दासवृत्ति को सभ्यता की पहचान मत बनाइए

दासवृत्ति को सभ्यता की पहचान मत बनाइए

             दासवृत्ति को सभ्यता की पहचान मत बनाइए

सरकारी कामकाज की भाषा बदलने में दो तत्व कार्य करते हैं – दृढ़ इच्छाशक्ति और
जनप्रतिनिधियों की मनोवृत्ति दृढ़ इच्छाशक्ति का उदाहरण है तुर्की के शासक कमालपाशा
की इच्छाशक्ति और जनप्रतिनिधियों के दबाव का उदाहरण है- इंगलैण्ड में फ्रेंच
को हटाकर अंग्रेजी को सरकारी कामकाज की भाषा बनाना शासन सँभालने के साथ
ही कमालपाशा ने अपने अधिकारियों से पूछा- सरकारी कामकाज की भाषा तुर्की को
बनाने में कितना समय लगेगा? “कम-से-कम दस वर्ष – उपस्थित अधिकारियों का
मत था. “समझ लो कल प्रातः दस वर्ष समाप्त हो गए” कमालपाशा का दृढ़ स्वर
गूँज उठा और 24 घण्टों के भीतर अंग्रेजी के स्थान पर तुर्की राजभाषा बन गई. भारत
में ऐसा न हो सका. कारण हमारे शासकों में दृढ़ इच्छाशक्ति का अभाव तथा संतुष्टि-
करण की आत्मघाती राजनीति इस संदर्भ में इंगलैण्ड में अंग्रेजी का उदाहरण विशेष
रोचक एवं शिक्षाप्रद है, साथ ही आवश्यक भी, क्योंकि वह अंग्रेजी के पक्षधर वर्ग की
आँखें खोल सकेगा.
         ईसवी सन् के पहले से ईसा की प्रथम शती तक, इंगलैण्ड के दक्षिणी भाग पर
रोमन लोगों का अधिकार था और अभिजात्य एवं शिक्षित वर्ग की भाषा लैटिन
हो गई थी. यह भी ध्यातव्य है कि अंग्रेजों की अपेक्षा रोमन उन दिनों कहीं अधिक
सभ्य थे. इंगलैण्डवासी कबीलों के रूप में रोमन लोगों से लड़ते रहते थे. प्रसिद्ध लैटिन
लेखक टेसिटस ने एग्रिकोला नामक रोमन सेनापति पर एक पुस्तक लिखी है जिसमें
बताया गया है कि उसने ईसा की प्रथम शती में किस प्रकार इंगलैण्डवासी अंग्रेजों
को वश में किया था और रोमनों की भाषा लैटिन ने उस कार्य में कितनी महत्वपूर्ण
भूमिका का निर्वाह किया था. उससे स्पष्ट हो जाता है कि चतुर विजेता किस प्रकार
पराधीन जाति को गुड़ में विष मिलाकर, उनमें अपनी भाषा और संस्कृति का प्रचार
करके उन्हें अपना अनुवर्ती बना लेते हैं. एग्रीकोला ने ब्रिटेन के लोगों को अपनी
सभ्यता, परिधान, भोजनों का तरीका और भाषा सिखाकर मानसिक दासता उत्पन्न कर
दी. अंग्रेजों ने अवसर मिलने पर ठीक यही पद्धति भारत में अपनाई उनके चले जाने के
बाद भी हम उनके मानसिक दास बने हुए हैं. अंग्रेजों की इस नीति का परिणाम यह हुआ
कि जिस प्रकार सारे यूरोप के शिक्षित वर्ग की भाषा लैटिन हो गई थी, उसी प्रकार
ब्रिटेन के उपनिवेशों में शिक्षित वर्ग की भाषा अंग्रेजी हो गई. रोमन साम्राज्य समाप्त होने
के बाद भी कई सदियों तक लैटिन सम्पूर्ण यूरोप के ज्ञान का माध्यम बनी रही थी. सभी
देशों के विद्वान् अपनी पुस्तकें लैटिन में लिखते थे. सर आइज़क न्यूटन सदृश महान् अंग्रेज
विद्वान् गणितज्ञ, विचारक और वैज्ञानिक ने अपनी पुस्तकें लैटिन में लिखी थीं. न्यूटन
की मृत्यु सन् 1727 में हुई थी. उस समय तक योरोप में विद्या के क्षेत्र में लैटिन का
बोलबाला था.
          सन् 1088 में इंगलैण्ड को फ्रांस के नार्मन लोगों ने जीत लिया. धीरे-धीरे सारा
राजकाज फ्रेंच भाषा में होने लगा.
          नार्मनकाल में फ्रांस में भी कुछ समय तक लैटिन का प्रभाव रहा था. 13वीं शती
के अन्त तक फ्रांस में फ्रेंच में सब कामकाज होने लगा.
        इंगलैण्ड की जनता फ्रेंच नहीं जानती थी. उसकी लगातार माँग पर सन् 1362 में
एक अधिनियम बनाया गया जिसके अनुसार वकीलों का आवेदन, जिरह आदि अंग्रेजी में
करने की छूट थी, चूँकि वकीलों का विधि का शिक्षण फ्रेंच में हुआ था, इसलिए
अधिनियम के बावजूद कई शताब्दियों तक न्यायालयों में फ्रेंच ही चलती रही. पाठक
समझ रह होंगे कि ठीक यदि यही स्थिति भारत में है, तो इसमें अस्वाभाविक एवं
अनुचित कुछ भी नहीं है.
               इंगलैण्ड में इस बीच अंग्रेजी को न्यायालय की भाषा बनाने के लिए जनता
की माँग इतनी उग्र हो गई कि सरकार ने सन् 1731 में न्यायालयों में अंग्रेजी भाषा का
प्रयोग अनिवार्य कर दिया, साथ ही लैटिन और फ्रेंच भाषाओं का उपयोग वर्जित कर
दिया. इस आदेश का उल्लंघन करने वालों पर 50 पौंड जुर्माना का भी प्रावधान कर
दिया गया. तब कहीं जाकर तीन-चार सौ वर्षों बाद अंग्रेजी को उसका नैसर्गिक स्थान
प्राप्त हुआ.
        सन् 1731 तक अंग्रेजी भाषा का विकास नहीं हुआ था और अंग्रेजी में विधि
की पुस्तकें उपलब्ध नहीं थीं, परन्तु कानून की विवशता ने समस्त विवशताओं को
दरकिनार कर दिया था. अंग्रेजी का पहला मान्य कोश डॉ. सैमुअल जॉनसन ने सन्
1755 में लिखा था. उन दिनों अंग्रेजी एक विपन्न एवं अविकसित भाषा थी. भगवान की
कृपा से हिन्दी की ऐसी दुर्दशा नहीं है. वह एक समर्थ एवं विकसित भाषा है,
          इसी संदर्भ में रोजर नार्थ नाम के एक विधिवेत्ता ने कहा था कि इंगलैण्ड के कानून
अंग्रेजी में ठीक तरह से व्यक्त नहीं किए जा सकते और लैटिन तथा फ्रेंच के विधि
साहित्य को पढ़े बिना कोई पैरोकार भले ही बन जाए, किन्तु वकील नहीं बन सकता.
ठीक ऐसी ही बातें हमारे यहाँ भी कही जाती रही हैं, परन्तु इंगलैण्ड के निवासी अपनी
अस्मिता के प्रति हमारी तरह बेखबर नहीं थे अंग्रेजी भाषा की इन समस्त कमियों और
अंग्रेजी में विधि साहित्य के अभाव के बावजूद अंग्रेज जनता के देशप्रेम और अपनी
भाषा के प्रति निष्ठा ने समस्त कठिनाइयों को नकार दिया और न्यायालयों में अंग्रेजी भाषा
चल निकली शीघ्र ही विधि सम्बन्धी पुस्तकें भी प्रस्तुत हो गई और आज अंग्रेजी भाषा
की सर्वतोन्मुखी सम्पन्नता सर्वविदित है.
            अंग्रेजी भाषा की स्थापना का उक्त विवरण हमारे लिए सर्वथा शिक्षाप्रद होना
चाहिए. हमारे सरकारी कर्मचारी एवं वकील यदि अंग्रेजी से चिपके हुए हैं, तो कोई
आश्चर्य की बात नहीं है. आश्चर्य की बात, तो यह है कि हमारी जनता में अपेक्षित
देश-प्रेम एवं भाषा प्रेम का अभाव है और वह अपनी भाषा को उसका जन्मसिद्ध
अधिकार दिलाने के प्रति जागरूक नहीं है. 
                हमें समझ लेना चाहिए कि बद्धमूल परम्पराओं को समाप्त करने में पर्याप्त समय 
लगता है. इसके लिए दृढ़ संकल्प एवं अन वरत् प्रयत्न अपेक्षित रहते हैं और अपेक्षित
होती है मानसिक दासता से मुक्ति की भावना. हमारी युवा पीढ़ी का कर्तव्य है कि वह
तथाकथित सभ्यता के आवरण को हटाकर वास्तविकता को जानने का प्रयत्न करे और
अस्मिता की पहचान स्थापित करने के लिए मानसिक दासता की ओर से विमुख हो
जाए. जो स्वतंत्र रहना चाहते हैं उन्हें कोई भी शक्ति गुलाम नहीं बना सकती है. ऐसी
नौबत नहीं आनी चाहिए कि अंग्रेजी भाषा-प्रयोग से चिपके रहने वालों को दंडित करने
के लिए कानून बनाने की आवश्यकता हो.

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