परमार्थ

परमार्थ

              परमार्थ

जब एक इंसान की सम्पूर्ण योग्यता कुछ इस भाँति फलित होने लग जाए कि
वह इंसान अपनी योग्यताओं से अधिकतम लोगों को लाभान्वित कर सके और वह
स्वयं अपनी योग्यताओं के प्रति भी निर्लोभी हो सके तभी वह इंसान सच्चा सफल इंसान
कहलाता है. यानि दो शर्तें हुईं एक तो यह कि हमारी योग्यताएं बहुत ज्यादा लोगों तक
लाभ पहुँचाने वाली हों और दूसरी बात हम अपनी योग्यताओं के प्रति भी निर्लोभी हो
जाएं यानी उनको प्रभावित न कर रहे हों तभी हम सफल होते हैं भला ऐसा कैसे जरा
शब्द पर ध्यान दें, ‘सफल’ फल सहित हो जाना एक वृक्ष फल सहित कब होता है
जब वह वृक्ष अपनी उत्कृष्ट परिणति तक पहुँच जाता है. अपने सम्पूर्ण विकास को
उपलब्ध होता है. तभी एक बीज विकसित पूर्ण विकसित अवस्था में फल देने वाला
वृक्ष बन पाता है और जब वह वृक्ष फल देता है, तब उसके फल से उसको स्वयं को
लाभ नहीं बल्कि अन्यों को लाभ पहुँचाता है बहुतों को लाभ पहुँचाता है. किसी के लिए
वह फल क्षुधापूर्ति का साधन होता है. किसी के लिए वह फल पुष्टि का साधन होता
पोषण का साधन होता है. किसी के लिए वह फल औषधि का साधन होता है, तो
किसी के लिए वही फल और अनेकों वृक्षों को जन्म देने वाले बीजों का स्थान बन
जाता है और वह अपने बीजों के माध्यम से अनेक अन्य वृक्षों को पैदा करने की क्षमता
रखता हुआ इस पृथ्वी पर अनेक फलों को पैदा करने वाला बन जाता है. साथ ही
स्थिर अवस्था में वह फल वाला वृक्ष अपने फलों को स्वयं नहीं खाता दूसरों को देता
है. अपने फलों को निष्पक्ष भाव से, निर्लोभ, भाव से, आनन्द भाव से अपने से जुदा हो
जाने देता है. सन्त कबीर का वचन है-
                                          “बिरछा कबहूँ न फल भखै,
                                                    नदी न अन्चवे नीर।
                                           परमारथ के कारने,
                                                    साधु धरा शरीर ॥ “
असाधारण महत्व की बात है वह अपनी योग्यताओं का भी अपने लिए कोई
ऐसा स्वार्थ उपयोग नहीं करता कि जिससे वह फल दुनिया के काम न आ सके स्वयं
के काम आए. वह अपने फल को दूसरों को खाने देता है, ले जाने देता है, बल्कि स्वयं
ही अपने से अलग कर देता है. क्यों, क्योंकि वह जानता है कि जो पक चुका है
उसको अब खुद के प्रति खुद के साथ जोड़े रखने की आवश्यकता नहीं है. पके
हुए फलों को वृक्ष स्वयं ही अलग कर देता है. ठीक ऐसे ही सफल व्यक्ति अपनी
योग्यताओं को फैलने देता है, जो यह जिस प्रकार से उपयोग में लेना चाहे लेने देता है.
वह अपनी योग्यताओं के प्रति भी निर्लोभी, निर्मोह बनने की क्षमता रखता है और यह
क्षमता ही उसे सफल बनाती है. हम अपनी जिन्दगी में उस स्तर तक सफल हो पाएं या
नहीं हो पाएं जैसे एक वृक्ष फलीभूत होने पर होता है. हम हो सकते हैं बशर्ते हमारी
पहली योग्यताओं का चरम विकास हो उत्कृष्ट परिणति तक हमारी योग्यताएं पहुँचें
और दूसरी बात हम अपनी योग्यताओं को अधिकतम लोगों तक पहुँचाते हुए अपनी
योग्यताओं के प्रति भी अहंकार मुक्त हो जाएं. मैं पने से मुक्त हो जाएं, यह मेरी है,
इस भाव से भी मुक्त हो जाएं ये मेरी क्षमता है, ये मेरी उपलब्धि है, यह मेरी
योजना है, यह मेरी वजह से हुआ, इस भाव को भी जब कोई व्यक्ति तिरोहित कर चुका
होता है. इस भाव से भी जब कोई व्यक्ति मुक्त हो चुका होता है तभी वह व्यक्ति सही
अर्थों में सफल होता है वरना जब तक उसके भीतर में ये मेरी योग्यता, मेरी भावना
से ऐसा हुआ, मेरी योजना से ऐसा हुआ, मेरी इच्छा से ऐसा हुआ मेरी क्षमताओं की
वजह से ये उपलब्धियाँ प्राप्त हुई. जब तक ये मेरापन का मोड़ बना रहता है, तब तक
वह व्यक्ति पुनः पतन का मार्ग पकड़ेगा ही. पकड़ेगा जिन पदार्थों की उपलब्धियों की
वजह से वह अपने आपको आज सफल घोषित कर रहा है.
कल उन पदार्थों के अभावों का दुःख उसे भोगना पड़ेगा. कल उन योजनाओं के फेल हो
जाने का दुःख उसको भोगना पड़ेगा कल उसके आगे कोई और बढ़ चुका होगा और तब
सम्भव है कि वह ईर्ष्या और द्वेष से भरकर उस आगे बढ़ने वाले व्यक्ति का विनाश करने
के लिए कुछ षड्यंत्र करे और इस प्रकार वह अपनी योग्यताओं को गलत राह में प्रवृत्त कर
दें वह कब होगा, जबकि वह अपनी योग्यताओं के प्रति निर्लोभी और निरअहंकारी न बन
पाया हो ध्यान दीजिए अकसर लोग एक बार सफल होते हैं, लेकिन जिन्दगी में फिर
से असफल हो जाते हैं. एक बार किसी समय में नाम कमाते हैं. फिर नीचे गिर
जाते हैं. कुछ उपलब्धियाँ हासिल करते हैं, लेकिन फिर उन्हें गँवा बैठते हैं. चाहे दुनिया
जाने न जाने वह स्वयं जानते हैं कि उनके साथ ऐसा क्यों हुआ इसीलिए हुआ, क्योंकि
वह अपने मैं पने को छोड़ नहीं पाए थे तो अच्छा सफल व्यक्ति वह होगा, जोकि अपने
मैं पने से मुक्त हो पाए और मैं पने से मुक्त होने के साथ-साथ वह अपनी योग्यताओं
को इस भाँति सबके लिए समर्पित कर सके, लोकार्पित कर सके कि लोक के बाकी
सारे जन उसकी योग्यताओं से आनन्द प्राप्त कर सकें, सहयोग प्राप्त कर सकें प्रेरणाएं
प्राप्त कर सके और अपने जीवन के विकास में सबका सहयोगी बन सके.
       परमार्थ हेतु जीवन बिताने वाले व्यक्ति लौकिक जगत् में भी होते हैं. उनका जीवन,
उनकी सोच भी प्रकृति में मौजूद तत्वों-वृक्ष, नदी, वन, पर्वत आदि की तरह होती है.
इन्हीं में से एक वर्ग है. गुरु अर्थात् शिक्षक जो जीवनपर्यन्त अपना ज्ञान बाँटता रहता
है. कठिन परिश्रम से विद्यार्थियों को तैयार करता है एक अच्छा नागरिक बनने के लिए,
एक सफल चिकित्सक, एक योग्य वकील, एक सृजनकारी वैज्ञानिक और इस सबसे
ऊपर एक शिक्षक जो अपने गुरु से प्राप्त ज्ञान को आगे बढ़ाता है. एक योग्य शिक्षक
अपने शिष्यों (विद्यार्थियों) से यही अपेक्षा रखता है कि वे वृत्ति का जो भी क्षेत्र चुनें
उसमें असाधारण रूप से सफलता हासिल करें. वृक्ष-नदी-वन की भाँति शिक्षक भी
अपने लिए कुछ भी नहीं माँगता.
           एक अच्छी शिक्षा-दीक्षा का सार तत्व यही है कि हम अपने भीतर का अहंकार
और दम्भ भाव त्यागकर परमार्थ की सोचें जो हमारे पास है उसे सम्पूर्ण समाज के
कल्याणार्थ लगाएं.
            ऐसे सफल लोगों को जैन दर्शन की परिभाषा में सिद्ध कहा जाता है, क्योंकि
जब कोई जीव सिद्ध होता है, तब सिद्ध होने से पूर्व वह अपने समस्त कर्मों से मुक्त
होता हुआ अपने पुण्यों के अंतिम छोर तक को भी जगत् को समर्पित कर चुका होता है
और सिद्ध होने के साथ ही वह जीव अपनी योग्यताओं को इस भाँति पूरे लोक को
समर्पित कर देता है कि एक अव्यवहार राशि का जीव व्यवहार राशि में आ करके
सिद्ध पथ की यात्रा की तरफ गतिमान हो पाता है, यानि सिद्ध वही होता है, जो पूर्ण
निर्लोभी और निरंकारी होता है और साथ ही सिद्ध होते-होते वह जगत् का भी
कल्याण करता स्वमेव कल्याण होता है और उसके द्वारा जगत् का कल्याण होता है और
वह स्वयं मुक्त हो जाता है.

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