जो बदलाव आप दूसरों में देखना चाहते हैं उसे पहले स्वयं में लाएं―गांधीजी

जो बदलाव आप दूसरों में देखना चाहते हैं उसे पहले स्वयं में लाएं―गांधीजी

     जो बदलाव आप दूसरों में देखना चाहते हैं उसे पहले स्वयं में लाएं―गांधीजी

अधिकार परम दिव्य है इसमें किंचित भी संशय नहीं है, परन्तु उससे पहले जिस शब्द का स्थान आता है वह है कर्तव्य मनुष्य का कर्तव्य ही, उसे बाकी अन्य प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ बनाता है, मनुष्य ही अपने अलावा दूसरों के बारे में भी चिन्तन कर सकता है. मनुष्य का ईश प्रदत्त गुण में विवेक, ही उसे दूसरों के उपकार की भाषा है समझा सकता है, परोपकारी व्यक्ति ही समाज की उन्नति में सहायक सिद्ध होते हैं, ऐसे व्यक्ति तो योगियों की पहुँच से भी परे हैं, क्योंकि अपने लिए तो कीड़े मकोड़े भी जी ही लेते हैं, परन्तु प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ रचना होने के कारण यह आवश्यक है कि हम अपने कर्तव्यों को बेहतर ढंग से तथा भलीभाँति समझें. हमें हमेशा दूसरों के बजाय, स्वयं पहले अपने कर्म को समझना चाहिए.
भारतीय समाज में तो ऐसे महापुरुषों की गाथाएं अनगिनत हैं जिनमें लेश मात्र भी स्वार्थ का अंश न था. शिवि जिन्होंने एक
कबूतर के रक्षार्थ अपने शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर डाले थे. महर्षि दधीचि ने तो लोक रक्षार्थ हेतु अपने प्राणों की आहुति दे दी थी. जटायु ने तो सीता की रक्षा के लिए अपना जीवन नष्ट कर डाला था. पन्ना धाय ने उदय सिंह की रक्षा में अपने पुत्र तक का बलिदान कर दिया था. ये सभी हमारे लिए आदर्श स्वरूप हैं. इस युग में भी महात्मा
गांधी जैसे विशाल हृदय वाले महापुरुष हुए जिन्होंने राष्ट्र रक्षार्थ अपने जीवन का मोह नहीं किया. अहिंसा का नारा देने वाले मोहनदास करमचन्द गांधीजी से भला कौन परिचित नहीं है. अपने जीवनकाल में गांधीजी ने अपने कार्यों द्वारा लोगों को ऐसी शिक्षा दी है
कि आज भी लोग उनकी शिक्षा को याद करते हैं तथा उनके बताए मार्ग पर चल कर आगे बढ़ रहे हैं. गांधीजी एक ऐसे जीवान्त विश्वविद्यालय हैं, जिसकी आवश्यकता आज के बिगड़ते हालात में लोगों को तो अत्यधिक ही महसूस हो रही है.
           ऐसा देखा जाता है कि प्रायः हम दूसरों से हमेशा बड़ी-बड़ी उम्मीदें करते हैं, सही और गलत के बीच भेद बताते हैं. दूसरों के कर्त्तव्य के बारे में ढिढोरा पीटते हैं उदाहरण के तौर पर, सरकार पर ही न जाने कितनी फब्तियाँ कसते हैं कि हमारी सरकार गैर- जिम्मेदार है, लेकिन हम स्वयं अपने आप में झाँकने की कोशिश नहीं करते कि आखिर हम देश के नागरिक होने के नाते स्वयं कितने जिम्मेदार हैं, वास्तव में सरकार को अपने तरीके से चलाना तो हमारे अकेले के वश की बात नहीं है, किन्तु अपने आप को, अपने तरीके से चलाना तो, हमारे पूरे वश में है. ठीक उसी प्रकार दूसरों को अपने
मुताबिक रखना भले हमारे वश में नहीं हो, किन्तु स्वयं को अपने वश में कर लेना तो हमारे अपने ही हाथों में होता है. इसके लिए बड़े-बड़े कारनामे अथवा त्याग करने की भी आवश्यकता नहीं है, बल्कि छोटे-छोटे कार्य करके भी हम एक आदर्श नागरिक के दायित्वों का निर्वाह कर सकते हैं. अर्थात् स्पष्ट है कि निःसंदेह महान् पुरुष न सही हम एक आदर्श नागरिक का कर्तव्य किसी भी परिस्थिति में निभा सकते हैं.
