ठुकराया हुआ ठीकरा एवं गुण्डा की कहानियां
ठुकराया हुआ ठीकरा एवं गुण्डा की कहानियां
ठुकराया हुआ ठीकरा एवं गुण्डा की कहानियां
ठुकराया हुआ ठीकरा’ जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ की एक श्रेष्ठ कहानी है।
कहानी का शीर्षक कथावस्तु के मुख्य तंतुओं को सुस्पष्ट कर देता है। यह कहानी मध्यवर्गीय
परिवार की है। आज भौतिकता की धुंध में पड़कर मानव कितना पशुवत आचरण कर सकता
है, तथा हमारे सभी मानवीय कौटुम्बिक सम्बन्ध स्वार्थों के धरातल पर ही निर्भर है, इस कहानी
के द्वारा संकेतित हैं। आज हमारे परिवार में, समाज में अपने-पराए में, नीरसता, मूल्यहीनता
एवं विघटन के भाव जहाँ आ जकड़े हैं, वहीं कुछ ऐसे भी लोग हैं, जो अनाचार, नीरसता
एवं छल-छद्म के परिवेश में तपकर स्वर्ण बन जाते हैं। इस कहानी का नायक प्रकाश एक
ऐसा ही पात्र है, जो अपने मामा द्वारा ठुकराया जाकर अपनी कर्तव्यपरायणता एवं निष्ठा के
कारण एक महापुरुष बन जाता है। लोकनाथ बाबू ऊँची शिक्षा पाकर भी युगीन यंत्रणा से
आहत, विवेक शून्य, विक्षिप्त चित्त मनुष्य हैं, जो पटना के प्रसिद्ध वकील हैं। प्रकाश उनकी
विधवा बहन का असहाय, निर्धन बालक है, जो अपनी माँ के साथ मामा के घर पर घरेलु
नौकर की भाँति रह रहा है। उनका स्वभाव अत्यन्त कोमल, सहिष्णु था, पढ़ने में मेधावी प्रकाश
को ‘वकील’ साहब के अतिरिक्त सभी कोई चाहता है। पद-पद पर दोनों माँ-बेटा को अपमानित
होकर जीवन जीने को विवशता थी।
घर से छोटे-बड़े सभी कामों का दायित्व प्रकाश पर था, उसकी छोटी सी गलती पर
वकील साहब उसे डाँटते, और कभी-कभी शारीरिक दण्ड भी देते थे। उसकी माँ अपने पुत्र
की इस दुर्दशा को देख विकल रहा करती थी। एक दिन शाम के नास्ते में बाजार की सामग्री
देख वकील साहब क्रोध से तमतमाते हुए बोले- “बेटे की बड़ी ममता है, तो निकल जा मेरे
घर से। यहाँ मुफ्त में खाना-कपड़ा देने का किसी ने ठेका नहीं ले रखा है।” माँ-बेटे की
प्रताड़ना उस घर में बढ़ती जा रही थी। बेटे की दुर्दशा देख चिन्ता से आहत प्रकाश की माँ
सदैव पीड़ा में डूबी रहकर कब तक जीवित रह पाती, वह ज्वर से आक्रान्त रहने लगी। पूरे
पन्द्रह दिनों तक भीषण यातनाओं का सामना करने के बाद अपने अनाथ बेटे को अकेला
छोड़कर वह संसार से चल बसती है। उसके कष्टों का तो अन्त हो गया, लेकिन प्रकाश पर
दुर्दिन के बादल दिनों-दिन घने होते गये। उसका जीवन दिन-दिन साँसत-जाल में फँसता जा
रहा था, भीषण संकट सीमाहीन बन गया था, फिर वह एक नेकदिल युवक की तरह अपने
कार्यों का सम्पादन सहिष्णुतापूर्वक करता जा रहा था।
कुछ दिनों के बाद प्रकाश के जीवन में कुछ नये कठोर सन्दर्भ उभरते है। इस सन्दर्भ
