पूर्ण स्वीकृति का अभाव क्यों ?
पूर्ण स्वीकृति का अभाव क्यों ?
पूर्ण स्वीकृति का अभाव क्यों ?
पूर्ण स्वीकृति और प्रेम का अभाव ही भय का कारण हैं. भय इसलिए है कि व्यक्ति का सत्य की
सार्वभौमिकता में विश्वास नहीं है. केवल सत्य की स्वीकार्यता को समझने मात्र से भय की
गम्भीरता क्षीण होती जाती है.
हम सभी इंसानों में पूर्ण स्वीकृति का अभाव रहता है और शायद यही हमारे
भीतर रहे भय का एक प्रमुख कारण है. हम जन्म और जीवन को स्वीकारते हैं, किन्तु
मृत्यु को नहीं घर में बच्चे का जन्म हो यह हमें स्वीकार है, किन्तु बच्चा मर जाए तो
स्वीकार नहीं, यही कारण है कि मौत से हमें डर लगता है. सूर्योदय हो यह स्वीकार है,
प्रकाश के लिए हमारी स्वीकृति है, किन्तु अंधकार के लिए नहीं. यही कारण है कि
अंधेरे से हमें डर लगता है, उजाले से नहीं. मित्र का मिलना स्वीकार है, बिछुड़ना
नहीं तब ही वियोग खौफजनक लगता है. कोई हमें प्यार करे, हमें याद किया करे,
यह हमें स्वीकार है, किन्तु कोई हमें भुला दे, यह हमें स्वीकार नहीं इसी कारण हमारे
प्रिय लोगों से भी हमें भय लगता है कि कहीं ये हमारा साथ छोड़ तो नहीं देंगे किसी दिन
हमारी उपेक्षा तो न करेंगे ?
इसी प्रकार जीत हमें स्वीकार है, हार हमें मंजूर नहीं तो हार हमें डराती है. कहीं
असफल न हो जाऊँ, यह बात दिल को कचोटती रहती है.
व्यापार में लाभ स्वीकार है, हानि नहीं, हानि की कल्पना भी हमें डराती है. हमारे
भीतर मौजूद हर प्रकार के डर के पीछे कोई न कोई ‘अस्वीकृति का भाव’, ‘तथ्य
प्रति अज्ञान का भाव छुपा हुआ है. जब तक हम इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर
लेंगे तब तक हमारे प्राण कंपते रहेंगे. हमारे भीतर दुष्ट कल्पनाएँ चालू रहेंगी. हम सदा
तराजू के एक पलड़े को पकड़ना चाहेंगे और इसके दूसरे पहलू से बचने की
कोशिश करेंगे, जोकि लगभग असंभव ही है. किसी भी सिक्के के एक पहलू को पकड़ने
की इच्छा रखने वाला व्यक्ति दूसरे पहलू को चाहे अथवा न चाहे वह तो उसके साथ
जुड़ ही जाता है. इस सृष्टि का यह ध्रुव सत्य है कि हर चीज अपने दो विरोधी ध्रुवों
के साथ अस्तित्व में रहती है. जिसे श्री विराट गुरुजी इस प्रकार कहते हैं कि-
सूरज राशि दिव निशि कहती है,
कहाँ उदय है अस्त नहीं.
जहाँ जन्म है वहीं मरण भी,
बनना है तो ध्वस्त यहीं.
लेकिन आगमवाणी कहती-
मृत्यु से घबराएँ क्यूँ ?
फिर न जन्म लें धारें दुश्मन,
भवगति से भरमाएँ क्यूँ.
भगवान आदिनाथ ने जब अपनी प्रिय नीलांजना को अकस्मात् मृत्यु प्राप्त होते
देखा तो उन्हें एक आघात लगा वे इस शोध में अभिनिष्क्रमण कर गए कि मृत्यु को कैसे
जीता जा सकता है. और एक दिन उनकी मृत्यु के पार की शोध (खोज) ने उन्हें
अमृतत्व से, कैवल्य ज्ञान से साक्षात् करा दिया. तब उन्होंने कहा कि संसार मरणधर्मा
है एकमात्र आत्मा ही अमृत है. भगवान महावीर भी इसी सत्य की खोज में
निष्क्रिमित हुए कि शरणा कौन ? कौन शरण्य है ? और वे भय मुक्त हुए तब उन्होंने
कहा कि आत्मामेव शरण्य है, शरणस्थली है. संसार अशरण है. इन सभी महापुरुषों ने
अपने भीतर व्याप्त भय को जाना जानते गए व मुक्त हो गए. यही कारण है कि
समण दर्शन में सभी ‘जिनों की ज्ञानियों की वंदना करते हुए कहा गया कि ‘णमो जिणाणां
जियभयाणं’ अर्थात् नमस्कार है उन्हें जिन्होंने भय को जाना व जीत लिया. जो अभय है
वहीं जिन है, वही ज्ञानी है.
जो लोग भयमुक्त होना चाहते हैं वे सभी इस तथ्य को जानें कि संसार का
स्वरूप कैसा है ? जिन्होंने भी इस जगत के व इस शरीर के सत्य को जान लिया है वे
फिर भय से कदापि भयभीत नहीं हुए हैं. भय उन्हें ही सताता है जो सत्य को पूर्ण
समर्पित नहीं हुए हैं, जो कोई इंसान सत्य को, धर्म को व अपने इष्ट को पूर्ण समर्पित
है, उसे कोई भय नहीं रहता.
जो लोग ईश्वर, धर्म या गुरु पर श्रद्धा भी रखते हैं और डरते भी हैं वे लोग
हकीकत में श्रद्धावान नहीं है. श्रद्धा कभी आधी अधूरी नहीं होती है. वह या तो होती
है या नहीं होती है. उसके होने पर भय की समाप्ति हो ही जाती है. क्यों हो जाती है ?
अगर आप यह जानना चाहते हो सीधी सी बात है कि आत्म दर्शन या सत्य की
अनुभूति का नाम श्रद्धा है और इसके अभाव का नाम भय, भय संज्ञा को हटाने
का तरीका है सत्य वेद ! सत्यानुभूति ! जिसका होना तब ही संभव है, जबकि
समझ में पूर्ण स्वीकृति रूप भाव दशा हो अनुकूलता व प्रतिकूलता दोनों के प्रति तटस्थ
भावना अथवा दोनों की परिपूर्ण स्वीकृति घटति हो जाए तो भय कैसे बचेगा ?
भय तब तक है जब तक मनोज्ञ की लालसा व अमनोज्ञ से घृणा या पलायन की सोच है,
अतः हम अपने मानसिक व भावनात्मक स्तर पर इस तथ्य को प्रतिपल सजगता से
स्वीकार करते जाएं कि जीवन जैसा भी है मुझे कोई शिकायत नहीं में अस्तित्व को
स्वीकार भाव से जीता हूँ.
एक बार एक ब्राह्मण दंपति, जो गुरुकुल चलाया करते थे, उनके दो पुत्रों
की साँप के डस जाने से अकस्मात् मृत्यु हो गई. मात्र 10-12 वर्ष के पुत्रों के प्रति मोह
का होना स्वाभाविक था ही है. जब ब्राह्मणी ने अपने पुत्रों को मृत देखा तो उसने समता
से दोनों पर श्वेत चादर ओढ़ा दी और स्वयं अपनी कुटिया के बाहर जाकर बैठ गई. वह
इंतजार कर रही थी. विप्र का, जो इस समय छात्रों को अध्ययन करा के लौट ही
रहे थे. विप्र दंपति धर्मिष्ठ थे. ईश्वर भक्त थे. छात्रों को आत्मा की अमरता का बोध
भी दिया करते थे, किन्तु जब स्वयं के जीवन में ऐसी प्राणघातक सी
उपस्थित हो जाए तब प्रायः हरेक इंसान विचलित हो ही जाता है, जैसे ही वह ब्राह्मण
कुटिया के समीप पहुँचे, प्रतिदिन की भाँति आज बच्चों की आवाजें भीतर से नहीं
सुनाई पड़ रही थीं. उनकी धर्मपत्नी ने पूछा हे देव ! अगर कोई हमारे पास अपनी
धरोहर छोड़ जाए और कुछ वर्षों बाद पुनः मांगने आए तो उसे लौटा देना चाहिए या
नहीं. ब्राह्मण देव बोले- हाँ, हाँ, क्यों नहीं ? जो धन जिसका है उसके स्वामी को लौटा
देने में झिझक क्यों ? तब उस ब्राह्मणी ने अपने पति को कुटिया के भीतर ले जाकर
दोनों मृत बालकों का चेहरा दिखाया और कहा कि-हे देव! परमात्मा की ओर से इस
धरोहर को लौटा देने का समय आ गया है अतः आओ अब इनका अंतिम संस्कार कर
दें. आत्मा की अमरता के बोध व जन्म-मृत्यु के अटल नियम के प्रति पूर्ण स्वीकृति की
अवस्था में जीने वाले उस दंपति ने जरा भी शोक नहीं किया. न मोह रखा, न भयग्रस्त
बने. मोह की ही संतान है-भय भी व शोक भी जो इंसान अपनी समझ को विराट बना
लेते हैं, उनमें फिर भय नहीं रहता. सूत्रकृतांग सूत्र कहता है कि-
‘सामाइयमाहु तस्स जं जो अप्पाणभए न दंसए.’
अर्थात् सामायिक उसे कहना जिसमें की अपने भीतर भय दिखलाई न पड़े भय की
समाप्ति पर ही सामायिक अर्थात् समता की अवस्था संभव होती है जय हो ।।
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