             गांधीजी हमेशा गीता की भाँति ही कर्म करने तथा फल की इच्छा न करने की प्रेरणा दिया करते थे. वह सभी लोगों को सत्य की राह पर चलना सिखाते थे और दिग्भ्रमित लोगों को सही राह पर लाना अपना कर्तव्य समझते थे. गांधीजी खुद प्रत्येक कार्य समय पर करते थे और दूसरों से भी इस बात की अपेक्षा करते थे कि वे लोग समय की सख्ती से अनुपालन करें. वे समय के अनुपालन में किसी भी प्रकार के भौतिक साधन को मार्ग में बाधा नहीं बनने देते थे. गांधीजी के जीवन में कर्म का बड़ा महत्व था. उनकी इसी शक्ति में उन्हें करमचन्द गांधी से महात्मा गांधी बना दिया था. वे न तो किसी कमजोरी को अपने ऊपर हावी होने देते थे और न ही परिस्थितियों से हार मानते थे. यही कारण था कि अंग्रेज सरकार उनसे डरती थी. ठीक उसी तरह हमें भी दूसरों की निन्दा की परवाह किए बिना हमें अपने आप में बदलाव लाने के लिए शुरूआत पहले अपने आप से ही करनी चाहिए फिर उसके बाद परिवार, मुहल्ले, समाज, राष्ट्र आदि की ओर धीरे-धीरे आगे बढ़ना चाहिए. बड़े बुजुर्गों का सम्मान करना, परिवार में सामंजस्य बनाए रखना, हर कार्य को समय पर करना, आस पड़ोस के लोगों के साथ मित्रवत् व्यवहार बनाए रखना, सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय होना इत्यादि अनेक छोटे-छोटे कई क्रिया-कलाप हैं जिसके द्वारा हम अपने आप में सुधार ला सकते हैं. निःसंदेह ऐसे कार्य हमें हमेशा आत्म संतुष्टि प्रदान करते हैं. गांधीजी किसी भी कार्य को तुच्छ या छोटा नहीं मानते थे. उनके लिए प्रत्येक कार्य समान थे.
उनका मानना था कि काम का कोई मापदण्ड नहीं होता. गन्दगी फैलाने पर उसे साफ करने का दायित्व भी हमारा ही है.
फिर भला सफाई में शर्म कैसी? गांधीजी कहा करते थे कि स्वस्थ स्थान पर स्वस्थ शरीर और स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का वास होता है. जब भी गांधीजी को सफाई का अवसर मिलता, वे इसे पुण्य कार्य समझकर प्रसन्नतापूर्वक
पूरा करते थे. उन्हें इस बात का पूरा विश्वास था कि दूसरों को सक्रिय बनाने से पहले हमें स्वयं से प्रयास करना होगा. ठीक उसी प्रकार हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री माननीय नरेन्द्र मोदी जी का स्वच्छ भारत अभियान का प्रयास काफी सराहनीय है
उन्होंने भी भारतीय जनता से स्वच्छ भारत बनाने की अपील की, किन्तु उससे पहले स्वयं अपने हाथों से झाड़ लगाकर इसकी शुरूआत की. कोई भी कार्य निकृष्ट नहीं है. स्वयं गांधीजी का भी मानना था कि जिस प्रकार स्वस्थ रहने के लिए साफ सुथरा रहना जरूरी है. उसी प्रकार आस-पास का वातावरण की स्वच्छ होना चाहिए. उन्होंने भी जगह-जगह सफाई अभियान की शुरूआत की थी. किसी भी कार्य की सम्पूर्णता निष्ठा पर निर्भर करती है. यदि छोटे-से-छोटे कार्य को हम निष्ठापूर्वक करते हैं तो बड़े कार्य स्वतः ही होने लगेंगे. बस आवश्यकता है उसे ईमानदारी से पूरा करने की. गांधीजी भी दूसरों को इसी मार्ग पर चलने की सीख देते थे. जब उन्हें आगा खाँ महल में नजरबन्द किया गया था तब भी उनके रोजमर्रा के कार्यों में कोई परिवर्तन नहीं होता था सभी लोग सुबह नित्य कर्म से निपट कर छह बजे प्रार्थना करते थे.