से उसके चरित्र पर कलंक लगता है। वकील साहब का साला आता है और उन लोगों के
साथ रहने लगता है। समय पाकर उस प्यारे साले ने वकील साहब के कुछ रुपये चुरा लिए,
वकील साहब का शक प्रकाश पर था। प्रकाश से चोरी के सम्बन्ध में पूछताछ की गयी।
उसका हृदय निष्कलंक था, वह क्या बोलता। वकील साहब पूछते हैं-“चोर कहीं का? अभी
सब रुपये लाकर रख दो नहीं तो जान ले लूँगा।” निरपराधी प्रकाश क्या सफाई देता, सबकुछ
सुनता रहा, उनका अत्याचार सहता रहा। लेकिन प्रहार सहने की भी सीमा होती है। उसके
हृदय में अपूर्व बल और साहस भर आया। वह प्रतिकार के स्वर मे बोला- “ईश्वर के लिए,
मेरे चरित्र को कलंकित मत कीजिए। सब सह लूँगा, परन्तु अपनी इस विभूति का अनादर
मुझसे नहीं सहा जाएगा। यही मेरा सर्वस्व है-इसे छीनने की कोशिश मत कीजिए।” यह
सुन वकील साहब भभक उठे। प्रकाश को लात-जूतों से मारने लगे। वह बेचारा गिर गया,
थोड़ी देर बाद कराहता हुआ उठा और चल दिया। मामा के घर की ओर देखा तक नहीं।
प्रकाश का अस्तित्व खोता नहीं है। मामा के घर से निकलकर वह अपनी व्यक्ति सत्ता
की, निजीपन की खोज करता है, कर्त्तव्य और दायित्व बोध से कभी प्रकाश दुनिया की धुंध में
विलीन नहीं होता, भोर के तारे की तरह चमकने लगता है। आस्था का संबल ले वह अदम्य
साहस के साथ जीवन के दुर्गम पथ पर अग्रसर हो जाता है। नाले से उठकर वह सीधे काशी
पहुँचा। भीख माँगकर, चंदा ग्रहण कर वह किसी तरह वहाँ के ‘हिन्दू-स्कूल में नाम लिखवा
लिया। कुछ ही दिनों में अपनी प्रतिभा के बल पर वह चमक उठा। स्कूल के छात्र एवं अध्यापक
उसे प्रेम और श्रद्धा की दृष्टि से देखने लगे। प्रधानाध्यापक का वह विशेष प्रियपात्र बन गया।
विद्यालय की शिक्षा समाप्त कर वह कॉलेज पहुँचा। वहाँ उसकी प्रतिभा और भी चमक
उठी। सम्मानपूर्वक एम० ए० की पदवी पाते ही काशी विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के अध्यापक
के पद पर उसकी नियुक्ति हो गयी और वहीं की एक विदुषी कन्या से उसका विवाह हो गया।
जूता साफ करने वाला, बर्तन साफ करने वाला और अपने मामा के पैरों की ठोकर
खाने वाला प्रकाश आस्था और जिजीविषा का प्रतीक बन काशी को अपनी सेवा समर्पित
करने लगा, सिर्फ शिक्षा के क्षेत्र में ही नहीं समाज-सेवा के कई क्षेत्रों में वह आगे रहने लगा।
रामकृष्ण-सेवाश्रम’ मैं प्रतिदिन जाकर रोगियों की सेवा करना उसके जीवन का एकान्त व्रत
हो गया। इस पुनीत कार्य में उसकी पत्नी भी उसकी सहायता करने लगी थी।
जीवनास्था का प्रतीक ‘प्रकाश’ अब प्रकाश बाबू बनकर ‘काशी’ के एक प्रतिष्ठित
व्यक्ति बन गये थे। एक सायंकाल भ्रमण कर घर लौट रहे थे कि रास्ते में उन्हें नाले में गिरा
रोगी व्यक्ति मिला जिसके पूरे शरीर पर घाव थे, जो पक कर फंट रहे थे और उससे पीव
