ज्ञान पिपासु सदैव कुछ-न-कुछ पाता ही है
ज्ञान पिपासु सदैव कुछ-न-कुछ पाता ही है
ज्ञान पिपासु सदैव कुछ-न-कुछ पाता ही है
‘जिज्ञासा’ इंसान का सहज स्वभाव है. जीवन के उषाकाल से लेकर सांध्यवेला तक
हर इंसान में यह गुण किसी-न-किसी मात्रा में, किसी-न-किसी विषय को
लेकर रहता ही है. जिज्ञासा अर्थात् जानने की इच्छा किसी-किसी में इतनी बलवती
होती है कि वे ज्ञान पाने की धुन में अपनी रोजी-रोटी तक की परवाह करना छोड़ देते
हैं. ये धुन जिनके भीतर होती है, अक्सर वे लोग जीवन के किसी-न-किसी मोड़ पर
अपमानित भी किए जाते हैं, अव्यवहारिक भी समझे जाते हैं. इन्हें
दुनिया मानसिक रोगी या पागल तक भी करार कर देती है, परन्तु ये कुछ चन्द लोग
ही अपनी जिज्ञासावृत्ति, नई शोध की ललक व ज्ञान की अतृप्त पिपासा के तहत् बढ़ते-
बढ़ते एक दिन मानव समाज के लिए ‘रत्न’ रूप माने जाते हैं. सम्पूर्ण मानव समाज के
के लिए गौरव के पात्र भी बन जाते हैं. मानव मात्र के लिए उपयोगी अनेक आविष्कारों के
जन्मदाता बन जाते हैं. कुछ बातें सभी महापुरुषों में समान रूप से पाई जाती हैं.
उनमें से एक है- ज्ञान पिपासा कहते हैं जैनों के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर
एवं गौतम बुद्ध ने तो ज्ञान की खोज में अपना राज-पाट, घर-परिवार सब कुछ छोड़
दिया. वे कई-कई वर्षों तक जंगलों में रहे, गाँव-शहर के बाहर बने श्मशान गृहों में,
उपवनों में अथवा एकान्त में कहीं भी रहते. वे ज्ञान की खोज में इतने तल्लीन हो जाते
कि कई-कई दिनों तक निराहार ही रह लेते. उन्हें अपने तन-मन की कोई सुध नहीं रहती,
भूख-प्यास नहीं सताती और अन्ततः महावीर स्वामी ने साढ़े बारह वर्षों की गहन खोज व
ध्यान के फलस्वरूप स्वयं में सर्व का ज्ञान प्रकट कर लिया. गौतम बुद्ध और महावीर ने
वह जान लिया जिसे जानने के बाद और कुछ जानना शेष नहीं रहता. कहा भी गया है कि-
जिन खोजा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ।
मैं बपुरा डूबन डरा रहा किनारे बैठ ॥
यह सच है कि ज्ञान पिपासु अपनी मंजिल को पाता ही है. यदि कम समय में
पूर्ण ज्ञान तक न भी पहुँचा तब भी कुछ-न-कुछ तो पाता ही है. ज्ञान पिपासु कहीं भी
ज्ञान पा लेता है. कहा भी गया है कि-
“यादृशी भावना यक्य सिद्धिर्भवति तादृशी” जिसकी जैसी भावना होती है उसे
वैसी सिद्धि मिल ही जाती है, जिसकी जैसी प्यास होती है उसे वैसा पानी मिल ही जाता
है. जो व्यापारी बनिया है वह हर स्थान पर अपना लाभ किसी-न-किसी तरीके से खोज
ही लेता है, जो दयालु या सेवाभावी है उसे सेवा करने योग्य स्थान मिल ही जाता है.
इसी तरह जिसके भीतर ज्ञान की प्यास है वह कहीं से भी ज्ञान पा ही लेता है. व्यापारी
को तो धन लाभ पाने के लिए किसी-न-किसी क्रेता-विक्रेता की जरूरत रहती है,
किन्तु ज्ञान पिपासु को कोई ज्ञानदाता न भी मिले तब भी वह ज्ञान को कहीं से भी ले
लेता है. एकलव्य ने बिना गुरु के भी ज्ञान पा ही लिया. बस जरूरत है ज्ञान पाने की
सच्ची लगन की ऐसे लोगों की भी इस दुनिया में कमी नहीं जिन्होंने रद्दी की
दुकानों पर पहुँच गई किताबों को पढ़कर विश्व के बारे में जानकारियाँ हासिल की हैं,
अखबार की कतरन को पढ़कर जिनकी जिन्दगी के पृष्ठ बदल गए हैं.
संत लुकमान हकीम की ज्ञान पिपासा व लगन इतनी विलक्षण रही कि उन्होंने मूर्खों
व पागलों से भी ज्ञान पा लिया. जिन कारणों के तहत् वे मूर्ख बने उन कारणों को जाना
और अपने में से उनका निराकरण किया.
“न हि ज्ञानेन सदृश पवित्रमिह विद्यते.”
“ज्ञान सदैव नूतन होता है.” आत्मज्ञानी विराट गुरुजी ने अपने सम्पूर्ण जीवन को
ज्ञान यज्ञ में समर्पित किया. उनका यह वाक्य है कि ‘ज्ञान सदैव नूतन होता है. वह
कभी बासी नहीं होता, वह कभी उधार नहीं लिया जा सकता. जिसके पास ज्ञान है उसके
पास शक्ति है. इस युग को हम ज्ञान का भंडार कह सकते हैं. आज की दुनिया में आप
बड़ी उम्र के होने मात्र से सम्मानित नहीं हो सकते. न ही ऊँचे ओहदे या धन के संग्रह
मात्र से, आज तो वही श्रेष्ठ है जिसके पास ज्ञान है, बीते वर्षों में कहा जाता था कि-
“जिसकी लाठी उसकी भैंस”
किन्तु आज ऐसा नहीं है. बिना ज्ञान के आज की दुनिया में जी सकना, सफल जिंदगी
जी पाना तो असम्भव सा ही है. प्राचीनकाल से भी नीति हमें यही सिखाती रही है कि-
“स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान् सर्वत्र पूज्यतेः ।” अर्थात् यदि कोई राजा भी है, तो
वह अपने देश में ही पूजा जाता है, किन्तु विद्वान् तो सभी जगहों पर पूजा जाता है.
विद्वान् की इस जगत् में अलग ही शोभा व आभा होती है.
ज्ञान पिपासु सदा गुणग्राही बना रहता है तब ही वो ज्ञान पा सकता है, वह सदा
खुले दिल-दिमाग का बना रहता है, तब ही वह नवीन जानकारियों को ग्रहण कर पाता
है और नए आयामों से सोच समझ पाता है. ज्ञान पिपासु के भीतर बाधाएं व रुकावटें
नहीं रहतीं इसीलिए वह अपने व्यक्तित्व को विराट बनाता जाता है, विराट गुरुजी का
कहना है कि-
“हर शख्स गुणी, हर दृश्य गुणी
मैं गुणपूजन दृष्टि पाऊँ ॥”
इस दुनिया में यत्र-तत्र सर्वत्र ज्ञान प्राप्ति के निमित्त बिखरे पड़े हैं, जो जिज्ञासु
हैं, जो गुणबोधी हैं वह ज्ञान को उपलब्ध होता ही जाएगा बस, विवेक इस बात का
रखना जरूरी है कि हमारी ज्ञान पिपासा अनावश्यक बेतुकी जानकारियों को इकट्ठी
करने में न भटक जाए.
प्राचीन आचार्य कहते थे कि’अद्वजुत्ताणि सिक्खेज्जा, निरद्वाणि उ वज्जए’
अर्थात् जो अर्थयुक्त हो उसे सीखो व जो निरर्थक है उसका वर्जन करो, जो आवश्यक
है उसके शोध में जुटो, जो न तो भौतिक-दैहिक जीवनयापन के लिए आवश्यक है, न
ही आत्मिक उन्नति के लिए ऐसे विषयों में भ्रमित न बनना.
सारांशतः मनुष्य को अपने भीतर की ज्ञान पिपासा को भी सम्यक राह देना जरूरी
है. अन्यथा आज इण्टरनेट के माध्यम से गुगल सर्च आदि अनेक प्लेटफार्म पर जो
बेशुमार जानकारियाँ भरी पड़ी हैं, उसको जानने-पढ़ने में जिंदगी बीत जाएगी, किन्तु
जो उपयोगी व सार्थक है यदि वह नहीं जाना गया, तो सब जाना बहुत व्यर्थ ही
साबित हो जाएगा. नीतिकार कहते हैं कि-
अनन्त शास्त्रं बहुलाश्च विद्या
स्वल्पश्च काल बहुविघ्नता च ।
यत्सारभूतः तदुपासनीयं
हंसो यथा क्षीरमिवाम्बुमध्यात् ॥
है हमारे सो कर्म कभी निष्फल नहीं होते, चाहे वह पुण्य रूप हो या पाप रूप.
क्यों न हम पवित्र भावों से सर्वजन उपयोगी कर्मों को ही स्वयं से सम्पादित होने
दें ……..ताकि परिणामस्वरूप, जो सृष्टि रचना हो, वह भी सबको कल्याणकारी बनें.
अन्त में विराट गुरुजी की इस प्रार्थना को अपना जीवन आदर्श बनाना न भूलें, जो
कहती है कि-
लो करें मिलकर सभी हम प्रार्थना यह,
इस जगत् में हर तरफ आनंद वर्ते ।
दूसरे होवें सुखी सहलें भले हम,
न बंधे खुद न रखे औरों को शर्तें…..।।
हो भला सबका…….. ॥
ना मुकरना हो कभी कर्तव्य निज से,
ना कभी आलस हमें बेहोश कर दे।
हो बड़ा-छोटा सभी को मान देवें,
जो भी जैसा भी मिले बस प्यार कर लें……।
हो भला सबका……।।
……………जय हो,
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