जीवन को नौका के समान बनाना

जीवन को नौका के समान बनाना

                               जीवन को नौका के समान बनाना

हम लोग प्राय: भीड़ के रूप में व्यवहार करने के अभ्यस्त हो गए हैं. चुनावों में मतदान इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण है, हम समूह के रूप में मतदान करते हैं, व्यक्ति के रूप में अपने विवेकानुसार मतदान करते हुए बहुत कम लोग देखे जाते हैं. यदि व्यापक रूप से विचार किया जाए, तो हम लकड़ी के उस लेट्ठे की भाँति बहते हैं अथवा बहकते हैं, जो नदी या नाले की धारा के साथ बहता चला जाता है. चाहे जब किनारों से टकरा जाता है और चाहे जब झाड़-झंकाड़ों, सेवार में उलझ कर रह जाता है. उस लट्ठे को यदि नाव का रूप प्रदान कर दिया जाता है, तो फिर वह केवट या मल्लाह की इच्छानुसार यात्रा करती है. केवट भी पार जाता है और उसमें बैठने वाले अन्य लोग भी पार करते हैं. प्रवाह में बहने वाले लट्ठे रूपी व्यक्ति को यदि नाव का रूप दे दिया जाए, तो उसके व्यक्तित्व में कितना अन्तर आ जाए ?
हम भूल जाते हैं कि मनुष्य भगवान सर्वोत्तम कृति है प्रभु ने उसको लट्ठे रूप में नहीं, नाव के रूप में बनाया है दुर्भाग्य यह है कि उसका स्वामी विवेक सो जाता है. वह यदि जग जाए और अपने दायित्व के प्रति जागरूक हो जाए, तो वह भीड़ या जानवरों के समूह की भाँति व्यवहार, न करके एक व्यक्ति अथवा यत्नपूर्वक बनाई गई नाव की तरह उसको और उसके साथियों को राह पर ले जाए.
हमारे युवा पाठक उच्च पदस्थ जनसेवक बनना चाहते हैं. हम चाहते हैं कि वे व्यक्ति की भाँति व्यवहार करने का अभ्यास करें. भविष्य में अवसर मिलने पर वे जनता की सेवा का लक्ष्य लेकर अपने कर्त्तव्य पथ पर अग्रसर होने का सकल्प करें.
प्रकृति के वरदान विवेक की उपेक्षा करके व्यवहार करने का परिणाम आज़ हमारा पूरा देश भुगत रहा है पद और पैसे के पीछे एक प्रकार की अन्धी-दौड़ देखने को मिलती है हमारे उदीयमान युवक-युवतियाँ यदि विवेकपूर्ण व्यवहार करने लगे तो हमारे व्यक्तिगत जीवन से लेकर राष्ट्रीय जीवन का स्वरूप ही बदल जाए ऐसा करना उनके लिए अनिवार्य है, क्योंकि वे यदि अपने दायित्व के प्रति जागरूक नहीं बनेंगे, तो अराजकता एवं जंगल के राज्य को लाने के जिम्मेदार हो जाएंगे और उनका जीवन अपनी सार्थकता खो बैठेगा और इतिहास एवं सामाजिक विकास की दृष्टि से वे अप्रासंगिक बन जाएंगे.
हम यह मानते हैं कि वर्तमान में उपभोक्ता संस्कृति का बोलबोला है, उसकी चकाचौंध के सामने विवेक और विवेकशील का टिक पाना असम्भवप्राय है, परन्तु आप को नाव बनकर व्यवहार करना है, हो सकता है नाव को मार्ग में भँवरों और तूफानी हवाओं का सामना करना पड़े, परन्तु नाव को आगे बढ़ाने के लिए नाविक को इन समस्त बाधाओं और विषम परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करनी ही होगी.
