाने वाले रावण का
जीवन भी सार्थक हो जाता है. रावण को भी परम धाम की प्राप्ति हुई थी, क्योंकि वह
अपने द्वारा वरण किए हुए लक्ष्य के प्रति पूर्णतः समर्पित था. उसने जीवन की
चुनौतियों को अपने ढंग से स्वीकार किया था, और परम शक्ति स्वरूप श्रीराम के लिए
चुनौती बन गया था. जीवन में सफल होने के लिए यह आवश्यक है कि हम चुनौतियों
को स्वीकार करें तथा विरोधी शक्तियों के लिए स्वयं चुनौती बन जाए. डॉ. अम्बेडकर
और श्री अटल बिहारी वाजपेयी इस बात के उदाहरण हैं कि चुनौतियों से भरे जीवन को
कैसे जिया जाता है.
                   चुनौतियों को खोजने के लिए हमें कहीं जाना नहीं है, वे पल-पल और पग-पग पर
हमारे सामने प्रस्तुत रहती हैं. हम उनसे डर कर भागे नहीं, वरन् उन पर विजय प्राप्त
करने का संकल्प करके उनकी ललकार का सामना कीजिए.
       आप अपना श्रेष्ठ लक्ष्य निर्धारित कीजिए और उसकी प्राप्ति हेतु प्राण-पण से
प्रयत्नशील बन जाइए चुनौतियों की धार मोथरी होती जाएगी और आपका व्यक्तित्व
क्रमशः चुनौतीस्वरूप बनता जाएगा.

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