बुद्धिमान ही नहीं, प्रबुद्ध भी बनो

बुद्धिमान ही नहीं, प्रबुद्ध भी बनो

                         बुद्धिमान ही नहीं, प्रबुद्ध भी बनो

अनेक लोगों की पूरी जिन्दगी स्वयं को जानें-समझे बिना निकल जाती है. वे बचपन
में स्कूली पढ़ाई अक्षर ज्ञान में व्यस्त रहते हैं, जवानी में प्राप्त शिक्षा में आजीविका जुटाने
में एवं वृद्धावस्था आते-आते भी घर-परिवार संघ-समाज को जानने व जीने में ही अपना
सम्पूर्ण समय लगाया करते हैं. कुछ लोग धार्मिक क्लबों के सदस्य भी बन तो जाते
हैं, किन्तु वे धर्म भी एक फैशन की तरह अथवा नियम-संस्कार की तरह ही अपनाया
या छोड़ा करते हैं. कई लोग पुराणों व कथा-कहानियों में डूबे रहते हैं, एक आदर्श चरित्र
की नकल करने में तत्पर दिखलाई पड़ते हैं, तो कई लोग अनेक दार्शनिक विचारधाराओं
में उलझे रहते हैं. शब्द विलास में पाण्डित्य प्रदर्शन में खूब रस लेते हैं, तो कई लोग
कर्मकाण्डों में लवलीन पाए जाते हैं.
               कितने कम लोग ऐसे होते हैं, जो अपनी बुद्धिमानी का उपयोग प्रबुद्ध होने के लिए
करते हैं, जो स्वयं को प्रबुद्ध नहीं बनाते वे अक्सर स्वयं को किसी-न-किसी विषय में
व्यस्त रखते हैं और उसका बहाना बनाकर खुद से मुँह छिपाते हैं, खुद से ही पलायन
करते रहते हैं.
          खुद से बचने की भी बड़ी तरकीबें हैं, जो हममें से हर एक को आती है. अधिकांश
को तो घर-परिवार में प्रकट माहौल में, राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय परिवेश में मौजूदा
हालातों में इतनी दिलचस्पी होती है कि वे दिन-रात उसी की चर्चा करते रहते हैं.
समाज सुधारक बनने की दीवानगी भी अनेक लोगों में इस कदर देखी जाती है कि
वे अपना चेहरा धोए बिना औरों को कालिख पोतने की चाहत में परेशान बने रहते हैं.
           एक पुरानी कहानी है किसी राजकुमार की, जो बेहद आराम तलबी, शौकपरस्त,
नाखुद्दार इनसान था किसी समय बिना घोड़े के उसे पैदल चलने की नौबत कुछ मंजर
के लिए आ गई थी और तभी पहली बार उसके पैर के तलवे में एक फाँस चुभ गई.
वह फाँस भी ऐसी चुभी कि भीतर तक धँस गई, दर्द के मारे कराहते हुए वह राजकुमार
अपने पिताश्री के पास जाकर बहुत रोया, बहुत चिल्लाया. उसने पिता को कहा कि
राज्य भर के सम्पूर्ण रास्तों की, चौराहों की, गलियों की स्वच्छता का अभियान जारी करे.
अपने लाडले पुत्र की हर बात की सुनवाई करने वाले राजा पिता ने अगले ही दिन
स्वच्छता अभियान जारी करवा दिया. अब क्या था ? जिधर देखो उधर झाड़ ही झाडू
लग रहे थे. चारों ओर धूल उड़ रही थी. अब वह धूल छत पर से सम्पूर्ण राज्य की
सफाई अभियान का निरीक्षण कर रहे उस किशोर राजकुमार की आँखों में भी छाई.
उसकी आँखें लाल हो गईं व आँसू गिराने लगी. अब पैर के दर्द के बाद अपनी आँख
के दर्द से, जलन से धूल मिट्टी की ओर घृणा भरी निगाहों से राजकुमार चिल्लाया कि
ये क्या हो रहा है ? ऐसे वातावरण में तो दम घुटा जा रहा है. राजा पिता ने तुरन्त नया
आदेश जारी किया कि जिन स्थानों से बहुत ज्यादा धूल उड़ रही है, वहाँ तुरन्त पानी का
छिड़काव किया जाए, ताकि धूल उड़नी बन्द हो. अब जबकि पानी ही पानी सारी जमीन
पर हो गया, तो राजकुमार खुश हुआ. खुशी के मारे मार्गों पर निरीक्षण करने पहुँचा, तो
उसके सारे कपड़े धूल मिश्रित पानी के छींटों से गन्दे हो गए. अब क्या होना था ? आप
सभी समझ गए होंगे कि उस नादान राजकुमार की असहनशीलता एवं अकड़ की
पकड़ ने उसकी बुद्धिमत्ता को सुला दिया था. वह न तो धैर्य से, विवेक से समझने व
सुनने को तैयार था, न ही उसके पिता को वह किसी बुद्धिमत्तापूर्ण सलाह को सुनने
देना चाहता था. अनेक प्रयासों के बावजूद जब गन्दगी नहीं हटी, मात्र रूप बदलती
रही, तब उस परेशान राजा व राजकुमार को देखकर एक राह चलते वृद्ध सज्जन ने
बिना माँगे ही जूते भेंट किए और राजकुमार को कहा कि वे जूते पहनकर चलें, इससे
उनके पैरों में कोई फाँस नहीं चुभेगी. इतनी छोटी-सी वस्तु ने कितनी गम्भीर समस्या को
क्षणमात्र में सुलझा लिया था. आत्मज्ञानी श्री विराट गुरुजी इस कहानी को सुनाया करते
थे और फिर कहा करते थे कि-
                            बच के चलो भई, बच के चलो।
                            रास्ते को जागृत, जँच के चलो।।
यह तो एक दृष्टान्त हुआ. आज हम अपने चारों ओर के परिवेश पर नज़र दौड़ाएं,
तो हमें खुद-ब-खुद समझ आएगा कि किस कदर लोग बौद्धिक तार्किक दांवपेंचों में
बहसबाजी में उलझे रहते हैं, बौद्धिक रूप से अनेक लोग स्वयं को स्मार्ट मानते हैं, किन्तु
आन्तरिक संगीत व शान्ति के अभाव में अस्त-व्यस्त विकृत नज़र आ रहे हैं, अगर
यही दौर और लम्बा चला, तो पागलखानों की संख्या बढ़ती जाएगी. अस्पतालों व
मानसिक रोगियों का ग्राफ भी बढ़ेगा तथा हर घर में दीवारें-ही-दीवारें मिला करेंगी,
जैसाकि किसी शायर ने कहा है कि-
इतनी दीवारें खड़ी हुई हैं,
                 मेरे घर के दरम्यान्
कि घर कहीं गुम हो गया
                 दीवार-ओ-दर के दरम्यान् ॥
ये दीवारें अशान्त शंका-शिकवाग्रस्त मस्तिष्क में उठती हैं और वे ही परस्पर प्रेम
को तोड़ती हैं दीवारें खड़ी वे लोग करते हैं जिनके भीतर खुद दीवारें हैं, यानि भेदभाव
है. भेदभाव ही बाधा है, जो हमें खुद से भी तोड़ती है व खुद को समष्टि से, सम्पूर्ण को
भी तोड़ती है. बुद्धिमानी का सदुपयोग न हो, तो व्यर्थ बहसबाजी, तार्किकता, कलह-क्लेश
होंगे, किन्तु सदुपयोग हुआ, तो बुद्धिमत्ता, सृजनात्मकता आएगी. नित नूतन आविष्कार होंगे
 विषय विज्ञान की शोध होगी. जब बुद्धिमत्ता की दिशा अन्तर्मुखी हो जाएगी तब प्रबुद्धता प्रगट
 होगी. वह व्यक्ति प्रबुद्ध होता है, जो अपने आपको पढ़ता है, स्वाध्याय करता है. स्वाध्याय से
आन्तरिक कमियों को दूर करने का मार्ग मिलता है. स्वाध्याय से अन्तर्जगत के रहस्य
उजागर होते हैं. स्वाध्याय से अनावश्यक व आवश्यक का उपयोगी व अनुपयोगी का
विवेक जागृत होगा. स्वाध्याय अन्तःकरण को निर्मल व शान्त करता जाएगा. स्वाध्याय
करने के लिए यानि स्वयं को समझने व जानने के लिए इनसान के भीतर जिज्ञासा
हो, विनय हो, आलस्य विहीनता हो, अप्रमाद हो तब ही एक व्यक्ति खुद को पढ़ पाएगा.
              जब तक औरों के दुर्गुणों की विवेचना करने में मस्तिष्क व्यस्त रहता है, तब तक
स्वाध्याय व ध्यान सम्भव नहीं हो सकता. प्रबुद्ध वह है, जो आर पार का दृष्टा हुआ है जिसके
 भीतर अब कोई भेद न रहा जो खण्ड-खण्ड न होकर अखण्ड हुआ जिसने अपने भीतर को व
बाहर को दोनों को स्पष्टता से, यथार्थता से जाना यथार्थ नज़रिया यानि सम्यग्दर्शन के
बिना प्रबुद्धता प्रगट नहीं हो पाती है. यह सम्बोधि अवस्था है, जिसे उपलब्ध होने पर
हम अन्दर-बाहर जगत् के प्रभावों से मुक्त होकर परम ज्ञान को जीते हैं. यह अवस्था
समस्त जगत् को प्रगटे.

Amazon Today Best Offer… all product 25 % Discount…Click Now>>>>

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *