ज्ञान को मूर्त रूप प्रदान करना

ज्ञान को मूर्त रूप प्रदान करना

                          ज्ञान को मूर्त रूप प्रदान करना

हमारे महामहिम भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी. जे. अब्दुल कलाम ने अपने पिताजी के
उपदेशों का सदैव पालन किया और भ्रष्टाचार से बचते रहे.
          भ्रष्टाचार के विरुद्ध उपदेशों से ग्रन्थ भरे पड़े हैं, परन्तु उनका पालन करने वाले
उँगलियों पर गिने जा सकते हैं.
        महात्मा तेत्सुजैन ने बुद्ध देव के उपदेशों के प्रकाशनार्थ संगृहीत धन को पीड़ितों के
सहायतार्थ खर्च कर दिया. उनको पूरा विश्वास था कि उपदेशों को व्यवहार में लाकर हम
उपदेशक के प्रति अपने कर्त्तव्य का पालन करते हैं तथा उपदेशों की सार्थकता सिद्ध करते
हैं.
हमारे राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम उन दिनों रामेश्वरम् के एक स्कूल में पढ़ते थे.
एक व्यक्ति इनके पिताश्री से मिलने आया. वह घर पर नहीं थे. उपहार के नाम पर वह एक पैकेट
रखकर चला गया. पिताजी ने आकर जब पैकेट देखा, तो बेटे कलाम से उसके बारे में जानकारी
प्राप्त की? नाराज होकर उन्होंने इन्हें एक चपत लगाई और सीख दी-यह अच्छी तरह समझ
लो कि पद पर पहुँचने के बाद, यदि कोई उपहार देता है तो उसके पीछे कोई-न-कोई स्वार्थ जरूर
छिपा होता है. वह तुमसे कुछ अनुचित की अपेक्षा करता है. यदि भविष्य में तुम्हें भी कोई ओहदा
मिले और इसी तरह कोई लोभ लालच देने का प्रयास करे, तो उसे कदापि स्वीकार न करना.
अब्दुल कलाम ने उसी समय संकल्प किया कि वह जीवन में कभी किसी से कोई उपहार स्वीकार
नहीं करेंगे. हमारे महामहिम राष्ट्रपति की जीवनगाथा और वर्तमान आचरण इस बात के
प्रमाण हैं कि उन्होंने अपने पूज्य पिताजी के परामर्श का जीवनभर पूरी ईमानदारी के साथ
पालन किया है. विभिन्न उच्चतम पदों पर रहते हुए उनका मन कभी विचलित नहीं हुआ और
उनके विरुद्ध कोई भी व्यक्ति उँगली नहीं उठा सका है. हमारे अधिकांश युवा पाठक प्रशासनिक
सेवाओं के प्रति प्रतिश्रुत हैं और इसके लिए वे पूरी सामर्थ्य एवं शक्ति के साथ तैयारी भी कर
रहे हैं, परन्तु उन्हें यह ध्यान रखना होगा कि व्यक्ति जितने उच्च पद पर प्रतिष्ठित होता है,
उतने ही अधिक प्रलोभन उसके सामने आते रहते हैं और तद्नुसार उतने ही अवसर भ्रष्ट होने के
अथवा पतन के आते रहते हैं. अतएव उन्हें भ्रष्टाचार विमुख मानसिकता का निर्माण करने
का अभ्यास अभी से आरम्भ कर देना चाहिए. 
           अभी कुछ ही वर्षों पहले की बात है. उत्तर प्रदेश की एक नगरी के म्युनिसिपल बोर्ड के 
चैयरमैन की पत्नी ने उनसे एक दिन कहा- “मैंने अमुक व्यक्ति से अमुक काम कराने के लिए
₹50 हजार ले लिए हैं-आप उसका यह काम कर दीजिए. कहने की आवश्यकता नहीं है कि
अपनी बात कहते समय वह महिला एक प्रकार के विजय गर्व का अनुभव कर रही थी. उसने
पति द्वारा एक स्थान पर हस्ताक्षर करने मात्र के लिए ₹ 50 हजार झटक लिए थे.
         पत्नी की बात सुनकर वह सज्जन एक मिनट चुप रहने के बाद बोले- “ठीक है, परन्तु
इस धनराशि को व्यय मत करना, सँभालकर रख लेना. मैं जब मरूँ तो यह ₹ 50 हजार मेरे
शव के साथ बाँध देना. मैं इन्हें अपने साथ ले जाना चाहूँगा.” पति का उत्तर सुनकर पत्नी
अवाक् रह गई. उसने पति के चरणों पर गिरकर क्षमा की याचना की. रुपए तो उन्होंने सम्बन्धित
व्यक्ति को वापस कर ही दिए.
        इस प्रकार ईमानदारी का जीवन व्यतीत करते हुए जब चेयरमैन साहब का स्वर्गवास हुआ,
तो पूरा नगर शोकमग्न था. टाउन हॉल के प्रांगण में उनका अन्तिम संस्कार करके जनता ने उनके
