पारिभाषिक शब्द-रचना के सिद्धांत
पारिभाषिक शब्द-रचना के सिद्धांत
पारिभाषिक शब्द-रचना के सिद्धांत
पारिभाषिक शब्द चुनते या निर्माण करते समय यह निश्चित करना आवश्यक है कि रूपार्थ-निश्चय किस
प्रक्रिया से किया जाए।
1. धातु में प्रत्यय उपसर्ग आदि जोड़कर (अभिग्रहण = अभि + ग्रह + ल्युद) या धारिता ( + गिनि + ता)
2. दो धातुओं को मिलाकर (जाँच उड़ान)
3. सामासिक पद बनाकर (सर्वेक्षण, साक्षात्कार)
4. निपात द्वारा अथवा नाम-धातु बनाकर (दाबित या आक्सीकरण जैसे शब्द ।
5. यदृच्छा शब्दों का निर्माण (रमण प्रभाव, एक्सरे) इनके अतिरिक्त शब्दावली निर्माण के दो और प्रधान सिद्धांत हैं, जिनके विषय में आगे बताया जायगा। वैसे अत्यंत पारिभाषिक शब्द अभिधामूलक ही होते हैं ; फिर भी पारिभाषिक अर्थ प्रसंग पर भी आश्रित होता है। जिन दो और प्रधान सिद्धांतों की चर्चा की गयी है वे हैं―
(क) शब्द ग्रहण का सिद्धांत-जैसे, गणित और ज्योतिष की भारतीय शब्दावली सिद्ध करती है कि प्राचीन आचार्यों ने बाह्य प्रभावों को उदारतापूर्वक लिया था। अंग्रेजी के सेंटर के लिए संस्कृत में मध्य था किंतु यवन संस्कृति के प्रभाव से अब केंद्र शब्द आ गया। इस तरह के अनेक शब्द हैं-दीनार. द्रकम, ज्यामित्र, पणफर, मनऊ, मुन्था आदि शब्द ।
(ख) दूसरा सिद्धांत है शब्दानुकूलन का सिद्धांत-जब किसी अन्य भाषा से अपनी भाषाओं में शब्द लिये जाते हैं तो उनमें दो तरह के संस्कार दिये जाते हैं। प्रथम है उस शब्द को ग्रहण करने वाली भाषा की ध्वनि-पद्धति में ढालना दूसरा है उस शब्द या उसके किसी अंग को धातु मानकर व्याकरण के अनुसार नए शब्दों का निर्माण ।
पारिभाषिक शब्द-निर्माण में परिशुद्धता की समस्या सभी भाषाओं में रही है। ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं जो परिशुद्धता की दृष्टि से त्रुटिपूर्ण हैं पर प्रयोग के कारण प्रचलित हो गये हैं।
अनेक शब्द विभिन्न विशेषणजनक प्रत्ययों के साथ जुड़कर अपना अर्थ बदल देते हैं जैसे―
मेडिसिनल का अर्थ है जड़ी-बूटी या औषध संबंधी और मेडिकल का अर्थ है चिकित्सा, शरीर, रोग, स्वास्थ्य आदि से संबंद्ध ।
पारिभाषिक शब्दों के विभिन्न प्रकृति संपन्न होने से हिंदी में उनके पर्याय बनाने में अनेक कठिनाइयाँ आती हैं। पारिभाषिक शब्दों के निर्माण में अर्थानुकूलता अवश्य रहनी चाहिये । शब्दों के पर्याय भी समान होने चाहिएँ ।
हिंदी की पारिभाषिक शब्द-रचना की समस्या―
पारिभाषिक शब्दावली की समस्या हिंदी की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण समस्या है क्योंकि वैज्ञानिक अथवा
प्राविधिक ज्ञान का विकास और विस्तार इसके अभाव में बाधित होता है। इस समस्या के कई कारण रहते रहे हैं―
1. सरकारी नीति-कभी सोचा जाता है कि पारिभाषिक शब्दवाली भारतीय भाषाओं को आधार मानकर बनायी जाय, कभी अंग्रेजी से ज्यों का त्यों ले ली जाए। इस अनिश्चय से दिशाहीनता की स्थिति बनती रही है
2. केंद्रीय अभिकरण द्वारा शब्दवली-निर्माण न होकर राज्यों द्वारा अलग-अलग स्तर से होने के कारण शब्दों में एकरूपता का अभाव ।
3. भारत में जर्मनी फ्रांस, इंग्लैंड की तरह शब्द निर्माण भाषा-विद् नहीं अलग राजनीति करती रही है, तभी तर्क की जगह भावना ने ले ली है।
4. प्रबुद्ध वर्ग समस्या के प्रति उदासीन सा रहता रहा है। उनमें इस ओर ध्यान देने की न रुचि रही न हुच्छा । कोई भी नया शब्द देखकर यह वर्ग झुंझला उठता है।
5. भाषा को छोड़ अन्य भौतिक विकास को ही देश विकास का पर्याय समझ बैठा है। देश की भावात्मक एकता का भाषा से बढ़कर अधिक समर्थ दूसरा साधन नहीं होता किंतु यहाँ इसकी उपेक्षा होती रही।
6. इसका कारण संभवतः यह भी रहा कि देश में भाषा के विकास के लिए अवसर कम रहता रहा है। नवीन ज्ञानराशि का आगमन देश में अंग्रेजी के माध्यम हुआ इसलिये भारतीय भाषाओं का नैसर्गिक विकास रुका रहा।
फलतः भाषा और ज्ञान परस्पर विच्छिन्न-से गए । वैज्ञानिक शब्दों के निर्माण के लिये वैसे शब्द अनिवार्य होते हैं जो सर्वथा परिशुद्ध निश्चितार्थक और असंदिग्ध हों, जैसे प्राकृतिक और भौतिक पदार्थों के नाम, नये-नये शब्द, यंत्र, आदि उपकरण:
हिन्दी-पारिभाषिक शब्दावली-निर्माण के संबंध में तीन बातें ध्यातव्य हैं―
1. यह शब्दावली ‘पारिभाषिक’ है, साधारण बोलचाल की नहीं। (2) यह सबके लिये नहीं है यह केवल गिने-चुने लोगों के लिए है जो किसी प्राविधिक विषय या विशेष अध्ययन करना चाहते हैं (3) यह वर्तमान पीढ़ी के लिये ही नहीं भविष्य के लिये भी है। इसलिये पारिभाषिक शब्द-निर्माण की (हिंदी में) सिद्धांतगत स्थिति यह है―
1. एक शब्द एक ही प्रधान अर्थ का वाचक है
2. पारिभाषिक शब्द सार्थक हैं, अर्थात् वे अभिहित वस्तु को किसी प्रमुख विशेषता का निर्देश करते हैं।
3. शब्दों का आकार आनुपातिक सीमा का अतिक्रमण नहीं करता। अंग्रेजी शब्दों की अपेक्षा अधिक स्थान ग्रहण नहीं करता।
4. ध्वन्यात्मक दृष्टि से ये शब्द भारतीय भाषाओं की प्रकृति के अनुकूल हैं।
5. किसी शब्द के विभिन्न रूप एक ही मूल से व्युत्पादित हैं। फिर भी ध्यातव्य है कि पिछले पचास वर्षों में पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण में बहुत कुछ काम हुआ है।
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