      इसके बाद गांधीजी आठ औस गर्म पानी में एक चम्मच नीबू का रस और दो चम्मच शहद मिला कर लेते थे. गांधीजी भोजन के लिए जेल के बर्तन का ही प्रयोग करते थे. जब वह दक्षिण अफ्रीका की जेल में थे उसमें भी वह अपने लिए मिले कटोरे को ऐसा साफ करते थे कि सब देख दंग रह जाते थे. वे सदैव कार्य की सम्पूर्णता पर ध्यान देते थे. उनका मानना था कि मानव को सदैव अपना कर्तव्यपूर्ण रूप से निभाना चाहिए यदि वह मन लगाकर कार्य करेगा तो एक तरह से धर्म का पालन ही होगा. हर व्यक्ति दूसरों से अपने आपके लिए सम्मान की उम्मीद करता है चाहे वह स्वयं जैसा भी हो. यह सब जानते हुए भी हम दूसरों को बातों ही बातों में नीचा दिखाते हैं. धीरे-धीरे यह हमारे व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाता है और हम उसी के आदी हो जाते हैं. जरूरत है कि हम अपने सभी दुर्गुणों को सदैव जागरूक रखकर महाजागरण की दशा का उपयोग करें. निरन्तर अभ्यास करने के उपरान्त इस पर विजय पाई जा सकती है, हमें अपने व्यवहार में विनम्रता, वाणी में मधुरता आदि सद्गुण का विकास करना होगा. आदर्श नागरिकता के नियमों का पालन करने वाला व्यक्ति हजारों की भीड़ में अलग पहचान ही लिया जाता है.
           बाहरी आडम्बर एवं दिखावे को नजर-अंदाज कर हमें हमेशा अपनी आवश्यकताओं पर विशेष ध्यान देना चाहिए. गांधीजी भी स्वदेशी वस्तुओं से प्रेम करते थे वे फिजूलखर्च का सख्त विरोध करते थे. उन्हें किसी भी प्रकार का दिखावा पसन्द न था. चाहे वह सजावटी ही क्यों न हो. एक बार की बात है जब गांधीजी देवीपुर पहुंचे तो लोगों ने उनका भव्य स्वागत करने के लिए रास्ते में पताका, तोरण और ध्वज आदि लगाए. वे सजावट देखकर अत्यंत दुःखी हुए. गांधीजी ने एक कार्यकर्ता को बुलाकर पूछा- “ये सब सजावट का सामान कहाँ से आया है?” कार्यकर्ता ने कहा- “बापूजी,
आप कभी-कभी तो यहाँ आते हैं इसीलिए आपके स्वागत के लिए सभी ने आठ-आठ आने इकट्ठे करके तीन सौ रुपए जमा किए थे. उसी से सारा खर्च सम्भव हो पाया है,” गांधीजी व्यथित होकर बोले- “ये सजावट थोड़ी देर में खराब हो जाएगी. मेरे लिए इस प्रकार के दिखावे की कोई आवश्यकता नहीं थी. इससे सांप्रदायिक भावना को बढ़ावा मिलता है.
     यदि फूल मालाओं की अपेक्षा सूत के हार सजाए जाते तो मुझे अच्छा लगता हार शोभा तो बढ़ाते हैं साथ-ही-साथ बाद में उनसे कपड़ा भी बनाया जा सकता है. यदि आप लोग मुझसे प्रेम करते हैं तो मेरी बातों पर गौर करें. सजावट पर रुपया खर्च करना व्यर्थ है, कांग्रेस के कार्यकर्ता होने के बावजूद आपने देशी सामानों की अपेक्षा अन्य सजावटी सामान का उपयोग किया, जो मेरी नजर में उचित नहीं है. किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा शान-शौकत का आडम्बर करने पर भले ही
हम मुँह से कुछ न कहें, परन्तु मन-ही-मन चिढ़ते ही तो हैं तो फिर हम स्वय को जिस रूप में हैं उसी रूप में प्रस्तुत करें तो यह हमारा गुण कहलाएगा न कि अवगुण हमें सदा सत्य एवं ईमानदारी के रास्ते पर चलने की कला सीखनी चाहिए, भले ही दुनिया में झूठ और बेईमानी का रास्ता अपनाकर बहुत से लोग आगे बढ़ जाते हैं, लेकिन सच्चाई और ईमानदारी से किए गए कार्य पर न तो हमें कोई भय सताता है और न ही किसी तरह का मन में क्लेश रह जाता है. हमें कहीं न कहीं एक आत्मसंतोष की प्राप्ति होती है कि इस गड़बड़झाला में मैं शामिल नहीं हूँ. कहा भी जाता है कि सत्य परेशान होता है झुकता नहीं झूठ-फरेय, भ्रष्टाचार का चाहे कितना भी बोलबाला क्यों न हो, लेकिन अपनी मेहनत द्वारा दो वक्त की रोटी तो हमें मिल ही सकती है. एक दिन तो परमात्मा में ही मिलना है तो फिर दूसरों से कुछ अपेक्षा किए बिना क्यों न अपने जीवन को नेक व सत्कर्म में लगाया जाए.
