नारी शक्ति को पहचानें और उस पर गर्व करें

नारी शक्ति को पहचानें और उस पर गर्व करें

                               नारी शक्ति को पहचानें और उस पर गर्व करें

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।
                            यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्रफलाः क्रिया ।।
 
नारी शक्ति का प्रतीक है, परिवार के मान-सम्मान का प्रतीक है. जहाँ नारी की पूजा
की जाती है, वहाँ देवता निवास करते हैं. जिन परिवारों में नारी का अपमान किया जाता है,
वहाँ सभी प्रकार की पूजा करने के बाद भी देवता निवास नहीं करते. भारत ही नहीं, अपितु
सम्पूर्ण विश्व में विगत दो शताब्दियों में नारियों की सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक स्थितियों में
व्यापक रूप से परिवर्तन आया है वे अब घरों की चहारदीवारी में कैद भोग-विलास की वस्तु
मात्र न रहकर समाज एवं देश के बहुआयामी फलक पर नित नई ऊँचाइयों को छूते हुए
कीर्तिमान स्थापित कर रही है. शिक्षा एवं ज्ञान के प्रसार के साथ लोगों की सोच में सकारात्मक
रूप से परिवर्तन आया है, किन्तु अभी भी समाज संक्रमणकालीन अवस्था से गुजर रहा है.
          परिवर्तन के इस दौर में समाज और नैतिक मूल्यों को भारी गिरावट दर्ज हुई. जीवन
भौतिकवादी दृष्टिकोण के कारण इतना एकपक्षीय हो गया कि सुर-असुर के बीच का झीना परदा
लज्जा भी हट गया. लज्जा रूपेण संस्थिता. लज्जा ही सदाचार बनाए रखती है और अनाचार
में प्रवेश से रोकती है. लज्जा के पीछे कई भय रहते हैं. उसी से व्यक्ति मर्यादा में रहता है. मर्यादा
वह गुण है, जो व्यक्ति के अन्य सभी गुणों को सही दिशा देता है, व्यक्ति की कार्यक्षमता में
विस्तार करता है, व्यक्ति को अहंकार की भावना से परे रखता है. नारी को लज्जा-रूपी आभूषण
प्रदान करता है, वीरों को जितेन्द्रिय बनाता है आदि. वास्तव में मर्यादा जीवन-मूल्यों की सुरक्षा
का कवच है. चरित्र मर्यादा से बँधा दिखता है. भगवान श्रीराम ने मर्यादा की रक्षार्थ मात्र एक
रजक के कहने पर अपनी अर्धागिनी सीताजी को गर्भावस्था में महल से बाहर कर निर्जन वन
में में भेज दिया था जहाँ उन्होंने महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में एकाकी जीवन व्यतीत किया.
             पुरुष में अहंकार के कारण आसुरी (नकारात्मक) भाव अधिक होते हैं. स्त्रियाँ ही
इनका संतुलन है, लेकिन यह सत्य है कि आज नारी का स्त्रैया घट रहा है. कारण-शिक्षा ने
नारी का पौरुष भाग अधिक विकसित किया. भयमुक्त भी किया और विवाह की उम्र भी बढ़ा
दी. विवाह-विच्छेद होते ही सुरक्षा-चक्र टूटने लगा. शायद नारी की अत्यधिक महत्वाकांक्षा
का दोहन हो रहा है. हर मुकाम पर अत्याचार, बलात्कार और वह भी अपने समर्थ लोगों द्वारा,
किसका हृदय नहीं चीर देगा? तब लगता है कि नारी होना एक अभिशाप है, लेकिन यह सच है
कि इसका उत्तर स्त्रैया-भाव में निहित हैं. स्त्रैया भाव के घटने का मुख्य कारण लक्ष्मण रेखा
को पार कर देना है, मर्यादा को भूल जाना है. नारी के शुरू का दौर ग्लेमर युक्त रहता है. उम्र
के साथ एक भाव फिर से मन में कौंधने लगता है कि घर पर रहती, तो कभी अपमान के इतने
घूँट नहीं पीने पड़ते.
            नारी को अत्याचारों से मुक्ति चाहिए तो सबसे पहले उसे अपने स्वरूप को जानना होगा.
शरीर के आगे वह पुरुष के कई गुण आगे है. वही समाज को धर्म, संस्कृति और पहचान देती
है. हर एक के अंदर शक्ति है. जब राजा अश्वपति को यह लगा कि उसकी विवाह योग्य पुत्री
 सावित्री ने अपना वर सत्यवान को ढूंढ़ा है जिसकी आयु आज से एक वर्ष बाद समाप्त हो
 जाएगी, तो उन्होंने सावित्री को दूसरा वर ढूँढ़ने को कहा. इस पर पुत्री ने कह दिया, पिताजी !
 पत्थर का टुकड़ा एक बार ही उससे अलग होता है, कन्यादान एक बार ही किया जाता है और
 मैंने किया ऐसा संकल्प भी एक बार ही होता है. ये तीनों बातें एक-एक बार ही हुआ करती हैं.
अब तो जिसे मैंने एक बार वरण कर लिया वह दीर्घायु हो अथवा अल्पायु वही मेरा पति होगा;
किसी अन्य पुरुष को मैं नहीं वर सकती. यह वही नारी है जिसने अपनी शक्ति को पहचाना,
अपने मृत पति को जीवित पाने के लिए यमराज का पीछा किया और अंत में उसने मृत्यु पर
विजय प्राप्त कर उसे यमराज से छुड़ा लिया.
         अब प्रश्न है, सावित्री जैसी शक्ति कैसे अर्जित हो जगद्गुरु स्वामी रामनरेशाचार्य कहते
हैं कि “शक्ति पाने के लिए देवी पूजन का जो विधान है, उसका सही रूप से पालन न होने से
लोग अत्यधिक ऊर्जा से लाभान्वित नहीं हो पा रहे हैं. आज पूजन बदल गया है चमक-दमक,
गरबा, डांडिया इत्यादि में विकृतियाँ आ गई हैं, इससे अध्यात्म का गला घोंट दिया गया है. वेदों
के अनुसार हर आदमी संसार में तीन इच्छाओं के साथ आया है-पुत्र इच्छा, धन-इच्छा, लोक-
इच्छा. वेदों ने स्त्री-इच्छा नहीं कहा. सिर्फ भोग या काम ही आनन्द की चरम परिणति नहीं है.
काम की चरमोत्पत्ति पुत्रोत्पत्ति है. पुत्र भी संस्कारवान, धार्मिक, विद्वान् हो, जो परिवार व
समाज को समृद्ध कर सके. ” वास्तव में सही रूप से शक्ति-उपासना भाव का अभाव ही हमारे
चरित्र-पतन का कारण है. इसी से आज दुष्कर्मों की संख्या दिनोंदिन बढ़ रही है. चरित्र-निर्माण
की शुरूआत हमें घर से ही करनी पड़ेगी.
           नारी शक्ति का अपमान रोकने के लिए शिक्षा पद्धति में बदलाव लाना बेहद जरूरी है.
लिंगानुपात, नशीले पदार्थों का सेवन, तामसिक भोजन, जीवन में बढ़ती प्रवृत्तियाँ, अश्लील
विज्ञापन और फिल्मों की वजह से बलात्कार जैसे अपराध बढ़ रहे हैं. हम पेशेवर लोग तो
तैयार कर रहे हैं, लेकिन जिम्मेदार नागरिक नहीं बना रहे हैं. शिक्षा ऐसी होनी चाहिए, जिससे
हमारी सामाजिक प्रतिबद्धता हो, हमारा सम्मान देश व संविधान के प्रति हो, चारित्रिक व नैतिक
धरातल पर हम ईमानदार हों. हमें युवाओं कोनैतिकता युक्त शिक्षा, घर में अच्छे संस्कार और
अच्छा सामाजिक परिवेश उपलब्ध कराना होगा. यह साहित्य के लिए भी चिंतन की बात है.
इसके सामने एक चुनौती है कि रसातल में जा रहे नैतिक मूल्यों को खींच कर लाएं. इसके
साथ हम भी इतना साहस जुटाएं कि जिस लड़की के साथ दुष्कर्म हुआ हो, उसे अपने घर की
 बहू बना लें.
        हर नारी के हृदय में मातृत्व का भाव निहित है, भले ही किसी ने अपनी कोख से जन्म नहीं
दिया हो. उसमें माँ की ममता है, उसका हृदय स्नेहपूर्ण है, वह त्याग व प्रेम की मूर्ति है. पुरुष
वर्ग यह भी समझ ले कि वह (नारी) एक ब्रह्म है, जो गर्भाशय में पुत्र-पुत्री के शरीर की रचना
करती है.एक मनोवैज्ञानिक है, जो उसके अन्तर्मन के निकट रहकर उसे अनुकूल सुख पहुँचाती है
और एक आध्यात्मिक गुरु भी जो उसके उज्ज्वल भविष्य के लिए सदैव चिंतनशील बनी रहती है.
उसके स्वरूप में महाशक्ति (अर्थात् जगत्जननी) का एक अंश स्वरूप भी है, जो संतान की रक्षा
हेतु अंतिम क्षण तक उससे सम्पर्क बनाए रखती है. यही कारण है, नारी आदिकाल से ही प्रेरणा
व शक्ति का स्रोत रही है. आज हम नारी को प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर
चलते हुए देख रहे हैं-आँगन से आसमान तक. अतः हम नारी शक्ति को पहचानें और उस पर
गर्व करें. महिलाओं का भी निजी दायित्व बनता है कि वे एक जुट होकर सक्रिय रहें, अपना
संगठन मजबूत करें, आपस में सुरक्षा के उपायों की चर्चा करें, पुरुषों को भी पूरा साथ देना होगा,
तभी समाज शांति से जीने लायक बनेगा.

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