भारतीय जनतंत्र का अवमूल्यन मत होने दीजिए

भारतीय जनतंत्र का अवमूल्यन मत होने दीजिए

                          भारतीय जनतंत्र का अवमूल्यन मत होने दीजिए

भारतीय जनतंत्र विश्व का सर्वाधिक बड़ा जनतंत्र है. इसका वर्तमान रूप यूरोप
 से आयातित मान्यताओं के आधार पर निर्मित है. पंचायत राज एवं
 राजतांत्रिक प्रजातंत्र के रूप में इसकी जड़ें सुदूर अतीत तक फैली
हुई हैं. हमारे देश में समाज एवं शासन,दोनों स्तरों पर कुछ ऐसी घटनाएं घटित
होती रहती हैं जो जनतंत्र एवं भारतीय अखण्डता के सम्मुख प्रश्नचिह्न लगा देती हैं.
बात पीछे अपनी स्वार्थ पूर्ति हेतु संविधान में संशोधन करने की प्रक्रिया इस संदर्भ में
सबसे बड़ा खतरा प्रस्तुत करती है. यह प्रक्रिया वस्तुतः संविधान को तानाशाही की
ढाल अथवा उसका कवच बना देती है. भारतीय न्यायालय संविधान को अक्षुण्ण
रखने एवं निष्कलंक बनाए रखने के लिए अपने कर्त्तव्य का यथाशक्ति निर्वाह करते
रहते हैं. हमारे युवा वर्ग का कर्तव्य है कि वह समस्त घटनाक्रम एवं परिवेश पर
गम्भीरतापूर्वक विचार करे और जनतंत्र को निष्कलंक बनाए रखने के संदर्भ में अपने
कर्त्तव्य का निर्धारण करे.
          भारतीय जनतंत्र विश्व का सबसे बड़ा जनतंत्र है. भारत की जनता ने पिछले कई
चुनावों में यह प्रमाणित कर दिया है कि वह जनतंत्र की निर्वाचन प्रणाली को स्वीकार ही
नहीं, बल्कि पूर्णतः आत्मसात कर चुकी है. यह भी ध्यातव्य है कि एशिया महाद्वीप में
केवल भारत ऐसा देश है जहाँ जनतंत्र स्थापित है और निरापद रूप से कार्य कर
रहा है. यह कहना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि पंचायती राज व्यवस्था के रूप में भारत
में जनतंत्र की जड़ें सुदूर अतीत तक गई हैं. आज से चार सौ वर्ष से अधिक पहले
रचित ‘रामचरितमानस’ में हमें जनतंत्र के परिपक्व रूप के दर्शन होते हैं, इसे हम
संवैधानिक राजतंत्र भी कह सकते हैं अथवा राजतंत्रात्मक जनतंत्र भी मान सकते हैं.
           आधुनिक भारतीय जनतंत्र की नींव यूरोप से आयातित स्तम्भों पर रखी गई है.
व्यावहारिक दृष्टि से ये स्तम्भ हैं-धर्म निरपेक्षता, समाजवाद, अल्पसंख्यकों की
सुरक्षा तथा भाषायी राज्य हैं.
           उक्त चारों शब्द आरम्भ से ही विवादग्रस्त बने हुए हैं और वे नित्य नई समस्याएँ
उत्पन्न करते रहे हैं. हमारे देश में प्रायः ऐसी घटनाएँ घटित होती रहती हैं-साम्प्रदायिक
दंगे, आरक्षण सम्बन्धी विवाद, भ्रष्टाचार एवं घोटालों का पर्दाफाश, राजनीतिक अपहरण,
हत्याएं आदि इनके फलस्वरूप भारतीय जनतंत्र / लोकतंत्र एवं भारतीय अखण्डता के
सम्मुख प्रायः स्थायी रूप से एक बहुत बड़ा प्रश्नचिह्न लग गया है.
         हमें स्मरण रखना चाहिए कि भारतीय संविधान में संशोधन करना वस्तुतः उसके
साथ खिलवाड़ करना है, सम्भवतः इस खिलवाड़ में निहित गम्भीर परिणामों की
ओर हमारे कर्णधारों का ध्यान नहीं जाता है. भारतीय राज्यों के राजाओं को राजनीति
से हटाने के लिए उनकी पेंशन बन्द करने के लिए किए गए संशोधन तथा शाहबानो के मामले 
में कट्टरपंथी मुसलमानों की संतुष्टि हेतु किए गए संशोधन ने भारत के प्रबुद्ध जनमानस को
 झकझोर कर रख दिया था और संविधान के प्रति विश्वसनीयता एवं आस्था का बहुत कुछ
अवमूल्यन हो गया था. संविधान को सुविधावादी कवच बनाने की प्रक्रिया कितनी खतर-
नाक है, इसको हमारे युवा वर्ग को समझना चाहिए और अपने प्रभाव द्वारा इस प्रक्रिया
को रोकने का प्रयत्न करना चाहिए. कुछ लोग इस प्रक्रिया को तानाशाही की ढाल के
रूप में देखते हैं. पाठक स्मरण कर लें-इंगलैंड की लेबर पार्टी की सरकार ने
भारत को स्वतंत्र करने की घोषणा की थी. एक पत्रकार ने निवर्तमान प्रधानमंत्री श्री
विंस्टन चर्चिल से प्रश्न किया था “आसन्न चुनावों के फलस्वरूप यदि आपकी सरकार
बन जाएगी, तब भारत की स्वतंत्रता का क्या होगा.” (ब्रिटिश प्रधानमंत्री के शब्द अपरिवर्तनीय
हैं.) चर्चिल का त्वरित उत्तर था. भारत के भावी कर्णधार हमारे युवा वर्ग को समझ
लेना चाहिए कि देश के संविधान एवं शासन के प्रति विश्वसनीयता को किस प्रकार
अक्षुण्ण रखा जा सकता है. वर्तमान पीढ़ी के लोग सोच भी नहीं सकते हैं कि जिस ब्रितानी
सरकार से भारतवासी दिल से घृणा करते थे, उसी ब्रिटिश हुकूमत के प्रति भारतीय
जनमानस में श्रद्धा-विश्वास के अंकुर जमने लगे थे. ब्रिटिश राष्ट्रकुल में भारत का शामिल 
होना इसका ज्वलन्त उदाहरण था. मंडल आयोग के सन्दर्भ में हमारे प्रधानमंत्रीजी ने घोषणा कर
दी थी कि यदि संविधान आड़े आएगा, तो उसको भी बदल दिया जाएगा. पूर्व प्रधानमंत्री
स्व. श्रीमती इंदिरा गांधी न्यायपालिका को शासन के प्रति प्रतिबद्ध होने का सुझाव दे ही
चुकी थीं आदि. न्यायालय की दुस्साहसिकपूर्ण अवज्ञा के उदाहरण आज भी देखने को
मिल रहे हैं. यह प्रक्रिया कितनी आत्मघाती सिद्ध हो सकती है, हमारा युवा वर्ग इसकी
गम्भीरता पर विचार करे और निर्धारित करे कि प्रशासनिक सेवा में कार्य करने के अवसर
मिलने की स्थिति में वे देश की अखण्डता, संविधान की अस्मिता तथा जनतंत्र में निहित
लोक भावना की रक्षा किस प्रकार करेंगे.
        हम चाहते हैं कि हमारा युवावर्ग यानी हमारे देश के भावी कर्णधार लोकतंत्र और
तानाशाही के मध्य लक्ष्मण रेखा के निर्धारण पर गम्भीरतापूर्वक विचार करें. वे यह भी
ध्यान में रखें कि लोकतंत्र एक शासन पद्धति मात्र न होकर एक जीवन पद्धति भी
है और उसको लक्ष्य करके उच्च आदर्शों की स्थापना करनी चाहिए.
        आरक्षण, विशेष सुविधाएं आदि देना, जातिसूचक शब्द के प्रयोग को अपराध
घोषित करना आदि उपायों को लक्ष्य करके कहा जाता है कि हम जातिवाद एवं
साम्प्रदायिकता को समाप्त करना चाहते हैं, परन्तु वास्तविक तथ्य इसके सर्वथा विपरीत
कहानी कहते हैं. इस सन्दर्भ में आज से 30 वर्ष पूर्व, अप्रैल 1976 में सर्वोच्च न्यायालय ने
एक व्यवस्था देकर हमारा मार्गदर्शन किया था. चूँकि अभी पानी सिर से ऊपर नहीं गुजरा है,
अतः युवा वर्ग के विचारार्थ हम उक्त निर्णय के आवश्यक अंश प्रस्तुत करते हैं-“शूद्र
वर्ग अथवा अनुसूचित जाति का व्यक्ति वह है जो अपने को वैसा कहता है. इसके लिए
जन्मजात शूद्र अथवा अनुसूचित होना आवश्यक नहीं है. ” हमें यदि जन्मजात भेद-
भावना समाप्त करके सच्चे समाजवाद की स्थापना करनी है तो हमारा कर्त्तव्य है कि
हम अपने मार्गदर्शन हेतु उच्चतम न्यायालय के उक्त निर्णय के अनुरूप निर्देशक सूत्रों
का निर्माण करें. तत्कालीन एवं अल्पकालीन स्वार्थ सिद्धि की नीतियाँ हमें कुर्सी दिला
सकती हैं, परन्तु जनतंत्र के भवन को सुदृढ़ नहीं बना सकती हैं. हमारे युवा वर्ग को
गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिए कि हम अपने जनतंत्र को किस प्रकार अक्षुण्ण एवं
निष्कलंक बनाए रख सकते हैं. स्मरण रखिए निरन्तर जागरूकता द्वारा जनतंत्र की कीमत
 चुकाई जाती है.

Amazon Today Best Offer… all product 25 % Discount…Click Now>>>>

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *