प्रसन्नता का निर्माण करना

प्रसन्नता का निर्माण करना

                        प्रसन्नता का निर्माण करना

वास्तव में हमारा शरीर, निर्माणशाला होकर तर्क प्रस्तुत करने लगता है, पानी से आधा भरा
 गिलास किसी के लिए आधा खाली होता है, तो अन्यों के लिए आधा भरा होता है. यही 
निर्माण का मापदण्ड होता है. जिनको गिलास आधा खाली दिखाई देता है उनके मन में 
पीड़ा, वेदना, ईर्ष्या का भण्डार होता है और जिनको गिलास आधा भरा दिखाई देता है
उनके भीतर प्रसन्नता, परोपकार तथा परपीड़ा हरने की शक्ति निर्मित हो रही होती है.
क्या आप जानते हैं कि हम सब एक मशीन हैं जहाँ कुछ ऐसा निर्माण होता है, जो
हम सबके लिए परमावश्यक है-प्रसन्नता. इसके लिए आवश्यक है कि मशीन को
प्रसन्नता के निर्माण हेतु अनुकूल बनाया जाए. उसका एक-एक पुर्जा प्रसन्नता के निर्माण में
अपना सर्वोच्च योगदान दे सके अन्यथा मशीन गड़बड़ा सकती है और प्रसन्नता की
जगह पूरे जीवन अप्रसन्नता का निर्माण कर जीवन को नरक बना दे.
         बहुत से लोगों का मानना है कि प्रसन्नता का सीधा सम्बन्ध उस धनराशि से
है जिससे आप कुछ भी क्रय करने में सक्षम हो, उस भवन से है जिसके चारों सुगन्धित
पुष्पों की फुलवारी हो, जिसे देख दुनिया के मुख से ‘वाह’ निकल पड़े या उस पद से है
जहाँ व्यक्ति को राजसी अधिकार प्राप्त हों. इन्हीं तत्वों के परिप्रेक्ष्य में यदि हम अपने
चारों ओर नजर दौड़ाएं, तो ऐसे बहुत से व्यक्ति मिल जाएंगे जिनके पास अथाह
धनराशि होगी, किले के समान भवन होंगे और एक तानाशाह के समान राजसी पद भी
होंगे, परन्तु प्रसन्नता उनसे कोसों दूर होगी. वे तिल-तिल तरसते हैं प्रसन्नता के उस
एक क्षण को प्राप्त करने के लिए. एक समय में फोर्ड कम्पनी के मालिक फोर्ड साहब
दुनिया के सबसे धनी व्यक्ति हुआ करते थे. अथाह पैसा, शोहरत उनके पास था, परन्तु
उनका एक वाक्य उनकी वास्तविकता को उजागर कर गया-“कोई मुझसे सारी दौलत
ले ले, पर आधा घण्टे की नींद दे दे.” कितनी मासूम-सी भूख थी, उस व्यक्ति के मन में.
कितनी बेचारगी झलकती है, इस वाक्य में जो व्यक्ति दुनिया की किसी भी वस्तु को
अपनी दौलत से खरीद सकता था, वह इतना मजबूर हो गया कि आधा घण्टे की नींद भी
नहीं पा सका नींद पैसे से नहीं प्रसन्नता से प्राप्त की जाती है, आत्मसन्तुष्टि से मिलती है
और यह तत्व खरीदे नहीं जाते, स्वयं निर्मित किए जाते हैं इसी शरीर में.
        एक बार एक पति-पत्नी बहुत अच्छी रेल के डाइनिंग कार में बैठे थे. शायद
ऑर्डर किए भोजन का इन्तज़ार कर रहे थे. पत्नी ऊपर से नीचे तक हीरे के जेवरों से
लदी हुई महँगी साड़ी पहने हुए और कीमती मेकअप किए बैठी थी. उसके बैठने के तरीके
से साफ जाहिर था कि वह बहुत बेचैन है. उसके चेहरे पर तुनकमिज़ाजी स्पष्ट थी.
उससे जब रुका नहीं गया, तो उसने गुस्से में पति से शिकायत की कि वह उसे कहाँ ले
