पूरा जीवन ही जोखिम है, जोखिम उठाने की क्षमता बढ़ाना
पूरा जीवन ही जोखिम है, जोखिम उठाने की क्षमता बढ़ाना
पूरा जीवन ही जोखिम है, जोखिम उठाने की क्षमता बढ़ाना
सत्यज्ञानी श्री विराट गुरुजी के एक जिज्ञासु ने प्रश्न किया कि “हे गुरुदेव !
हमारे” जीवन में ये संघर्ष आखिर कब तक रहेंगे ? और मुसकराते हुए गुरुजी बोले कि
“जब तक जीवन रहेगा, तब तक संघर्ष रहेंगे, होते रहेंगे. जीवन तक जोखिम ही
जोखिम है. जन्म से लेकर मृत्यु तक, पहले श्वास से लेकर आखिरी श्वास तक
पूरा जीवन ही जोखिम भरा है हर पल विपरीतताएं हैं, इन्हीं विपरीतताओं में सारा
विकास सम्भव है.’
न केवल हमारा जीवन, बल्कि प्राणी मात्र का जीवन जोखिम भरा है. चन्द्र सूर्य को भी
ग्रहण लगता है, देवताओं व असुरों में भी परस्पर संघर्ष होता है, नरक लोक तो दुःखों
का घर है, पशु जीवन भी कम जोखिमपूर्ण नहीं है, जब कभी हम अपने आसपास के
जीवधारियों को देखते हैं, तो प्रतीत होता है कि सबसे कम जोखिमपूर्ण जीवन शायद
हमारा है. हम बहुत सुखीप्रद हैं, अन्य जीवधारियों की अपेक्षा, किन्तु हमारे जीवन की
जोखिमें भी उसी स्तर में आती-जाती हैं, जिस स्तर पर हम स्वयं को बढ़ाना चाहते हैं.
जमीन पर चलने में जोखिम कम है, किन्तु शिखरों की चढ़ाई चढ़ते हैं, तो जोखिम
अधिक होगी. जमीनी संघर्ष भूख के लिए रोटी का होना, रहने के लिए कुटिया-मकान
का होना, किन्तु इस संघर्ष के सिवाय और भी अनेक संघर्ष हैं, जो जीवनभर हमारी
महत्वाकांक्षाओं के कारण पैदा होते रहते हैं.
जिस व्यक्ति की इच्छाएं कम हैं, उसके संघर्ष भी कम होंगे, जिसकी इच्छाएं ज्यादा
हैं, उसके संघर्ष भी अधिक हैं. जीवन का और जोखिम का चोली-दामन का साथ है.
जितनी जोखिम लेने की क्षमता बढ़ाते जाएंगे, उतना ही विकास का स्तर भी बढ़ जाएगा.
बिजनेस मॅनेजमेंट में यह फॉर्मूला सिखाया जाता है कि-
जोखिम होते ही क्यों हैं ?
इस प्रश्न का समाधान देते हुए किसी समय विराट गुरुजी ने कहा था कि “यह
सृष्टि चित्तों का जंगल है. हरएक व्यक्ति की भावशक्ति अपनी-अपनी सुविधाओं को पाने के
लिए कार्यरत है, ऐसे में परस्पर टकराहट होना स्वाभाविक-सा है.” इसे ऐसे समझें कि
जब एक व्यक्ति मुम्बई की लोकल ट्रेन में चढ़कर यात्रा करना चाहता है, तब वह
जल्दबाजी में ट्रेन में चढ़ना चाहता है, ठीक उसी समय अनेक लोग ट्रेन से नीचे उतरना
चाहते हैं, सबको जल्दबाजी मची है, ऐसे में चढ़ने वाले उतरने वालों से टकराते हैं और
इस धक्कामुक्की में कुछेक लोग घायल भी हो जाते हैं. यहाँ जरा-सा विवेक अपनाया
जाता कि पहले उतरने वालों को उतरने दिया जाता, फिर चढ़ने वाले आराम से चढ़
जाते, किन्तु हम देखते हैं कि यहाँ हरेक को जल्दबाजी है. जल्दबाजी है अपनी इच्छाओं
को पूरी करने की ……..इस अधीरता के कारण ही आए दिन सड़कों पर दुर्घटनाएं
होती रहती हैं ……….. अनेक लोग जल्दी, कम समय में, कम मेहनत में अधिकाधिक
धन कमाने की लालसा में ऐसे व्यवसायों का चयन कर लेते हैं कि उन्हें जोखिमों में
गिरना ही पड़ता है. अनैतिक धन्धों की जोखिम उठाना जरा भी बहादुरी नहीं है,
बल्कि वह तो दुस्साहस है, जिसका खामियाजा दण्ड, बीमारी व विपत्तियों के रूप
में उठाना ही पड़ता है. इस तरह से अगर हम जोखिम शब्द का विश्लेषण करें, तो पाएंगे
कि एक हैं अविवेकी जोखिमें व दूसरी हैं। प्राकृतिक व आवश्यक नैतिक जोखिमें आग
में हाथ डालना, कुएं की पाल पर रस्सी बाँध कर चलना, आँख मींचकर गाड़ी चलाना,
सरकार द्वारा प्रतिबन्धित व्यापारों को करना,अप्राकृतिक आहार व विहार करना अविवेकी
जोखिमें हैं ऐसी जोखिमें, जो हम घमण्ड में तैश में, ईर्ष्या, लोभ व अधैर्यवश निमन्त्रित
कर लेते हैं, वे सभी जोखिमें बेवकूफियाँ हैं, नादानियाँ हैं,
अनावश्यक कष्टों को नियन्त्रित करना व व्यर्थ ही क्षमताओं का प्रयोग करना जीवन
विकास में जरा भी सहायक नहीं है. जीवन पुष्प को खिलने में, जो अपरिहार्य व आवश्यक
रूप से प्रतिकूलताएं आ जाती हैं, जैसे अतिवर्षा, अतिधूप, काँटों भरा पड़ोस या ललचाई निगाहें
उन्हें बिना डरे झेलना और अपनी चरम खिलावट के लिए प्रतिबद्धित रहना यही
बहादुरी है. ऐसा वीर व्यक्ति ही कर सकता है कि आगत हर प्रतिकूलता व विपरीतता
को भी सुरीतता में ढालता जाए. हर संकट व चुनौती को पायदान बनाकर
चढ़ता जाए. जीवन में जोखिम हैं, किन्तु जान-बूझकर जोखिमें निमन्त्रित करना बेवकूफी
है. जानबूझकर जोखिमें हम अन्तरंग विवेक बोधि के अभाव में पैदा करते जाते हैं. इनसे
बचना, खुद का निरीक्षण करना और जानना कि अपनी आन्तरिक क्षमताओं का कहीं हम
दुरुप्रयोग तो नहीं कर रहे हैं.
खलीन जिब्रान कहते हैं कि “आगे बढ़ो, कभी रुको मत, क्योंकि आगे बढ़ना
पूर्णता है, आगे बढ़ो और रास्ते में आने वाले काँटों से डरो मत, क्योंकि वे सिर्फ
गन्दा खून निकालते हैं.”
“कष्ट सहकर ही सबसे मजबूत लोग निर्मित होते हैं सबसे महान् चरित्रों पर घाव
के निशान होते है.” चाहे समण भगवान महावीर हों या गौतम बुद्ध, महात्मा गांधी हो
या सुकरात, श्रीकृष्ण हों या श्रीराम, इन सभी ने और ऐसे अनगिनत महात्माओं ने
जीवनपर्यंत जोखिमें उठाई, किन्तु न कभी दीन बने, न ही उदास. इन महापुरुषों ने
अपने अन्तरंग कोष को उघाड़ने में इन जोखिमों को प्रेरणा भरा गीत समझा. स्वयं
विराट गुरुजी कहा करते हैं कि “रुकावटें या जोखिमें कभी दुश्मन नहीं होतीं. अतः
उन्हें हटवाने का प्रयत्न मत करो, न ही उनसे भागने का प्रयत्न करो, उन पर झुंझलाओ
नहीं बस उन्हें अनुकूल बनाओ अपने जीवन में प्राप्त संघर्षो व चुनौतियों का आनन्द से
सामना करो, उनसे प्रेमभाव से आँख मिलाओ. रुकावटें आपको अपना रहस्य बता देंगी और
रहस्य को जानना ही जीतना होता है.”
सच यही है कि सकारात्मक ज्ञानमय दृष्टिकोण में जोखिमें जिन्दगी को उन्नत
बनाने का स्वर्णिम अवसर बन जाती हैं, वहीं नकारात्मक निराशावादी नज़रिया हो, तो
जीवन को कठिन मानकर आत्मप्रेरणा व आनन्द के भावों का हनन करने वाली बन
जाती हैं. नदी के मार्ग में आई हुई चट्टानें, नदी के प्रवाह में वस्तुतः बाधक नहीं हैं, वरन्
वे तो प्रवाह को बढ़ाती हैं, टकराकर शक्ति को संगृहीत करने में व पानी को ऊपर
उठाने में मदद करती हैं. इस तरह से देख पाएं, तो पूरा जीवन ही इंसान को परमात्मा
बनने में मददगार नजर आएगा, बशर्ते हम अपने आपको व आगत परिस्थितियों को
स्वीकारना व समझना न छोड़ें.
विद्यार्थी जीवन हो या व्यावसायिक हर क्षेत्र में आई चुनौतियों को अपने लिए प्रेरणा
के स्वर समझ कर आगे बढ़ते जाओ. किसी भी पल निराशा को अपना साथी न बनने देना.
फिर क्या हो गया अगर कुछ दिन पतझड़ आ भी गए, तो वसन्त का आना और ऋतुओं
का बदलना, तो शाश्वत विधान है, ऐसा सोच अपने धैर्य व विश्वास की मशाल को जगाए
रखना सफलता स्वयमेव चरण चूमेगी.
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