ठिठुरता हुआ गणतंत्र

ठिठुरता हुआ गणतंत्र

                        ठिठुरता हुआ गणतंत्र

चार बार मैं गणतंत्र दिवस का जलसा दिल्ली में देख चुका हूँ। पाँचवीं बार
देखने का साहस नहीं। आखिर यह क्या बात है कि हर बार जब मैं
गणतंत्र – सामारोह देखता, तब मौसम बड़ा क्रूर रहता। छब्बीस जनवरी के पहले
ऊपर बर्फ पड़ जाती है। शीत लहर आती है, बादल छा जाते हैं, बूँदाबाँदी होती
है और सूर्य छिप जाता है। जैसे दिल्ली की अपनी अर्थनीति नहीं है, वैसे ही
अपना मौसम भी नहीं है। अर्थनीति-जैसे डॉलर, पौंड, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष या
भारत-सहायता क्लब से तय होती है, वैसे ही दिल्ली का मौसम कश्मीर,
सिक्किम, राजस्थान आदि तय करते हैं।
 
          इतना बेवकूफ भी नहीं हूँ कि मान लूँ, जिस साल मैं समारोह देखता हूँ,
उसी साल ऐसा मौसम रहता है। हर साल देखने वाले बलाते हैं कि हर गणतंत्र
दिवस पर मौसम ऐसा ही धूपहीन ठिठुरनवाला होता है ।
 
आखिर बात क्या है ? रहस्य क्या है ?
 
      जब कांग्रेस टूटी नहीं थी, तब मैंने एक कांग्रेसमंत्री से पूछा था कि यह क्या
बात है कि हर गणतंत्र दिवस को सूर्य छिपा रहता है ? सूर्य की किरणों के तले
हम उत्सव क्यों नहीं मना सकते ? उन्होंने कहा- ‘जरा धीरज रखिए । हम
कोशिश में लगे हैं कि सूर्य बाहर आ जाए । पर इतने बड़े सूर्य को बाहर
निकालना आसान नहीं है। वक्त लगेगा । हमें सत्ता से कम-से-कम सौ वर्ष
तो दीजिए ।’
 
      दिए । सूर्य को बाहर निकालने के लिए सौ वर्ष दिए, मगर हर साल उसका
कोई छोटा कोना निकलता तो दिखना चाहिए । सूर्य कोई बच्चा तो हैं नहीं जो
अंतरिक्ष की कोख में अटका है, जिसे आप एक दिन ऑपरेशन करके निकाल देंगे।
 
इधर जब कांग्रेस के दो हिस्से हो गए तब मैंने एक सिंडिकेटी कांग्रेसी सें
पूछा। उसने कहा- “हम हर बार सूर्य को बादलों से बाहर निकालने की कोशिश
करते. थे, पर हर बार सिंडिकेटवाले अड़ंगा डाल देते थे। अब हम वादा करते
हैं कि अगले गणतंत्र दिवस पर सूर्य को निकालकर दिखाएँगे ।”
 
        एक सिंडिकेट पास खड़ा सुन रहा था। वह बोल पड़ा- “ये लेडी (प्रधा
नमंत्री) कम्युनिस्टों के चक्कर में आ गई है। वही उसे उकसा रहे हैं कि सूर्य
को निकालो । उन्हें उम्मीद है, बादलों के पीछे से उनका प्यारा ‘लाल सूरज’
निकलेगा । हम कहते हैं कि सूर्य को निकालने की क्या जरूरत है ? क्या
बादलों को हटाने से काम नहीं चल सकता ?”
 
         मैं संसोपाई भाई से पूछता हूँ । वह कहता है-‘सूर्य गैर-कांग्रेसवाद पर
अमल कर रहा है । उसने डॉक्टर लोहिया के कहने से हमारा पार्टी-फार्म भर
दिया था । कांग्रेसी प्रधानमंत्री को सलामी लेते वह कैसे देख सकता है ? किसी गैर-
कांग्रेसी को प्रधानमंत्री बना दो, तो सूर्य क्या, उसके बच्चे भी निकल पड़ेंगे।’
 
       जनसंघी भाई से भी मैंने पूछा । उसने साफ कहा-“सूर्य सेक्युलर होता तो
इस सरकार की परेड में निकल आतां । इस सरकार से आशा मत करो कि वह
भगवान अंशुमाली को निकाल सकेगी । हमारे राज्य में ही सूर्य निकलेगी ।”
 
        एक साम्यवादी ने मुझसे साफ कहा-‘यह सब सी.आई.ए. का पड्यंत्र हैं
सातवें बेड़े से बादल दिल्ली भेजे जाते हैं ।’
 
         स्वतंत्र पार्टी के नेता ने कहा- ‘रूस का पिछलग्गू बनने का और क्या
नतीजा होगा ।’
 
        प्रसोपा के एक साथी ने अनमने ढंग से कहा-‘सवाल पेचीदा है। नेशनल
कौंसिल की अगली बैठक में इसका फैसला होगा । तब बताऊँगा ।’
 
