प्रजातन्त्र मात्र चुनाव तन्त्र नहीं हैं

प्रजातन्त्र मात्र चुनाव तन्त्र नहीं हैं  

                      प्रजातन्त्र मात्र चुनाव तन्त्र नहीं हैं    

हमें जनतंत्र को आशीर्वाद के रूप में ग्रहण करना चाहिए. हम भ्रमवश मात्र चुनाव
को प्रजातंत्र का पर्याय मान बैठे हैं. वह हमारे ऊपर निर्भर है कि हम प्रजातंत्र का परिणाम
बनें अथवा अज्ञान की दुःखद त्रासदी. प्रजातंत्र मात्र एक शासन-पद्धति न होकर जीवन
की एक महत्वपूर्ण पद्धति है जिसकी अनुभूति समानता, समरसता तथा सहिष्णुता की
त्रिवेणी में स्नान करके उपलब्ध की जाती है. हमने प्रजातंत्र के सम्बन्ध में इन बातों की ओर
ध्यान नहीं दिया और जनतंत्र की आदिम व्याख्या को हृदयंगम कर लिया है- लोकतंत्र
जनता का, जनता द्वारा और जनता के लिए राज है. ‘जनता के लिए’ वाक्यांश को भी
विवादास्पद बना दिया गया है. हम लाठी द्वारा जनतंत्र की भैंस को जंगल की ओर हाँकने
में लग गए हैं.
        प्रजातन्त्र में हर वयस्क नागरिक को अपना राजनीतिक भविष्य चुनने का अधिकार होता है,
लेकिन भारत में पारिवारिक प्रेम की परम्पराएं प्रजातन्त्र के बालिग मताधिकार का मखौल भी
उड़ाती मिल जाती हैं. पारिवारिक सौमनस्य की फजीहत तो है ही, चुनाव में जीत होनी चाहिए.
लठैतों के बोलवाले से विरोधी के वोट न डलने पाएं और अब लाठी-बल्लम, बहुत पीछे रह
गए, तमंचे और बन्दूकें भी नहीं, कार्यवाहियों का दबदबा बूथ कैप्चरिंग कराता है. हिस्ट्रीशीटर
जब हमारी चुनाव प्रक्रिया को धता बताकर हमारे भाग्य विधाता बनने आ जाते हैं, तो देश का
भविष्य आसानी से आँका जा सकता है. पिछली बार हर पार्टी के उम्मीदवारों में हिस्ट्रीशीटर थे,
कुछ जीतकर आए मन्त्री भी बने. इस बार देखें क्या होता है?
        उत्तर साफ है- होना-जाना क्या है? जैसा कल था, वैसा ही कल होगा देखें, आने वाला
कल हमारे लिए क्या लाता है?
         उक्त कथन प्रतिष्ठित साप्ताहिक दिनमान के यशस्वी सम्पादक श्री कन्हैयालाल ‘नंदन’
के एक लेख से उद्धृत है. विचारणीय है कि हमारी चुनाव प्रक्रिया ने प्राय: आतंकवाद का
रूप क्योंकर धारण कर लिया है. चुनाव आयोग द्वारा पारित आदेश भी यही द्योतित करते हैं कि
उसका कर्तव्य शांतिपूर्ण चुनाव कराने तक सीमित हो गया है. उसके सामने सदैव दो प्रश्न झूलते
रहते हैं- राजनीतिक दल अपने पक्ष में अवैध मतदान हेतु कौन-कौनसी रणनीतियाँ बना रहे हैं
तथा कौन-कौनसे हथकण्डे अपना रहे हैं. चुनाव आयोग अन्य कार्य भी करता है. अनेक उपयोगी
निर्णय भी लेता है, परन्तु आतंकवादी कार्यवाहियों एवं आक्रांतवादी आक्रमणों के प्रति वह सदैव
चिंतित रहता है. वह बुद्धिजीवी संस्था की अपेक्षा पुलिसमैनों की एवं सी.आई.डी. अफसरों की
संस्था का रूप धारण करता जा रहा है. हम चाहते हैं कि बुद्धिजीवी आगे बढ़कर चुनावों में
भाग लें और देश का शासन चलाने में सक्रिय भूमिका का निर्वाह करें. वे ऐसा किसके बलबूते
पर करें ? जब चुनाव आयोग ही सदैव मानसिक खिंचाव और दबाव में कार्य करता रहता है, तब
चुनावों में वे ही व्यक्ति भाग ले सकते हैं, जो मानसिक तनाव और दबाव के अभ्यस्त हैं अथवा
जिनके लिए मस्तिष्क से सम्बन्धित कोई भी जानकारी अथवा प्रक्रिया अपना अर्थ खो चुकी
है, जिनकी बुद्धि कुण्ठित है और कुण्ठाओं एवं कोमल भावनाओं के साथ सदा सर्वदा के लिए
जिनका सम्बन्ध विच्छेद हो चुका है और फिर प्रस्तुत चुनावों में भाग लेने के लिए धन-बल
और जन-बल अपेक्षित हैं. बुद्धिजीवियों के पास एक भी नहीं है. यह स्थिति भयावह है. इसके
प्रति हमारे कर्णधार जागरूक हैं, वे इन अभिशप्त विषमताओं पर अंकुश लगाने की बातें भी करते