प्रति अपना अभूतपूर्व सम्मान व्यक्त किया. आप भी क्या अपने पद पर कर्त्तव्यों को पूरी निष्ठा के
साथ कार्य करते हुए जनता के इस कोटि के आदर एवं सम्मान को प्राप्त करना चाहेंगे? याद
रखिए धन-दौलत किसी के साथ नहीं जाती है-जाती है केवल सदाचरण द्वारा अर्जित श्रद्धा
एवं सम्मान भावना. आपने पढ़ा होगा कि अकूत सम्पत्ति का स्वामी सोलोमन जब अपनी अन्तिम
यात्रा कर रहा था, तो उसका एक हाथ अर्थी के बाहर निकला हुआ था- यह बताने के लिए वह
भी इस दुनिया से खाली हाथ जा रहा है. दूसरा पक्ष यह है कि आदमी के यश का लेखा सदैव
एवं सर्वत्र सुरक्षित बना रहता है. भ्रष्टाचार वस्तुतः अर्थ-सम्पदा का बल भी है और फल भी है.
हम सब जानते हैं कि भ्रष्टाचार हमारे जन-जीवन का एक सर्वव्यापी अंग बन गया है और हमने
उसको सहज भाव से शिष्टाचार के रूप में स्वीकार कर लिया है.
इसके साथ ही इसके विरुद्ध अगणित उपदेश दिए जाते हैं और इसको जड़-मूल से
समाप्त करने के लिए गम्भीरतम संकल्प व्यक्त किए जाते हैं.
          एडमण्ड बर्कर का कथन है कि “भ्रष्ट समाज में स्वतंत्रता बहुत समय तक ठहर नहीं
सकती है.” अनेक कथन उपलब्ध होते हैं जो भ्रष्टाचार के अभिशापों के प्रति इंगित करते हैं,
 परन्तु हम मानते कब हैं और हमारा समाज दिनों-दिन ह्यसोन्मुख होता जा रहा है. हमें आशा 
ही नहीं, बल्कि पूरा विश्वास है कि हमारा उदीयमान युवा-वर्ग अपनी शिक्षाओं को मूर्त रूप देने 
के लिए कटिबद्ध है. इस संदर्भ में एक अत्यन्त प्राचीन एवं सत्य घटना का उल्लेख ज्ञानवर्धक एवं
मार्गदर्शक हो सकता है. जापान में बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार बहुत तेजी के साथ हो रहा था.
जापानी विद्वान् तेत्सुजैन पूरी निष्ठा एवं शक्ति के साथ इस कार्य में जुटे थे. उन्होंने बुद्ध के
धर्म-सूत्रों एवं उपदेशों का अनुवाद जापानी भाषा में कराया. उनके प्रकाशन के लिए पर्याप्त धन
भी एकत्र कर लिया. यकायक जापान के एक भाग में भीषण बाढ़ आ गई. तेत्सुजैन ने धर्मग्रन्थों
के प्रकाशनार्थ धन को बाढ़पीड़ितों के सहायतार्थ खर्च कर दिया. उन्होंने पाँच वर्षों तक फिर उक्त
कार्य हेतु धन इकट्ठा किया. इस बार एक गम्भीर महामारी फैल गई. संत ने एकत्र धनराशि को
बीमारों के इलाज में खर्च कर दिया. तीसरी बार धन-संग्रह के लिए जब बैठक की गई, तब एक
सहयोगी ने प्रश्न किया “जब हमने बौद्ध ग्रन्थों के लिए धन एकत्र किया था, तो आपने उसे
किसी अन्य कार्य में क्यों खर्च कर दिया.” भिक्षु तेत्सुजैन का उत्तर था, “भगवान बुद्ध के उपदेश
का एक ही सार है. सेवा सहायता सर्वोपरि धर्म है. हमने बुद्ध के ग्रन्थों के प्रकाशन की जगह
भगवान बुद्ध के विचारों के अनुपालन में धन लगा दिया और उनके उपदेशों को सार्थक किया
है. यदि बाढ़ या महामारी से तमाम लोग मर जाते, तो ग्रन्थों को कौन पढ़ता ?”
           सिद्धान्त रूप से इस प्रश्न पर मतभेद हो सकता है कि एक कार्य के लिए एकत्र धनराशि
को किसी अन्य कार्य में लगाना कहाँ तक उचित है. वह कार्य भले ही चाहे जितना महान् अथवा
उपकार समन्वित हो, परन्तु इस बात में किसी को आपत्ति नहीं हो सकती है कि उपदेशों की
सार्थकता उनको मूर्त रूप देने में है.
         हमें विश्वास है कि हमारे भावी कर्णधार एवं प्रशासक अपने को उपदेशों तक सीमित
नहीं रखेंगे और प्रत्येक उपयोगी उपदेश को मूर्त रूप देने का, उसे कार्य रूप में परिणत करने का
प्रयत्न पूरी निष्ठा के साथ करेंगे.

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