        राजाजी से मैं मिल न सका । मिलता, तो वह इसके सिवा क्या कहते कि
इस राज में तारे निकलते हैं, यही गनीमत है ।
 
मैं इंतजार करूंगा, जब भी सूर्य निकले ।
 
     स्वतंत्रता दिवस भी तो भरी बरसात में होता है । अंग्रेज बहुत चालाक हैं।
भरी बरसात में स्वतंत्र करके चले गए। उस कपटी प्रेमी की तरह भागे, जो
प्रेमिका को छाता भी ले जाए। वह बेचारी बस-स्टैंड जारी है, तो उसे प्रेमी की
नहीं, छाता-चोर की याद सताती है ।
 
      स्वतंत्रता दिवस भींगता है और गणतंत्र दिवस ठिठुरता है ।
 
मैं ओवरकोट में हाथ डाले परेड देखता हूँ । प्रधानमंत्री किसी विदेशी
मेहमान के साथ खुली गाड़ी में निकलती हैं । रेडियो टिप्पणीकार कहता
है-‘घोर करतल ध्वनि हो रही है।’ मैं देख रहा हूँ, नहीं हो रही है। हम सब
तो कोट में हाथ डाले बैठे हैं। बाहर निकालने का जी नहीं होता। हाथ अकड़
जाएँगे ।
 
          लेकिन हम नहीं बजा रहे हैं, फिर भी तालियाँ बज रही हैं। मैदान में
जमीन पर बैठे वे लोग बजा रहे हैं, जिनके पास हाथ गरमाने के लिए कोट नहीं
है। लगता है; गणतंत्र ठिठुरते हुए हाथों की तालियों पर टिका है। गणतंत्र को
उन्हीं हाथों की ताली मिलती है, जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिए
गर्म कपड़ा नहीं है ।
 
      पर कुछ लोग कहते हैं- ‘गरीबी मिटनी चाहिए ।’ तभी दूसरे कहते
हैं-‘ऐसा कहनेवाले प्रजातंत्र के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं ।
 
        गणतंत्र दिवस समारोह में हर राज्य की झाँकी निकलती है। ये अपने राज्य
का सही प्रतिनिधित्व नहीं करतीं। ‘सत्यमेव जयते’ हमारा मोटो है मगर झाँकियाँ
झूठ बालती हैं इनमें विकास कार्य, जनजीवन, इतिहास आदि रहते हैं। असल
में हर राज्य को उस विशिष्ट बात को यहाँ प्रदर्शित करना चाहिए जिसके कारण
पिछले साल वह राज्य मशहूर हुआ । गुजरात की झाँकी में इस साल दंगे का
दृश्य होना चाहिए, जलता हुआ घर और आग में झोंके जाते बच्चे । पिछले साल
मैंने उम्मीद की थी कि आंध्रप्रदेश की झाँकी में हरिजन जलाते हुए दिखाए।
जाएँगे। मगर ऐसा नहीं दिखा। यह कितना बड़ा झूठ है कि कोई राज्य दंगे के
कारण अंतर्राष्ट्रीय ख्याति पाए, लेकिन झाँकी सजाए लघु उद्योगों की। दंगे से
अच्छा गृह-उद्योग तो इस देश में दूसरा है नहीं। मेरे मध्यप्रदेश ने दो साल पहले
सत्य के नजदीक पहुँचने की कोशिश की थी । झाँकी में अकाल राहत कार्य
बतलाए गए थे। पर सत्य अधूरा रह गया था। मध्यप्रदेश उस साल राहत कार्यों
के कारण नहीं, राहत कार्यों में घपले के कारण मशहूर हुआ था। मेरा सुझाव माना
जाता तो मैं झाँकी में झूठे मास्टर-रोल करते दिखता, चुकारा करनेवाले का अँगूठा
हजारों मूर्खों के नाम के आगे लगवाता, नेता, अफसर, ठेकेदार के बीच लेन-देन
का दृश्य दिखाता । उस झाँकी में वह बात नहीं आई। पिछले साल स्कूलों की
‘टाट-पट्टी कांड’ से हमारा राज्य मशहूर हुआ। मैं पिछले साल की झाँकी में यह
दृश्य दिखाता- मंत्री, अफसर वगैरह खड़े हैं और टाट-पट्टी खा रहे हैं ।
      जो हाल झाँकियों का, वही घोषणाओं का। हर साल घोषणा की जाती है
कि समाजवाद आ रहा है पर अभी तक नहीं आया। कहाँ अटक गया ? लगभग
सभी दल समाजवाद लाने का दावा करते हैं, लेकिन वह नहीं आ रहा ।
 
        मैं एक सपना देखता हूँ। समाजवाद आ गया है और बस्ती के बाहर टीले
पर खड़ा है। बस्ती के लोग आरती सजाकर उसका स्वागत करने को तैयार खड़े
हैं। पर टीले को घेरे खड़े हैं कई तरह के समाजवादी। उनमें से हर कोई लोगों
से कहकर आया है कि समाजवाद को हाथ पकड़कर मैं ही लाऊँगा ।
 
समाजवाद टीले से चिल्लाता है-‘मुझे बस्ती में ले चलो ।’
 
मगर टीले को घेरे समाजवादी कहते हैं-‘पहले यह तय होगा कि कौन तेरा
हाथ पकड़कर ले जाएगा ।’
 
        समाजवाद की घेराबंदी कर रखी हैं संसोपा-प्रसोपावाले जनतांत्रिक समाजवादी
हैं, पीपुल्स डेमोक्रेसी और नेशनल डेमोक्रेसी वाले साम्यवादी हैं, दोनों तरह के
‘कांग्रेसी हैं, सोशलिस्ट यूनिटी सेंटरवाले हैं। क्रांतिकारी समाजवादी हैं हर कोई
समाजवाद का हाथ पकड़कर उसे बस्ती में ले जाकर लोगों से कहना चाहता
है-‘लो, मैं समाजवाद ले आया ।’
 
         समाजवाद परेशान है। उधर जनता भी परेशान है। समाजवाद आने को
तैयार खड़ा है, मगर समाजवादियों में आपस में धौल-धप्पा हो रहा है ।
समाजवाद एक तरह उतरना चाहता है कि उस पर पत्थर पड़ने लगते हैं ।
‘खबरदार, उधर से मत जाना ।’ एक समाजवादी उसका हाथ पकड़ता है, तो
दूसरा हाथ पकड़कर उसे खींचता है। तब बाकी समाजवादी छीना-झपटी करके
हाथ छुड़ा दे हैं । लहूलुहान समाजवाद टीले पर खड़ा है।
 
             इस देश में जो जिसके लिए प्रतिबद्ध है, वही उसे नष्ट कर रहा है ।
लेखकीय स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध लोग ही लेखक की स्वतंत्रता छीन रहे हैं।
सहकारिता के लिए प्रतिबद्ध इस आंदोलन के लोग ही सहकारिता को नष्ट कर
रहे हैं। सहकारिता तो एक स्पिरिट है। सब मिलकर सहकारितापूर्ण खाने लगते
हैं और आंदोलन को नष्ट कर देते हैं। समाजवाद को समाजवादी ही रोके हुए है।
 
    यों प्रधानमंत्री ने घोषणा कर दी है कि अब समाजवाद आ ही रहा
मैं एक कल्पना कर रहा हूँ ।
 
      दिल्ली में फरमान जारी हो जाएगा-‘समाजवाद सारं देश के दौरे पर निकल
रहा है । उसे सब जगह पहुँचाया जाए। उसके स्वागत और सुरक्षा का पूरा
बंदोबस्त किया जाए ।’
 
        एक सचिव दूसरे सचिव से कहंगा- ‘लो, ये एक और वी.आई.पी. आ रह
हैं। अब इनका इंतजाम करो। नाक में दम है ।’
 
   कलेक्टरों को हुक्म चला जाएगा । कलेक्टर एस. डी. ओ. को लिखेगा,
एस. डी. ओ. तहसीलदार को ।
 
    पुलिस दफ्तरों में फरमान पहुँचेगें, समाजवाद की सुरक्षा की तैयारी करो ।
दफ्तरों में बड़े बाबू, छोटे बाबू से कहेंगे- ‘काहे हो तिवारी बाबू, एगो कोई
समाजवाद वाला कागज आया था न ! जरा निकालो !!
 
    तिवारी बाबू कागज निकालकर देंगे। बड़े बाबू फिर से कहेंगे-‘अरे वह
समाजवाद तो परसों ही निकल गया । कोई लेने नहीं आया स्टेशन ! तिवारी
बाबू, तुम कागज दबाकर रख लेते हो । बड़ी खराब आदत है तुम्हारी !’
 
    तमाम अफसर लोग चीफ सेक्रेटरी से कहेंगे-‘सर, समाजवाद नहीं आ
सकता ? बात यह है कि उसकी सुरक्षा का इंतजाम नहीं कर सकेंगे। दशहरा
आ रहा है । दंगे के आसार हैं। पूरा फोर्स दंगे से निपटने में लगा है।
 
    मुख्य सचिव दिल्ली लिख देगा ‘हम समाजवाद की सुरक्षा का इंतजाम
करने में असमर्थ हैं। उसका आना अभी मुलतवी किया जाय ।’
 
  जिला शासन्न-व्यवस्था में समाजवाद के आगमन के कागज दब जाएँ और
जो उसकी सुरक्षा की व्यवस्था न करे, उसके भरोसे समाजवाद लाना है तो ले
आओ । मुझे खास एतराज भी नहीं है । जनता के द्वारा न आकर अगर
समाजवाद दफ्तरों के द्वारा आ गया तो एक ऐतिहासिक घटना हो जाएगी ।

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