विवेक वास्तव में जीवन को सुरक्षित रखने वाला नमक हैं. हम प्राय: विवेक को चिंतन तक सीमित रखते हैं, परन्तु व्यवहार के समय हम विवेक की उपेक्षा करके भीड या समूह के रूप में व्यवहार करने लगते हैं यद्यपि भ्रष्टाचार सर्वथा निंद्य है, तथापि हम भ्रष्ट इसलिए हैं, क्योंकि सभी भ्रष्ट हैं. हम्र चाहते हैं पहले अन्य लोग सदाचारी बनें, तब हम उनके पीछे चल सकते हैं. आप नवनिर्माण का संकल्प लेकर जन-सेवक बनना चाहते हैं. आपका दायित्व भीड को | नियन्त्रित करना होगा, आप स्वयं यदि भीड का अग बन जाएगे तो कैसे काम चलेगा ? अतएव जीवन की सार्थकता यह है कि हमारी कथनी और करनी में हमारे चिंतन और हमारी वाणी में सामंजस्य हो अंग्रेजी के प्रसिद्ध नाटककार शेक्सपियर ने बहुत सटीक कथन कहा है कि अपने शब्दों का कर्म से तथा धर्म का शब्दों के साथ मेल/ कीजिए.” हमारी समस्त शिक्षा-दीक्षा सार्थक तभी होती है, जब हम हस की भाँति दूध और पानी को अलग-अलग करके देखते हैं, यदि हम कीचड़ और पानी को घोलकर, मिश्रण का सेवन करने लगते हैं, तो किसकी भाँति व्यवहार करते हैं यह बताने की आवश्यकता नहीं है स्वामी विवेकानंद का यह कथन सदैव याद रखिए कि विवेक हमारा सर्वश्रेष्ठ और सर्वाधिक विश्वसनीय पराक्रम है. इसके अभाव में त्रिलोकविजयी रावण अपना सर्वनाश कर बैठा था. धृतराष्ट्र ने उस महाभारत को जन्म दिया, जो भारत के केल्पान्त का हेतु बन गया और तो और, दुर्दान्त सिंह पिद्दी से खरगोश के सम्मुख अपनी मौत मारा गया. आपको व्यक्ति मानव के रूप में इच्छा (Free-will) तथा पुरुषार्थ के वरदान प्राप्त हैं. आप दोनों का विवेक सहित उपयोग कीजिए इच्छा, पुरुषार्थ एवं विवेक की त्रिवेणी आपको पवित्र और प्रफुल्लित बना देगी आप अपनी जीवन-नौका द्वारा स्वयं भी पार जाइए और उनको भी पार ले जाइए, जितनी सेवा का दायित्व वहन करने के लिए आप अपने को तैयार करने में लगे हैं. भारत माँ को आप जैसे बेटे-बेटियों से ही आशा है वह आपको पुकार रही है. उसकी पुकार ध्यान से सुनिए.
“ऐ वत्स ! यदि आज के समाज की कुरीतियों से उनकी असंगतियों से उसमें | व्याप्त अत्याचार और अनाचार से तू त्रस्त है और यदि तुझे मुझसे तनिक भी ममता है, तो आज ही तू अपने समस्त मूल्यों को, मान्यताओं को आस्थाओं को अपने सच्चे विवेक की कसौटी पर परख और फिर जो उस पर खरी उतरे, केवल उन्हीं को तू अपना और जो गलत हों. उन्हें तत्काल त्याग ध्यान रहे कि जो साधन हैं. उन्हें भूलकर भी अपनी मूल्यावली में ‘साध्य’ न बना लीजियो, तेरी गति वही होगी, जो तेरे मूल्यों की है तेरे मूल्य शाश्वत होंगे, तो तूं भी अमृत्व प्राप्त करेगा. तेरे मूल्य नश्वर होंगे, तो तू भी नष्ट होकर मिट्टी में मिल जाएगा. यदि वे सार्थक है, तो तेरा जीवन भी सार्थक होगा. जीवन का प्रत्येक कल, परम आनन्दमय एवं परम रसमय बनाना तेरा जन्मसिद्ध अधिकार है.
“ऐ मेरे बेटे. याद रख, जीवन व्यापार नहीं है वह तुझे एक उद्देश्य विशेष की पूर्ति हेतु मिला है. जब तक तू उसे पूरा करने को उद्यत नहीं होगा, तब तक तेरे जीवन में शान्ति और आनन्द का सर्वथा अभाव ही रहेगा अपने जीवन की बागडोर अपने ही हाथों में ले स्मरण रहे. तेरे पास दो चार जीवन नहीं हैं केवल एक ही है-केवल एक.
‘अपने को अपने ही सद्विवेक अर्थात् स्व के अधीन बना तुझे सच्चे अर्थों में ‘स्वाधीन देखने के लिए मेरी आँखें तरस रही है.”

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