             आज हमारे शहरों में न जाने कितनी विदेशी कम्पनियों द्वारा संचालित नए-नए मॉल खुल गए हैं. छोटे-छोटे शहरों में इसने अपना आधिपत्य जमा लिया है. लोगों में इसके प्रति विशेष आकर्षण देखा रहा है. कई लोग तो छोटी-छोटी दुकानों में जाना अपना अपमान समझते हैं. इन विदेशी कम्पनियों अथवा मॉल में जाकर सामान खरीदने के बजाय यदि हम उन गरीब लोगों से सामान खरीदते हैं जिनका पूरा परिवार सिर्फ और सिर्फ उसी आजीविका पर आधारित है तो हमारा यह प्रयास कहीं-न- कहीं राष्ट्र के हित में होगा. हमारे इस प्रयास से सभी गरीब परिवार न सही, लेकिन हमारे इस एक कदम से कम-से-कम एक परिवार का तो एक शाम का चूल्हा तो जल ही सकेगा. इतना ही नहीं बदले में वे हमें दिल से दुआएं देंगे जिनका वास्तव में कोई मोल नहीं. यदि कोई कार्य दूसरा व्यक्ति करता है तो हमें लगता है कि यह तो बहुत आसान था, परन्तु जब उसी कार्य को स्वयं करना पड़ता है तो उसकी जटिलता का अनुभव होता है. अतएव स्वयं में निखार लाना सबसे बड़ी बात होती है. कार्य एक या अनेक मतलब उसे पूरा करने से होला है. सार्वजनिक स्तर पर सुधार लाने के लिए पहले व्यक्तिगत स्तर पर सुधार लाना परम आवश्यक होता है. इस संसार में लाखों लोग अपना समय व्यर्थ में ही गवा देते है और बाद में दुःखी होते हैं. इसलिए हमें इन बातों से सीख लेकर अपना एक भी पल बेकार नहीं करना चाहिए. शरीर को जितनी  जरूरत हो उतनी ही नींद लेनी चाहिए जितने भोजन की आवश्यकता हो उतना ही करना चाहिए. कोई नहीं जानता कि अगले क्षण हमारा क्या होगा? यदि भगवान चाहेंगे तो इसी क्षण हमारी मृत्यु आ सकती है.
     अतः हमें परोपकार के मार्ग पर चलकर प्रभु की भक्ति करनी चाहिए. यदि हर कार्य को हम सीमा में रहकर करते हैं तो आलस्य नाम की बुराई हमारे आसपास भटक नहीं सकती. अपनी छोटी-छोटी आदतों से हम बड़ी-बड़ी मुश्किलें हल कर सकते हैं, अपने ही घरों में पानी की बचत, बिजली की बचत द्वारा हमें असीम फिजूलखर्ची पर रोक लगा सकते हैं.
गांधीजी जब नोआखली यात्रा पर गए थे. तो अपना कार्य समाप्त करने के लिए रात्रि में 2 बजे उठ कर कार्य करते थे.
उन दिनों काफी ठंड पड़ रही थी. वे मनु को भी जल्दी उठा देते थे. मनु जल्दी न भी उठाती. परन्तु लालटेन जलाने के लिए उसे उठना ही पड़ता था. एक दिन उसने गांधी जी से कहा- “जिस दिन आप जल्दी न उठे तो मैं भगवान के नाम का दीया जलाऊँगी.” गांधीजी ने हँसकर कहा- “ईश्वर को कोई लालच नहीं है, ईश्वर लालची नहीं है. 2 बजे गांधीजी रोजाना की भाँति उठे और मनु के गाल पर मीठी चपत लगाकर कहा- मनुड़ी उठ, तेरे ईश्वर को तेरे दीये का कोई लालच नहीं है, मनु बोली- “यापूजी, आप दो घण्टे के लिए लालटेन क्यों बुझा देते हैं, उसे जलने क्यों नहीं देते?” गांधीजी ने कहा- “तू सच कह रही है, परन्तु मुझे इतना तेल कौन देगा? लालटेन बुझाने से मेरे दो कार्य पूरे हो जाते हैं एक तो तू उठ जाती है और मैं कुछ लिखाऊँ तो तु उसे लिख सकती है. दूसरे, तेल की बचत भी हो जाती है. इस प्रकार मेरे दो कार्य पूरे हो जाते हैं.”
     आए दिन हम अखबारों में सुबह-सुबह चोरी, डकैती, लूट, बलात्कार जैसी कितनी घटनाएं पढ़ते हैं और पढ़कर दुखी भी होते हैं. तत्काल हम सोचते हैं कि गांधीजी का यह देश कैसा हो चुका है? क्या ऐसे ही सपनों का भारत गांधीजी ने कल्पना की होगी. क्या जमाना आ गया है जैसे न जाने कितने ही विचार हमारे दिमाग में घूमते हैं, लेकिन इन सब बातों को भूलकर पुनः हम प्रतिदिन की भाँति अपने-अपने काम काज में जुट जाते अपने व्यवहार तथा कला से मनुष्य हिंसक 

पशुओं को भी अहिंसक बना सकता है. ठीक ऐसी ही कला गांधीजी में थी, जो भी गांधीजी से मिला, उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका. गांधीजी में सत्य की ऐसी चुम्बकीय शक्ति थी कि कोई भी उसमें बँधा चला आता था और सदैव के लिए गांधीजी का हो जाता था. यदि गांधीजी को किसी बात का निर्णय देना होता था, तो वह पहले बात की सत्यता ज्ञात करते थे. यदि उन्हें मामले में कोई असत्य नजर आता, तो वे बिना किसी दबाव में आए निष्पक्ष निर्णय करते थे. लोगों द्वारा अपनी अनुचित बातों को मनवाने के लिए गांधीजी की भाँति उपवास किए जाने पर भी गांधीजी टस-से-मस नहीं होते थे. आज बलात्कार जैसी घटनाओं के घटित होने पर कैंडिल मार्च में हम शामिल तो जरूर होते हैं, लेकिन कहीं हमारे सामने छेड़खानी हो रही होती है तो हम आवाज तक नहीं उठाते. बलात्कार जैसे. क्रूड़ अपराध पर हम अकेले काबू नहीं पा सकते, परन्तु छोटी-छोटी छेड़खानी व गुंडागर्दी जैसी घटनाओं का हम विरोध तो कर कुछ बदलाव तो ला ही सकते हैं.

      अपने आप में ऐसा बदलाव कर हम स्वयं अपने नजर में तो ऊपर उठ ही सकते हैं. वैसे भी जब बादल गरजते हैं तो बिना सोचे समझे हम सबसे पहले अपने कान बंद करते हैं तो फिर जिम्मेदारी व कर्तव्य निभाने में भला दूसरों की प्रतीक्षा क्यों की जाए. क्यों न स्वयं आगे बढ़ा जाए. आज भी गाँवों देहातों में स्त्रियाँ खेतों में काम करने के साथ-साथ खाद्य समितियों जैसे पापड़, अचार इत्यादि बनाती हैं, लेकिन शहरों में महिलाएं प्रायः तमाम सुविधा होने के बावजूद भी नौकरों चाकरों पर निर्भर होती हैं और बहाने बनाती हैं कि उनके पास समय नहीं है. ग्रामीण लोगों द्वारा बनाए गए सामान को वह बाजार से खरीदकर लाती हैं और उनका बड़े ही चाव से उपयोग करती हैं, लेकिन वही सामान न स्वयं बनाती हैं और न ही सीखने की कोशिश करती हैं. एक तो उनके पास समय अभाव का बहाना है तो दूसरा वे इनको बनाना अपना अपमान समझती हैं. यदि यही सामान हम स्वयं अपने घरों में बनाते हैं तो एक तो हमारे समय का सदुपयोग होता है दूसरा अपनी मेहनत द्वारा उत्पादित सामान हम अधिक आनन्द से उपयोग में लाते हैं. उसके प्रति हमारे मन में एक खास लगाव हो जाता है.

         भारत के अतिरिक्त विश्व में कोई भी ऐसा देश शायद ही होगा. जहाँ सामाजिक, सांस्कृतिक व नैतिक जीवन मूल्यों को महत्व दिया जाता हो, ये मूल्य ही मानव की श्रेष्ठता को दर्शाते हैं और व्यक्ति को जीवन और उससे सम्बन्धित प्रत्येक पहलू के विषय में अवगत कराते हैं. इन मूल्यों का सतत् संवर्द्धन ही हमें सर्वश्रेष्ठ बनाएगा और यह तभी सम्भव हो सकेगा जब हम यह पूर्णरूपेण सुनिश्चित कर सकेंगे कि जो बदलाव हम दूसरों में देखना चाहते हैं उसे पहले स्वयं में लाएं.

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