आया, जगह इतनी गन्दी है, यहाँ की सर्विस भी ठीक नहीं है. उसने पति से तेज आवाज
में कहा कि वह इसकी शिकायत रेलवे विभाग से करे. दूसरी ओर पति अत्यन्त शान्त
प्रकृति का व्यक्ति था एवं परिस्थितियों से भली-भाँति परिचित था. उसे अपनी पत्नी का
व्यवहार अजीब-सा लगा. तभी पास बैठे एक व्यक्ति ने इस पति से पूछा कि वह क्या
करता है, तो उसने बताया कि वह वकील है और उसकी पत्नी निर्माण क्षेत्र में है. व्यक्ति
ने फिर उत्सुकतावश पूछा कि वह क्या निर्माण करती है ? पति ने जवाब दिया-
अप्रसन्नता, चिढ़चिढ़ापन आदि. व्यक्ति को सुनकर आश्चर्य हुआ. सब-कुछ होते हुए भी
मन अप्रसन्नता का निर्माण कर रहा है. शायद इस मशीन में कोई खराबी है. इसी
को ठीक करना होगा.
            वास्तव में हमारा शरीर, निर्माणशाला होकर तर्क प्रस्तुत करने लगता है. पानी से
आधा भरा गिलास किसी के लिए आधा खाली होता है, तो अन्यों के लिए आधा भरा
होता है. यही निर्माण का मापदण्ड होता है. जिनको गिलास आधा खाली दिखाई देता है
उनके मन में पीड़ा, वेदना, ईर्ष्या का भण्डार होता है और जिनको गिलास आधा भरा
दिखाई देता है उनके भीतर प्रसन्नता, परोपकार तथा परपीड़ा हरने की शक्ति
निर्मित हो रही होती है.
         समूचे विश्व को विजित करने वाले सिकन्दर का गुरु था, अरस्तू अरस्तू अपने
काल का सर्वज्ञानी दार्शनिक था. अत्यन्त शान्त स्वभाव वाले गुरु से सिकन्दर ने एक
दिन पूछा-आप इतने शान्त कैसे रहते हैं ? अरस्तू ने कहा, “क्योंकि मैं भीतर से प्रसन्न
रहता हूँ.” सिकन्दर ने अगला प्रश्न किया, “आप इतने प्रसन्न कैसे रहते हैं ?” क्योंकि
मैं सबका भला सोचता हूँ. तुम्हारा भी तथा उनका भी जिनसे तुम युद्ध करते हो, अरस्तू
का जवाब था. सिकन्दर सुनकर सन्न रह गया. मेरा गुरु दूसरों का भी भला सोचता
है. शायद सिकन्दर को इसका उत्तर जीवन के अन्त में मिला था जब उसने अपने गुरु
को यह कहते सुना-“सबका भला सोचना ही वास्तविक प्रसन्नता है, जो शरीर के भीतर
निर्मित होती है.” सिकन्दर शान्ति से मृत्यु का वरण कर सका.
        प्रसन्नता के निर्माण के लिए आवश्यक कच्चे माल को कहीं से आयातित नहीं करना
होता. वह भी हमारे भीतर हमारे अवचेतन मन से प्राप्त होता है. उसे प्राप्त करने के
लिए हमें स्वयं के भीतर झाँकना होता है और उसकी फसल को काटकर निर्माण स्थल
तक ले जाना होता है. यहाँ निर्माण स्थल से तात्पर्य मन के उस भीतरी भाग से है, जहाँ
प्रसन्नता का निर्माण होता है. मन प्रफुल्लित हो, रेगिस्तान में फूल खिलने लगता है. चेहरे
पर लौकिक आभा स्पष्ट नजर आती है. पृथ्वी का हर प्राणी अपना ही अंश नजर
आता है और हर अंश निश्छल भाव से प्रसन्नता बिखेरने लगता है. एकाएक हमारे
चारों ओर का संसार बदल जाता है.

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