निकल रही थी। उस व्यक्ति का शरीर वीभत्स एवं घिनौना लग रहा था। मौत के कीड़े भी
उसके पास जाने में भयभीत हो रहे थे।
प्रकाश बाबू उस रोगी की वेदना से द्रवित हो जाते हैं। उसकी दारुण अवस्था पर वे रो
पड़े। बड़ी सावधानी से उन्होंने रोगी को गोद में उठा लिया, अपनी चादर से उसका सारा शरीर
ढँक दिया। उसी समय आश्रम में खबर भेजी गयी और उसे चिकित्सालय पहुँचाया गया।
आश्रम की सेवा एवं चिकित्सा से वह रोगी भला चंगा हो गया। एक दिन प्रकाश बाबू
ने उससे अपने जीवन के विषय में कुछ बताने का आग्रह किया। उस रोगी ने अपने उत्थान-पतन
की सारी बातें बताई। वह व्यक्ति कोई दूसरा नही, प्रकाश बाबू के मामा लोकनाथ मिश्र ही
है, जिनका जीवन पापों का पुंज है, जिनका पूरा परिवार हैजा में समाप्त हो चुका है, जो
जाली दस्तावेज तैयार करने के कारण जेल की सजा काटने के बाद, तीर्थों में इधर-उधर
भटकते रहे हैं और अन्त में मरने की कामना से प्रेरित होकर काशी आये थे। अपने मामा को
पहचान कर प्रकाश भाव-विभोर हो उसके चरणों पर गिर जाता है। प्रकाश आदरपूर्वक अपने
मामा को अपने घर ले आता है।
इस कहानी का शीर्षक ही कहानी के मूल उद्देश्य को स्पष्ट कर देता है। लेखक ने
इस कहानी के द्वारा दो तरह के पात्रों के चरित्र का गठन करके दो जीवन-दृष्टियों का विश्लेषण
किया है। वकील लोकनाथ मिश्र प्रकाश के मामा हैं, विद्वान हैं, न्याय-अन्याय का विवेचन
करना ही उनका पेशा है, पर वे आज के तथाकथित बुद्धिजीवियों की ही तरह भावनाशून्य
हैं। मानवीय चेतना की जगह उनमे स्वार्थ, अहं, यांत्रिकता, शोषण, छल-प्रपंच एवं अशोभनीय
भाव है। वैभव सम्पन्न, उच्चकुलोत्पन्न व्यक्ति होकर ही कोई आदर का पात्र नहीं बनता,
आदर पाने के लिए मानवीय गुणों का होना आवश्यक है। दुराचारियों, कदाचारियों के जीवन
का अन्तिम परिच्छेद अत्यन्त ही दुःखद, घिनौना एवं वीभत्स होता है, इस कहानी के पात्र
लोकनाथ मिश्र के चरित्र से स्पष्ट होता है। आज के भौतिकवादी युग में तो―
सामने, बस स्वार्थ का जंगल घना,
दुर्ग जिसमें डाकुओं का है बना
…… लेटने को हम यहाँ मजबूर है
वेदना से अंग सारे चूर हैं। (महेन्द्र भटनागर)
दूसरी ओर प्रकाश है, जो महात्मा है, साधु और वीर है, जो अपने परिश्रम से अपनी
कष्ट सहिष्णुता और कर्तव्यनिष्ठा से सफलता के शिखर का स्पर्श करता है, जिसके हृदय में
सत्वगुण का सागर उमड़ता-घुमड़ता है। दिनकर के शब्दों में जिसका कथन है―
शील मुकुट नरता का सबसे बड़ी भव्यता का है।
नहीं धर्म से बढ़कर कोई मित्र सभ्यता का है।
‘गुण्डा’ की कहानी
प्रसाद जी की कहानियाँ हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि हैं। प्रेमचन्द के