हैं. पता नहीं कौनसे तत्व उन्हें सशंकित या बाधित कर देते हैं तथा स्थिति बद से बदतर होती जाती
है और समस्त राजनीतिक दल उसके प्रति सन्तुष्ट दिखाई देते हैं, वे जन-बल और धन-बल
सफलतापूर्वक जुटाते हैं और विरोधियों को चारों खाने चित्त करने के लिए ताल ठोंकते हुए नजर
आते हैं.
          हम बड़े गर्व से कहते हैं कि भारत का जनतन्त्र विश्व का सबसे बड़ा जनतन्त्र है. विरोधी
दल सत्ता दल के कार्यों को लक्ष्य करके बात पीछे जनतन्त्र की हत्या की दुहाई देते हैं और
फिर भी यह मानकर चलते हैं कि हमारे देश में जनतन्त्र जीवित है.
        हम भारत में जनतन्त्र को सफल बताते हैं, उसकी जड़ें गहरी जमने की कल्पना करके
अपनी पीठ भी थपथपा लेते हैं और जनता के बुद्धि-विवेक की सराहना करते हैं-यह कहकर
कि वह आवश्यकतानुसार क्रान्तिकारी निर्णय ले लेती है, ऐसे निर्णय उसने लिए हैं, जो जनता
व्यक्ति को नहीं, चुनाव चिह्न पर मोहर लगाकर मतदान करती है, जिसको यही ज्ञान नहीं है कि
वह किसके पक्ष में मतदान करके आई है, उसमें प्रशंसनीय बुद्धि-विवेक की कल्पना करना सहज
साहस का कार्य नहीं है. यह स्थिति बुद्धिजीवी के लिए, तो उत्साहवर्धक नहीं हो सकती है. प्रश्न
उत्पन्न होता है कि भारतीय मतदाताओं ने ऐसे कौनसे निर्णय लिए हैं जिन पर हम गर्व कर
सकते हैं और जिनके परिप्रेक्ष्य में हम भारत के जनतन्त्र को सुरक्षित अनुभव करते हैं. हमारे
विचार से पिछले 60 वर्ष में उसने ऐसा चमत्कार केवल एक बार दिखाया है. आपातकालीन
स्थिति हटने के बाद होने वाले चुनावों में श्रीमती इन्दिरा गांधी और उनके दल को पराजित करके.
पाठक स्मरण रखें, वह निर्णय राजनीति प्रेरित नहीं था-वह स्व-रक्षा एवं स्वार्थ भावना प्रेरित
था. आपातकाल में नसबन्दी के नाम पर होने वाली ज्यादतियों से जनमानस त्रस्त हो उठा था
और ग्रामीण जनता उसे अपने परिवार की वृद्धि विरोधी मानती थी. अन्यथा भारतीय चुनाव
प्रक्रिया ने भारत की जनता को दो अभिशाप प्रदान किए हैं- अवांछित व्यक्तियों को शासन-
सत्ता प्राप्त है-दूसरा अभिशाप है- समाज को खण्डित करना तथा पारिवारिक सम्बन्धों को
विषाक्त एवं विशृंखलित कर देना. स्व. महारानी सिंधिया और उनके पुत्र स्व. सिंधिया के मध्य
कटुतम सम्बन्ध तथा बेटी बनाकर जिसका कन्यादान लिया उन श्रीमती सोनिया गांधी के
विरोध में स्वनाम धन्य श्री बच्चन द्वारा प्रचार को आशीर्वाद देना.
         प्रजातन्त्र मात्र एक शासन पद्धति न होकर जीवन की एक महत्वपूर्ण पद्धति है जिसकी
अनुभूति समानता, समरसता तथा विरोधी के प्रति सहिष्णुता की त्रिवेणी में स्नान करके
उपलब्ध की जाती है. प्रजातन्त्र के जन्म स्थान के निवासी विद्वान् थियोडर पार्कर का कथन है-
लोकतन्त्र का यह अर्थ नहीं है कि “मैं उतना ही अच्छा हूँ जितने तुम”, बल्कि यह अर्थ होता
 है-“तुम उतने ही अच्छे हो, जितना (अच्छा) मैं हूँ.” भारत में लोकतन्त्र के प्रवर्तक
पं. जवाहर लाल नेहरू का कथन था कि “जनतन्त्र / लोकतन्त्र की माँग है- अनुशासन,
सहिष्णुता और पारम्परिक सद्भाव”.
            हमारे युवा वर्ग को अगले चुनावों में सक्रिय भागीदार बनना होगा और देश के संचालन
सूत्र का अधिकारी बनना होगा. उनका यह कर्त्तव्य है कि वे भारत के जनतन्त्र की आवश्यकताओं
को समझें और उसी दृष्टि से अपने को प्रशिक्षित एवं अनुशासित करने का अभ्यास करें. आपको
स्मरण रखना होगा- “शिक्षारहित लोकतन्त्र सीमा-रहित धूर्तता है.”

  Amazon Today Best Offer… all product 25 % Discount…Click Now>>>>           

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *