बरगद की तरह बढ़िए, खजूर या यूकेलिप्टस की तरह नहीं

बरगद की तरह बढ़िए, खजूर या यूकेलिप्टस की तरह नहीं

               बरगद की तरह बढ़िए, खजूर या यूकेलिप्टस की तरह नहीं

इच्छा बिन्दुस्वरूप उस छोटे से बीज के समान है जो वट वृक्ष के रूप में फैल
जाता है.
        कबीरदास ने एक स्थान पर लिखा है कि-
            बड़ा भया तो क्या भया जैसे पेड़ खजूर।
            पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर।
       खजूर के वृक्ष की तरह ऊँचे उठने से कोई लाभ नहीं होता है, क्योंकि उसके फल
पहुँच के बाहर रहते हैं और उसके पत्ते छाया प्रदान नहीं करते हैं. कबीरदास ने
सम्भवतः जान-बूझकर इस तथ्य की उपेक्षा कर दी होगी कि खजूर का तना जमीन का
पानी भी सोख लेता है.
               यूकेलिप्टस का वृक्ष भी खजूर की तरह सीधा ऊपर की ओर ऊँचाई तक
जाता है. न उसमें फल लगता है, न उसकी पत्तियाँ छाया ही दे सकती हैं. दोनों वृक्षों में
एक अन्य समानता भी है उन पर पक्षी बसेरा नहीं कर सकते हैं. यूकेलिप्टस के
वृक्ष की जड़ भी सीधी जमीन में जाती है और भूमि क्षरण को रोकने में असमर्थ रहती
है. यह वृक्ष एक ओर जहाँ भूमि के जल को सोख लेता है, वहीं दूसरी ओर आसपास की
भूमि को बंध्या (बंजर) बना देता है. इतना ही नहीं, इसकी पत्तियों में एक प्रकार का
तेजाब होता है, जो गिरने पर मिट्टी को जहरीला बना देती हैं. कहने का तात्पर्य यह
है कि ये वृक्ष ऊँचे उठने का गर्व भले ही कर लें, परन्तु समाज के लिए, जिस भू
में जन्म लेते हैं, उसके लिए कौड़ी काम के नहीं होते हैं. इतना ही नहीं, वे यथाशक्ति
जन्मदात्री का अहित ही करते हैं. कबीरदास ने तथाकथित उच्च व्यक्तियों की तुलना
यदि खजूर और उसके परिवार के वृक्षों से की, तो ऐसा करके उन्होंने मानव की
असामाजिकता एवं कृतघ्नता के प्रति अपनी वेदना को ही अभिव्यक्त किया. महत्वा-
कांक्षियों को सन्देश भी दिया कि बड़ा बनते समय खजूर या यूकेलिप्टस की निरर्थक
ऊँचाई को आदर्श मत मानना, हमें पूर्ण विश्वास है कि हमारे युवा प्रतियोगी
कबीरदास के मन्तव्य को भली प्रकार समझते हैं. पर्यावरण प्रदूषण की समस्या को
हल करने के लिए वृक्षारोपण पर बहुत बल दिया जाता है, परन्तु विडम्बना यह है कि
वृक्षारोपण के समय दृष्टिकोण एकांगी रखा जाता है केवल पर्यावरण पर ध्यान रखा
जाता है. फलतः विलायती बबूल जैसे निरर्थक वृक्षों को अथवा झाड़-झंकाड़ को
आरोपित कर दिया जाता है. वे उन वृक्षों को भूल जाते हैं जो अपने सघन वितान
द्वारा आतप तप्त को शीतल छाया प्रदान करते हैं, अगणित पक्षियों को रैन बसेरा
प्रदान करते हैं और फलों के भार से झुककर हमें शील एवं विनम्रता का पाठ पढ़ाते हैं.
संस्कृत के एक महान् नाटककार ने एक स्थान पर लिखा है कि “वृक्ष अपने सिर पर
गरमी सह लेता है, परन्तु अपनी छाया से औरों को गरमी से बचाता है. “सन्तों व
सज्जनों का भी यही स्वभाव होता है कि वे स्वयं कष्ट सहकर भी दूसरों के कष्ट को
कम करते हैं. गोस्वामी तुलसीदास की यह तथ्यात्मक उक्ति द्रष्टव्य है-
                          साधु चरित सुभ चरित कपासू।
                          निरस बिसद गुनमय फल तासू।
                          जो सहि दुःख परछिद्र दुरावा।
                          वंदनीय जेहिं जग जस पावा।
          सन्त की तरह जीवन व्यतीत करने वाले वृक्षों को कौन भला नहीं कहेगा ? ऐसे
वृक्षों का आरोपण करने वाले व्यक्ति पुण्य का अर्जन करके लोकमंगलकारियों की
पंक्ति में स्थान पाने के अधिकारी होते हैं, यथा-“जो मनुष्य सड़क के किनारे तथा
जलाशयों के तट पर वृक्ष लगाता है, वह स्वर्ग में उतने ही वर्षों तक फूलता-फलता
है, जितने वर्षों तक वह वृक्ष फूलता-फलता है. (पद्म पुराण)
          हमारे भावी कर्णधार युवक-युवतियाँ स्वयं विचार करें कि यदि वे अधिकार प्राप्त
करके वृक्षों की भाँति जीवन व्यतीत करेंगे, तो विकास की परम्परा में किस सोपान पर
प्रतिष्ठित होने के अधिकारी बन जाएंगे ?
          आपने अनेक पुरुषों एवं नारियों को वटवृक्ष (बरगद, बड़) तथा पीपल के वृक्षों
की पूजा करते देखा होगा. सम्भवतः आपने उनको अज्ञानी, जाहिल, रूढ़िवादी, परम्परा-
वादी आदि समझा होगा, परन्तु यदि आप उनकी सामाजिक उपयोगिता पर विचार
करेंगे, तो अपनी धारणा में परिवर्तन ही नहीं कर देंगे, बल्कि उनको अपना जीवनादर्श
भी मान लेंगे.
      कबीरदास के जन्म के सम्बन्ध में यह दोहा प्रसिद्ध है-
           चौदह सौ पचपन साल गए चन्द्रवार एक ठाट ठए।
           जेठ सुदी वरसायत को, पूरनमासी प्रगट भए।
        इस दोहे में बरसायत शब्द ध्यातव्य है. इसको हटा देने पर भी कबीरदास का
जन्म दिन संवत् 1456 के ज्येष्ठ की पूर्णिमा बना रहता है. वस्तुत: ‘बरसायत’ का अर्थ
है शुभ मुहूर्त शुभ मुहूर्त इस कारण कि इस दिन अपने अखण्ड सौभाग्य की कामना
लेकर नारियाँ वटवृक्ष का पूजन करती हैं. वटवृक्ष एवं कबीरदास की जीवनपद्धतियों में
समानता को लक्ष्य करके सम्भवतः उनके जन्म दिवस को शुभ मुहूर्त वाचक माना गया
है. वटवृक्ष का वितान अत्यन्त सघन और विस्तृत होता है. थियोसोफीकल सोसाइटी
अड्यार (चेन्नई) तथा बोटेनिकल गार्डन कलकत्ता में स्थित वटवृक्षों की छाया में कई
सौ व्यक्ति एक साथ विश्राम कर सकते हैं. वटवृक्ष के पत्ते इतने सुदृढ़ होते हैं, उसकी
शाखाएं परस्पर इस प्रकार जुड़ी होती हैं कि वह शतसहस्र पक्षियों के लिए विश्रामदायक
सहज नीड़ बन जाता है. उनका कलरव तो मनोहारी होता ही है, उन पक्षियों द्वारा
उत्सर्जित बीट पृथ्वी को उपजाऊ बना देती है. ये पक्षी अनेक कीट-कीटाणुओं का भक्षण
करके आस-पास उगने वाली फसलों की रक्षा भी करते हैं.
         वटवृक्ष की जड़ें खजूर और यूकेलिप्टस की भाँति सीधी गहरी न जाकर चारों ओर
दूर-दूर तक फैलती हैं और भूमि के कटाव को रोकती हैं, उससे लटकने वाली जटाएं
नीचे की उपजाऊ भूमि में सहज ही जम जाती हैं और एक स्वतन्त्र वृक्ष का रूप
धारण करके वटवृक्ष से स्तम्भों की भाँति सुशोभित होती हैं, पाठक, यह समझ लें कि
पीपल का वृक्ष भी उपयोगिता की दृष्टि से इसी वर्ग का वृक्ष है. दोनों अत्यन्त दीर्घजीवी
होते हैं.
        वटवृक्ष की शाखाएं ही उसकी जड़ें बन जाती हैं. यही कारण है कि वह दीर्घजीवी
होता है. जो व्यक्ति अथवा संस्थाएं वटवृक्ष की भाँति जन्म लेती हैं, बढ़ती हैं, फूलती
और फलती हैं. वे अपने ज्ञान सेवा भाव और उपयोगिता को चारों ओर फैलाती हैं.
उनके सानिध्य में अन्य अनेक लोग लाभान्वित होते हैं और वटवृक्ष की शाखाओं की
तरह भूमि से जुड़कर अन्यों का भला करते हैं.
            जन्मजात सेवाभाव से पूरित अंग-प्रत्यंग का धनी वटवृक्ष हमें यह सन्देश देता है कि
जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपने को उपयोगी बनाकर हम अपने जीवन को सार्थक बनाने
एवं मानव होने का दावा पूरा करें. खजूर के वृक्ष सदृश मनुष्य अनुपयोगी व्यक्ति तो
मृतवत् समझे जाते हैं.

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