अतिरिक्त जो कहानियाँ खड़ी बोली में हैं, उनके जन्मदाता प्रसादजी हैं। हिन्दी में भाव-प्रधान
कहानियों का आरम्भ प्रसाद जी से होता है।
प्रसाद जी प्राय: अपनी कहानियों का प्रारम्भ कथनोपकथनों से करते हैं। वे कथोपकथन
के द्वारा ही कथानक में द्वन्द्व भी पैदा करते हैं। विषयवस्तु को विवरण या व्याख्या द्वारा स्पष्ट
न करके वे सूक्ष्म संकेतों का सम्बल लेते हैं। सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक संकेतों से कथानक को
चरम सीमा पर सहसा छोड़ देना प्रसाद की कहानियों की विशेषता है। जैसे-‘गुण्डा’,
‘सालवती’, ‘पुरस्कार’, ‘आँधी’, ‘नीरा’, ‘दासी’ आदि।
‘गुण्डा’ कहानी प्रसाद जी की एक श्रेष्ठतम कहानी मानी गयी है। यह कहानी प्रसाद
जी के तृतीय उत्थान-काल की कहानी है। ‘इन्द्रजाल’ नाम से संकलित कहानी का धरातल
मनोवैज्ञानिक है। चरित्र का विश्लेषण यहाँ मनोवैज्ञानिक ढंग से किया गया है। यहाँ प्रसाद जी
आदर्शवादी होते हुए भी यथार्थवादी हैं। नन्हकू सिंह ‘गुण्डा’ के नाम से काशी में चर्चित है।
उसकी सज-धज भी गुण्डा ईप की है, लेकिन जैसा वह बाहर से दिखायी देता है, वैसा
भीतर से नहीं है।
कहानीकार ने नन्हकू सिंह के बाहरी आवरण को ऐसा निरूपित किया है कि लोग उसे
गुण्डा मान लेने पर विवश होते हैं। वीरता उनका धर्म था, अपनी बात पर मिटना, सिंह वृत्ति
से जीविका ग्रहण करना, प्राण भिक्षा मांगने वाले कायरों तथा चोट खाकर गिरे हुए प्रतिद्वन्द्वी
पर शस्त्र न उठाना, प्रत्येक क्षण अपने प्राणों को हथेली पर लिए घूमना उनकी शोभा थी।
नन्हकू सिंह की यह सज-धज अकारण नहीं थी। इसका कारण अत्यन्त सूक्ष्म एवं
मनोवैज्ञानिक था। प्रायः ऐसा देखा जाता है कि प्राणी अलभ्य अभिलाषा से वंचित होकर
विरक्त हो जाता है। नन्हकू सिंह एक प्रतिष्ठित जमीन्दार का पुत्र था। उसके मन में एक संचित
अभिलाषा थी, लेकिन उस अभिलाषा की पूर्ति नहीं होने के कारण वह जीवन से निराश सा
हो गया था। उसकी निराशा का कारण मनोवैज्ञानिक था। नन्हकू के चरित्र में अचानक परिवर्तन
परिस्थितियों के कारण होता है। भीतर से अतिशय कोमल रहते हुए भी वह बाहर से गुण्डा
की तरह आचरण करता है। बसंत ऋतु में वह प्रहसनपूर्ण अभिनय करने के लिए जिस निर्भीकता
और उच्छृंखलता को अपनाता है वैसा सामान्य लोग नहीं कर सकते।
काशी का यह गुण्डा कभी शहर के बाहर की हरियाली में, कभी गंगा की धारा में
मचलती हुई नाव पर, कभी किसी जुएखाना में, तो कभी तमोली की दुकान पर दिखाई देता
था। लेकिन नन्हकू सिंह भीतर से पूर्णतः निष्कलंक था। उसमें साहस, वीरता, धैर्य, प्रेम,
परोपकार, सदाशयता और बलिदान की धारा प्रवाहमान हो रही है। वह विकट से विकट
परिस्थितियों में भी अपना धैर्य नहीं छोड़ता। भले ही परिस्थिति जन्य विवशता के कारण वह
गुण्डा बन गया था, लेकिन उसके भीतरी स्तर में देवत्व की अमिट छाप थी। उसका गुण्डापन
तो उसकी चिर अतृप्त अभिलाषा की परिणति के स्वरूप उत्पन्न हुआ था, वह संस्कारवश
गुण्डा नहीं था। उसके रोम-रोम में, पोर-पोर में देवत्व की आभा थी, लेकिन वह भीतरी स्तर
पर नहीं, बाहरी स्तर पर वह एक काशी का चर्चित गुण्डा था। उसका स्वरूप बाहर से भले
ही आतंककारी का था, लेकिन भीतर से वह कुछ भी विध्वंसक नहीं था।
लेखक ने दुलारी के कथन से नन्हकू सिंह की विरक्ति एवं उसके गुण्डापन को स्पष्ट
करने का प्रयास किया है। नन्हकू कभी राजमाता पन्ना को जी जान से प्यार करता था। लेकिन
उसे प्यार में सफलता नहीं मिल पायी। महाराज बलवंत सिंह द्वारा वह बलपूर्वक रानी बनायी
गयी थी। इस बात का सूक्ष्म संकेत लेखक ने इस शब्दों में दिया है-“छोटे से मंच पर बैठी,
गंगा की उमड़ती हुई धारा को पन्ना अमनस्क होकर देखने लगी। उस बात को, जो अतीत
में एक बार, हाथ से अनजान में खिसक जाने वाली वस्तु की तरह लुप्त हो गयी हो, सोचने
का कोई कारण नहीं। उससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं, परन्तु मानव-स्वभाव कभी-कभी कह
बैठता है यदि वह बात हो गयी होती तो?”
गेन्दा पन्ना की मुँहलगी दासी थी। दुलारी को बिढ़ाने के ख्याल से वह नन्हकू सिंह की
शिकायत करती है। कहती है- “महारानी नन्हकू सिंह अपनी सब जमीन्दारी स्वांग, भैसों की
लड़ाई, घुड़दौड़ और गाने-बजाने में उड़ाकर अब डाकू हो गया है। जितने खून होते हैं, सबमें
उसी का हाथ रहता है।” इस पर दुलारी उसे रोककर कहती है- “यह झूठ है। बाबू साहब के
ऐसा धर्मात्मा तो कोई है ही नहीं। कितनी विधवाएँ उनकी दी हुई धोती से अपना तन ढ़कती
हैं। कितनी लड़कियों की व्याह-शादी होती है। कितने सताये हुए लोगों की उनके द्वारा रक्षा होती
है।” नन्हकू सिंह के उज्जवल चरित्र को स्पष्ट करते हुए दुलारी कहती है-नहीं सरकार, शपथ
खाकर कह सकती हूँ कि नन्हकू सिंह ने आज तक कभी मेरे कोठे पर पैर भी नहीं रखा।
कहानीकार ने इस कहानी के माध्यम से नन्हकू सिंह के चरित्र का गठन मनोवैज्ञानिक ढंग
से किया है। कभी पन्ना को जी-जान से चाहने वाले नन्हकू का गुण्डा बन जाना अकारण नहीं
है। उसके मन में एक विश्वास था, विश्वास के टूटते ही उसकी प्रकृति में परिवर्तन होता है।
उसकी बाहरी प्रकृति को विकृत करने वाली परिस्थिति है-बलवंत सिंह द्वारा पन्ना से जबर्दस्ती
विवाह कर लेना पन्ना परायी बन जाती है, यह जानकर नन्हकू एक आतंकवादी का रूप धारण
कर लेता है। उसका यह चारित्रिक परिवर्तन मनोवैज्ञानिक हेतुओं के आधार पर हुआ है। लेखक
को नन्हकू सिंह के चारित्रिक गठन में काफी सफलता मिली है।
एक दिन नन्हकू सिंह सुम्भा के नाले के संगम पर दुधिया छान रहे थे। रंग जमाने के लिए
दुलारी वहाँ बुलायी गयी। वहाँ राजमाता पन्ना की चर्चा दुलारी के द्वारा की जाती है। नन्हकू सिंह
पन्ना का नाम सुनते ही करुणाई हो उठते हैं। उसकी हार्दिक संवेदना की अभिव्यक्ति करते हुए
लेखक ने लिखा है-“दुलारी ने आश्चर्य से देखा कि तानों से नन्हकू की आँखें तर हो जाती है।
फिर आगे दुलारी द्वारा पूछे जाने पर कि कभी तुम्हारे हृदय में प्यार के लिए हूक उठती है,नन्हकू
कहता है― “उसे न पूछो दुलारी हृदय को बेकार समझकर ही उसे हाथ में लिए फिर रहा हूँ। कोई
कुछ कर देता कुचलता-चीरता-उछालता; मर जाने के लिए सब कुछ तो करता हूँ, पर मरने नहीं
पाता।” लेखक ने इन पंक्तियों के माध्यम से यह स्पष्ट किया है कि नन्हकू एक निराश प्रेमी है।
पन्ना को जी-जान से चाहने वाला नन्हकू आज गुण्डा बन गया है, इसका प्रमुख कारण उसके
प्रेम का बाधित होना है। नन्हकू का पूरा जीवन ही परिवर्तित हो जाता है। वह आजीवन अविवाहित
रहता है और बलवंत सिंह के प्रतिशोध की अग्नि में जलता रहता है। “दुलारी जीवन में आज
यह पहला ही दिन है कि एकान्त रात में एक स्त्री मेरे पलंग पर आकर बैठ गयी है, मैं चिर-कुमार
अपनी एक प्रतिज्ञा का निर्वाह करने के लिए सैकड़ों असत्य अपराध करता फिरता हूँ। क्यों? तुम
जानती हो? मै स्त्रियों का घोर विद्रोही हूँ और पन्ना…..किन्तु उसका क्या अपराध, अत्याचारी
बलवंत सिंह के कलेजे में बिछुआ मैं न उतार सका।”
वह पन्ना को लेफ्टिनेंट इस्टाकर से बचाने के लिए अपनी जान की बाजी लगा देता है।
वह स्वयं शहीद हो जाता है, लेकिन पन्ना को सुरक्षित बाहर भेज देता है। वह बीसों तिलंगों में
अविचल खड़ा होकर तलवार चला रहा था। उसके चट्टान सदृश शरीर से गैरिक की तरह रक्त
की धारा बह रही थी। उसका एक-एक अंग कटकर गिर रहा था, वह काशी का गुण्डा था।
प्रस्तुत कहानी में ऐतिहासिक संस्पर्श भी है। बनारस राज्य पर कम्पनी के अधिकार की
पृष्ठभूमि में अंग्रेजों के अत्याचार और भारतीय शौर्य की एक ज्वलंत झाँकी यहाँ प्रस्तुत की
गयी है। गुण्डा कहानी का शीर्षक ‘लध्वर्थ संज्ञा करणम’ को सिद्ध करने वाला है। पूरी कहानी
का उद्देश्य नन्हकू सिंह के चरित्र पर प्रकाश डालना है। कहानी की घटनाएँ भी गुण्डा के चरित्र
को स्पष्ट करती हैं। कथोपकथन सरल, सार्थक एवं स्वाभाविक है।
कहानी का अंत अत्यन्त ही प्रभावशाली है। गुण्डा रानी पन्ना की सुरक्षा के लिए अपने
आप को समर्पित कर देता है। यह उसके देवत्व का प्रतीक है। अपने को हँसते-हँसते समर्पित
कर देना गुण्डा की महानता का सूचक है।
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