भारतीय भाषा-चिंतन
भारतीय भाषा-चिंतन
भारतीय भाषा-चिंतन
भारत विद्या के मामले में सारे संसार में सदैव अग्रणी रहा है। संसार का प्राचीनतम ग्रंथ भारतवर्ष में ‘वेद’ माना जाता है। अनेक शास्त्रों और विज्ञानों की ही तरह भाषा के संबंध में भी भारतवर्ष में अत्यंत प्राचीन काल से चिंतन होता रहा है। भारतवर्ष में इस क्षेत्र में अध्ययन की गति लगभग अप्रतिम सी रही है; इस तथ्य को चोटी के कई भाषाशास्त्रियों ने स्वीकार किया है।
इतना ही नहीं, आधुनिक भाषा-विज्ञान के उत्स के विषय में चर्चा करते हुए हार्वर्ड विश्वविद्यालय के जॉन बी० कैरोल लिखते हैं-
जाहिर है यह एक प्रमाणित तथ्य है कि आधुनिक भाषा-विज्ञान भी पाणिनि के ही प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव के प्रकाश में विकसित हुआ है। भारत में हुए भाषा-चिंतन को ऐतिहासिक काल-क्रम से हम दो वर्गों में बाँट सकते हैं-प्राचीन काल और आधुनिक काल । प्राचीन काल को हम पुरा वैदिक काल से लेकर लगभग सोलहवीं-सत्रहवीं शती तक रख सकते हैं । आधुनिक काल (भाषा-चिंतन का) उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से लेकर अद्यतन काल तक है ।
प्राचीन भाषा-चिंतनः
जैसा कि हमें ज्ञात है कि भारत का प्राचीनतम वाङ्मय वैदिक वाङमय है। भाषा के संबंध में चिंतन और
अध्ययन के बीज हमें इसी में मिलने लगते हैं। ऋग्वेद के अंतिम कुछ मंडल इस संबंध में द्रष्टव्य हैं।
‘कृष्ण-यजुर्वेद संहिता’ में देवों ने इन्द्र से कहा कि हम लोगों के कथन को टुकड़ों में कर दीजिये। इससे
यह स्पष्ट होता है कि वाक्य के कई खंड किये जा सकते हैं। इस स्पष्ट संकेत से तत्कालीन लोगों के भाषा संबंधी ज्ञान का स्पष्ट पता चलता है। अन्य देशों के प्राचीन लोगों की ही भाँति भारत के निवासियों में भी धार्मिक भावना का अंकुर प्रस्फुटित होकर सदैव विकासोन्मुख रहा था । ऐसा प्रतीत होता है उसी धार्मिक भावना से भाषा के अध्ययन और विवेचन को प्रथम प्रोत्साहन मिला था जिसका प्रतिफल प्रतिशाख्यों के रूप में प्राप्त होता है, परंतु वेदों का प्रमाण तो इससे भी पूर्व का है। सिद्धांतरूप में यह बोध तो था परंतु व्यावहारिक रूप में इसके प्रथम कार्य-संकेत ‘ब्राह्मणों’
में मिलते हैं।
1. ब्राह्मण और आरण्यक ग्रंथ-ये ‘ब्राह्मण ग्रंथ’ वस्तुतः संहिताओं के बाद की रचनाएँ हैं। इसमें
कहीं-कहीं शब्दों के अर्थ समझने का प्रयास स्पष्ट दिखाई पड़ता है। हालाँकि यह प्रयास अत्यल्प है और खंड वगैरह करने की क्रिया अक्सर अनुमान पर आधारित है और लगभग अशुद्ध है जैसे ‘अपाप’ (अप + अप) का खंड ‘अ + पाप’ किया गया है, परंतु इसका महत्त्व इसलिये है कि भाषा-विज्ञान के विश्व इतिहास में व्याकरण-(खंड-खंड करना) और धात्वर्थ तक पहुँचने का प्रथम प्रयास है। ब्राह्मण-ग्रंथकारों का प्रधान लक्ष्य ध्वनि या अर्थ की ओर नहीं था। कहीं-कहीं आनुषंगिक रूप से ही इस ओर उनका ध्यान गया है। इस दृष्टि से ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ प्रमुख रूप से उल्लेख्य है। आरण्यकों, विशेषतः ऐतरेय, में ब्राह्मणों की तुलना में भाषा के संबंध में अधिक सामग्री मिलती है।
2. पद-पाठ-ब्राह्मण-ग्रंथों के बाद भाषा का अपेक्षाकृत अधिक वैज्ञानिक अध्ययन आरंभ हुआ। ‘पद-पाठ’ में वैदिक संहिताओं को पद रूप में किया गया। इसमें संधि और समासों के आधार पर वाक्य के शब्दों को अलग किया गया । यहाँ कुछ स्वराघात पर भी विचार हुआ । साकल्य ऋषि ऋग्वेदीय पदपाठ के, गार्ग्य सामवेदीय के तथा मध्यन्दिन यजुर्वेदीय के पदपाठकार हैं।
3. प्रातिशाख्य-वैदिक भाषा से शनैः शनैः दूर होती गई जनभाषा के कारण खुद वैदिक भाषा से लोग
अपरिचित होने लगे । वेद का तो प्रथानुसार पाठ आवश्यक था और पाठ भी साधारण न होकर प्राचीन स्वराघातों पर आधारित होना चाहिये था। परंपरानुसार गाकर पाठ अनिवार्य था, अन्यथा करने पर ध्वनि-संबंधी अशुद्धि के कारण दोष का भागी बनना पड़ता । फिर तो ध्वनि की दृष्टि से वेदों का विशिष्ट अध्ययन आवश्यक हो गया। जाहिर है धार्मिक प्रेरणा से प्रातिशाख्यों के रूप में विश्व का प्राचीनतम वैज्ञानिक ध्वनि-अध्ययन भारत में ही संपन्न हुआ। ये प्रमुख प्रातिशाख्य हैं कृक्प्रातिशाख्य, अथर्व-प्रातिशाख्य, वाजसनेयी प्रातिशाख्य तथा ऋक्तन्त्र व्याकरण आदि । यहाँ उच्चारण संबंधी विशिष्ट पक्षों की दृष्टि से उनके अध्ययन किये गए। आज के उपलब्ध प्रातिशाख्य पाणिनि के बाद के ही हैं।
प्रातिशाख्यों में किये गये कार्य-
(क) अपनी-अपनी संहिताओं का परंपरागत उच्चारण सुरक्षित रखा । इसके लिये स्वराघात, मात्रा-काल तथा उच्चारण संबंधी अन्य नियमों के अध्ययन का कार्य इनमें हुआ।
(ख) संस्कृत ध्वनियों का वर्गीकरण किया गया। यह वर्गीकरण इतना प्रौढ़ था कि आज तक लगभग वही प्रचलित है।
(ग) पदों के नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात नामक चार विभाग किये गये । (घ) अनुमान है कि आरंभिक विश्लेषण तथा संज्ञा के सामान्य लक्षणों पर भी इन प्रातिशाख्यों में प्रकाश डाला गया होगा । लगता है धातु तक पहुँचने का भी प्रयास हुआ होगा।
4. शिक्षा-ग्रंथों में ध्वनि का सैद्धांतिक विवेचन है। शिक्षा ग्रंथों की संख्या काफी हुई। अभी लगभग चालीस शिक्षाग्रंथ उपलब्ध हैं, जिनमें पाणिवीय शिक्षा, नारद शिक्षा, भारद्वाज शिक्षा, याज्ञवल्क्य शिक्षा, स्वर-व्यंजन शिक्षा आदि प्रमुख हैं। इन शिक्षा-ग्रंथों में ध्वनि-स्वरूप, वर्गीकरण, सुर, अक्षर आदि पर विचार किया गया है। ऐसा अनुमान है कि सैद्धांतिक ग्रंथ होने के कारण कुछ शिक्षा-ग्रंथ प्रतिशाख्यों के पूर्व के लिखे प्रतीत होते हैं।
5. निघण्टु-वैदिक शब्दों के संग्रह का ही नाम निघण्टु है । इन्हें वैदिक कोश भी कहा जा सकता है, यद्यपि इनमें अर्थ नहीं दिया गया है। यास्क के निघण्टु का कार्य उन्हीं पर आधारित है जो पाँच अध्यायों में विभक्त है। प्रथम तीन अध्यायों में जिनमें क्रम में 16, 22 और 30 खंड हैं, शब्दों को पर्याय-क्रम से सजाया गया है। चौथा अध्याय तीन खंडों का है जिसमें वेद के कुछ अत्यंत क्लिष्ट शब्द रखे गये हैं। पाँचवाँ अध्याय वैदिक देवताओं के नामों का है। इसमें छह खंड है।
6. यास्क (8वीं सदी ई० पूर्व)-यास्क का समय पाणिनि से कम-से-कम सौ वर्षों पूर्व है। यास्क का
निरुक्त निघंटु की व्याख्या है। अर्थ-विचार का यह विश्व में प्राचीनतम विवेचन है। इसमें निघंटु के प्रत्येक शब्द को अलग-अलग लेकर उसकी व्युत्पत्ति तथा अर्थ पर विचार किया गया है। इसमें निघंटु के शब्दों का अर्थ समझाने का प्रयास किया गया है। अनेक पूर्ववर्ती तथा समवर्ती व्याकरण-संप्रदायों एवं वैयाकरणों के नाम एवं उनके उद्धरण दिये गये हैं, जिनसे उस समय तक के भाषासंबंधी अध्ययन के प्रचार एवं अभिरुचि पर प्रकाश पड़ता है। शब्दों के इतिहास की गतिविधि पर प्रकाश डालते हुए समाज और इतिहास की ओर भी लेखक ने दृष्टि दौड़ाई है। शब्दों पर विचार के साथ ही भाषा की उत्पत्ति, गठन और विकास पर भी कुछ विचार किया गया है। भाषा के संबंध में इतने व्यापक रूप से विचार करने का प्रथम श्रेय यास्क को ही जाता है। वाणी के अतिरिक्त अन्य अवयव संकेतों को भी
यास्क भाषा ही मानता है। कुछ शब्दों के नामकरण को लेकर इसमें बहुत सुंदर और वैज्ञानिक शंकाएँ उठाई गयी हैं, जिससे भाषा-विज्ञान के छोटे-मोटे प्रश्नों पर प्रकाश पड़ता है। शब्द और अर्थ के संबंध पर प्रकाश डाला गया है।
इसमें शब्द के श्रेष्ठ होने के दो कारण बताए गये हैं:
(1) शब्द का अर्थ किसी की इच्छा पर पूर्णतः आधारित न होकर सिद्ध और स्थिर रहता है, जिससे श्रोता और वक्ता दोनों में एक भावना उत्पन्न करता है।
(2) कम परिश्रम में इसके द्वारा सूक्ष्म अर्थ का बोध होता है। पाणिनि जिस धातु-सिद्धांत को प्रतिपादित करने में सफल हुए थे, उसका मूल यही है। ‘निरुक्त’ में विभाषाओं की उत्पति की ओर भी कुछ संकेत किया गया है। संज्ञा और क्रिया तथा कृदन्त और तद्धित के प्रत्यय-भेदों का भी अस्पष्ट उल्लेख मिलता है।
यास्क के निरुक्त की वैज्ञानिकता को लेकर विद्वानों में यों तो मतभेद भी रहा है। कुछ लोग बहुत ही सुंदर, वैज्ञानिक और आश्चर्य में डालने वाला कार्य मानते रहे हैं तो कुछ लोग इसे अवैज्ञानिक मानते हैं। निरुक्त में कुल 1298 व्युत्पत्तियाँ देने का प्रयास है, जिनमें 849 पुराने ढंग की 224 वैज्ञानिक और 225 अस्पष्ट हैं। परंतु भाषा के आदिम युग में आज सी वैज्ञानिकता की अपेक्षा ही गलत है।
6. यास्क और पाणिनि के बीच के काल में भाषा के अध्ययन का पर्याप्त विकास हुआ था। इसका प्रमाण इस बात से मिलता है कि पाणिनि ने प्रत्यय, अव्ययीभाव बहुव्रीहि, कृत, तद्धित प्रथमा, द्वितीया, षष्ठी आदि पारिभाषिक शब्दों के प्रयोग बिना अर्थ बताए ही किये हैं। दूसरे यास्क के बाद सीधे पाणिनि इतने उच्च कोटि के व्याकरण की रचना नहीं कर पाते यदि उनके पीछे एक परंपरा की साधना नहीं रहती। पाणिनि के पूर्व के व्याकरण-संप्रदाय के जनक आपिशालि तथा काशकृत्स्न माने जाते हैं। स्वयं मैक्समूलर ने पाणिनि के पूर्व के लगभग पैंसठ व्याकरणचार्यों के नाम गिनाये हैं। काशिका में काशकृत्स्न-व्याकरण के संबंध में उल्लेख मिलता है कि वह सूत्रों में था और उसमें तीन
अध्याय थे (त्रिक काशकृत्स्नम)
8. ऐन्द्र संप्रदाय-इस संप्रदायके प्रवर्तक कोई इन्द्र ऋषि माने जाते हैं । तैत्रिरीय संहिता के अनुसार ये ही प्रथम वैयाकरण थे। यह संप्रदाय पाणिनि के पूर्व का है। पाणिनि के बाद के वैयाकरण कात्यायन इसी संप्रदाय के हैं। इस संप्रदाय का प्रभाव और प्रचार दक्षिण भारत में अधिक था। डॉ० बर्नेल के अनुसार दक्षिण के प्राचीनतम वैयाकरणों में से एक ‘तोल्कधियम’ पूर्णतः इसी आधार पर बना है।
9. पाणिनि-विश्व के संभवतः पहले बड़े वैयाकरण पाणिनि को आहिक, शालंकि, दाक्षीपुत्र तथा शालातुरीय नामों से भी जाना जाता है। डॉ० बेलवेकर ने सभी महत्त्वपूर्ण मतों की परीक्षा करते हुए पाणिनि का काल 700 ई० पूर्व के समीप माना है। डॉ० वासुदेव शरण अग्रवाल उन्हें 500 ई० पूर्व का मानते हैं।
अष्टाध्यायी : पाणिनि की अष्टाध्यायी में आठ अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय में चार पाद हैं और प्रत्येक पाद
में अनेक सूत्र हैं। सब मिलाकर सूत्रों की संख्या लगभग चार हजार हैं। पूरी पुस्तक 14 सूत्रों (अइउण, ऋलृक, एऔङ, ऐओच, हयवरट, लणज्मङनम्, झभत्र, धठभए, जबगडदश्, खफछठचटतव कपय, शषसर, हल्) पर, जिन्हें माहेश्वर सूत्र भी कहते हैं, आधारित है। संक्षेप में कहने के लिय प्रत्याहार गण आदि का सहारा लिया गया है।
अष्टाध्यायी की विशेषताएँ-
(1) इन 14 सूत्रों के आधार पर संस्कृत भाषा-जैसी जटिल भाषा को थोड़े पृष्ठों में इस खूबी से पाणिनि ने बाँधा है कि आज तक लगभग ढाई हजार वर्षों बाद भी वह टस से मस नहीं हो सकी है।
(2) सभी शब्दों को कुछ धातुओं पर आधारित किया गया है। ये धातुएँ किसी क्रिया का भाव प्रकट करती हैं। इन्हीं से उपसर्ग तथा प्रत्यय आदि की सहायता से अनेक शब्द बना लिये जाते हैं ।
(3) भाषा का आरंभ वाक्यों से हुआ है, यह उल्लेख भी पहली बार यहीं हुआ है। इसके अनुसार भाषा में वाक्य ही प्रधान है।
(4) नाम आख्यात आदि चार भेदों (यास्क के) को न स्वीकार कर पाणिनि ने शब्द को सुबन्त (अव्यय भी सुबन्त है-अष्टा 2-4-82) और तिङन्त इन दो श्रेणियों में विभक्त किया। आज तक विश्व में शब्दों के जितने भी विभाजन किये गये हैं उनमें यह सबसे अधिक वैज्ञानिक है।
(5) ध्वनियों का स्थान और प्रयल के अनुसार वैज्ञानिक वर्गीकरण जो इसमें हैं ध्वनि-विज्ञान की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है।
(6) लौकिक और वैदिक संस्कृत का तुलनात्मक अध्ययन भी इसको सबसे बड़ी विशेषता है। संक्षेप में ‘अष्टाध्यायी’ में अर्थ, ध्वनि और तुलनात्मक व्याकरण की सामग्री समय को देखते हुए आश्चर्य उत्पन्न कर देने वाली है। पाणिनि ने सहायक ग्रंथ के रूप में भी कुछ अन्य ग्रंथ लिखे: धातु पात, जिसमें धातुओं की सूची है और धातुओं को गणों में विभाजित किया गया है। गणपाठ में एक गण में आए
धातुओं का रूप एक प्रकार से चला है; उणादिसूत्र जिसमें पारिभाषिक शब्द उदात्त, उपधा और लोप है। अस्तु-पाणिनि का प्रभाव पराकाष्ठा पर है।
10. कात्यायन-कात्यायन का ‘वार्तिक’ प्रामाणिक है । पाणिनि के कुछ समयातीत हो गये सूत्रों को ठीक करने के लिये कात्यायन ने ‘वार्तिक’ की रचना की। कुल मिलाकर इसमें चार हजार वार्तिक हैं।
11. पतंजलि-इनका समय ईसा के एक सौ पचास वर्ष पूर्व माना जाता है। पंतजलि का महाभाष्य’ भी आठ अध्यायों में बाँटा है। प्रत्येक अध्याय में चार पाद हैं और प्रत्येक पाद कुछ आह्रिमों में विभक्त हैं। महाभाष्य का महत्त्व भाषा संबंधी कुछ विवेचनाओं के लिये अधिक है। इसमें भाषा का दार्शनिक विवेचन बहुत ही सुंदर है। ध्वनि और अर्थ के संबंध वाक्य के विभिन्न भाग, शब्द तथा ध्वनि की परिभाषा आदि पर भी बहुत वैज्ञानिक ढंग से प्रकाश डाला गया है।
इनके अलावा पाणिनि शाखा के अन्य वैयाकरण हैं कात्यायन और पतंजलि की मौलिक उद्भावनाओं को स्पष्ट करने के लिये सांख्यातीत टीकाएँ लिखी गयीं, जैसे जयादित्य तथा वामन (6ठीं शती पूर्वार्द्ध), जिनेन्द्र मुनि, हरदत्त (12वीं सदी), भर्तृहरि (9वीं सदी) शृंगार, नीति और वैराग्य शतक के रचयिता ही वैयाकरण भी थे, कहना कठिन है। इनकी प्रसिद्ध पुस्तक वाक्पदीयम है। कय्यक (11वीं सदी) कौमुदीकार, विमल सरस्वती, रामचन्द्र (15 वीं सदी) भट्टोजि दीक्षित (17वीं सदी) वरदराज (18वीं सदी) तथा व्याकरण की पाणिनीतर शाखाओं में शाकटायन प्रातिशाख्यकर्ता, यास्क वगैरह थे। फिर चान्द्र शाखा, जैनेन्द्र शाखा, शाकटायन शाखा, हेमचन्द्र शाखा, कातंत्र शाखा, सारस्वत शाखा, बोपदेव शाखा शेष शाखाएँ पाली, कच्चायण, मोग्गलान अग्गवंस, प्राकृत की प्रतीच्य शाखा, प्राच्य शाखा, वररुचि (पाँचवीं सदी) आदि हैं।
व्याकरणेतर ग्रंथों में भाषा विषयक अध्ययन भी हुए हैं। जैसे नैयायिकों ने भाषा के मनोवैज्ञानिक पक्ष की ओर ध्यान दिया था। इससे अर्थ-विज्ञान पर कुछ प्रकाश पड़ता है। इस दृष्टि से जगदीश तर्कालंकार का ‘शब्द-शक्ति प्रकाशिका’ ग्रंथ महत्त्वपूर्ण है।
कुछ साहित्यकों ने रीति या काव्यशास्त्र का विवेचन करते हुए भाषा के अर्थ-पक्ष का सुंदर विवेचन किया है। ऐसों में ध्वन्यालोक, साहित्य दर्पण, काव्य प्रकाश, चन्द्रालोक आदि के रचयिता प्रधान हैं। मीमांसकों ने भी शब्द-स्वरूप, शब्दार्थ, वाक्य तथा वाक्यार्थ पर विचार किया है।
वास्तव प्राचीन काल में रूप, वाक्य, ध्वनि और अर्थ-प्रत्येक दृष्टि से आधुनिक दृष्टिकोणों के अभाव में भी पर्याप्त कार्य हुए थे। सुतरां इस क्षेत्र में भी भारत संसार के अन्य देशों से बहुत आगे था।
आधुनिक अध्ययनः
यह तथ्य है कि भारतवर्ष में भाषा-विज्ञान का आधुनिक रूप में अध्ययन यूरोप के संसर्ग के कारण ही आरंभ हुआ। पहले-पहल उन्हीं लोगों ने इसका आरंभ किया था। अतः इस कार्य का श्रेय उन्हें ही दिया जाना चाहिए।
1. विशप काल्डवेल (1814-1891)- इन्होंने द्रविड भाषाओं का गहन अध्ययन कर ‘द्रविड भाषाओं का तुलनात्मक व्याकरण, प्रकाशित किया, जो डेढ सौ वर्षों बाद भी अपने क्षेत्र का एकल ग्रंथ है।
2. जान बीम्स-1857 में बीम्स सिविल सर्विस में यहाँ आए थे। यहाँ रहकर उन्होंने भारतीय भाषाओं का अध्ययन किया और दस वर्षों बाद ‘आउटलाइन ऑफ इंडियन फिलोलाजी’ नामक ग्रंथ प्रकाशित किया । इनकी प्रसिद्ध पुस्तक है, भारतीय आर्य भाषाओं का तुलनात्मक व्याकरण ।’ इसमें आर्य परिवार की सभी भाषाओं (सिंधी, पंजाबी, हिंदी, गुजराती, मराठी तथा उड़िया) के व्याकरणों का तुलनात्मक ढंग से ऐतिहासिक अनुशीलन किया है।
3. डी० ट्रम्प-ट्रम्प संस्कृत, प्राकृत, सिंधी तथा पश्तो भाषाओं के विद्वान थे। इन्होंने सिंधी व्याकरण तथा पश्तो व्याकरण लिखे।
4. एच० एच० केलॉग-1876 में इन्होंने ‘हिंदी भाषा का व्याकरण’ नामक पुस्तक का प्रकाशन किया था। इसमें तुलनात्मक ढंग से ब्रज, अवधी, राजस्थानी, पहाड़ी तथा बिहारी आदि की भी सामग्री दी गई है।
5. डॉ० सर रामकृष्ण गोपाल भंडारकर-भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में आधुनिक काल में काम करने वाले ये प्रथम भारतीय हैं। भंडारकर ने प्राचीन भारतीय भाषा-विज्ञान के साथ-साथ नवीन यूरोपीय भाषा-विज्ञान का भी अध्ययन किया था।
6. डॉ० ए० रूडल्फ हार्नली (1841-1918)-रॉयल एसियाटिक सोसायटी पत्रिका के संपादक रह चुके हार्नली ने पूर्वी हिंदी का तुलनात्मक व्याकरण प्रकाशित किया जिसमें प्रमुख ध्यान भोजपुरी पर है।
7. जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन-बिहार में काम करते हुए इन्होंने अपने अतुल भाषिक कार्य का प्रमाण दिया। बिहारी भाषाओं का अध्ययन किया । ‘बिहारी भाषाओं के सात व्याकरण’ 1883 से 1887 तक में प्रकाशित कराए। 1894 में भारतीय भाषाओं का सर्वे प्रकाशित किया जो ग्यारह मोटी-मोटी जिल्दों में है। यह भारतीय आर्य भाषाओं का प्रामाणिक इतिहास है।
8. रेल्फ लिले टर्नर सन् 1931 में उन्होंने अपना, नेपाली कोश, प्रकाशित किया । पुस्तक दो सौ बारह भाषाओं के आधार पर तैयार की गयी है। मराठी स्वराघात, गुजराती ध्वनि तथा सिंधी पर भी काम किया है। भारतीय आर्य भाषाओं का तुलनात्मक व्युत्पति-कोश (तत्सम तद्भव शब्दों का) उनकी महत्त्वपूर्ण देन है।
9. जूल ब्लॉक-इनका प्रसिद्ध ग्रंथ, मराठी की बनावट 1911 में प्रकाशित हुआ था। इन्होंने द्रविड़ तथा द्रविडों और आर्यों के पूर्व की भारतीयों की भाषा आदि के संबंध में काम किया है।
इनके अलावा मूल भारोपीय भाषा पर टर्नर तथा डॉ० सुनीति कुमार चटर्जी के नाम उल्लेख्य हैं। संस्कृत, पाली, प्राकृत तथा अपभ्रंश पर काम करने वालों ने जहाँ यास्क के निरुक्त पर, वेदों पर, ध्वनि-विज्ञान पर, महाभारत की कुछ क्रियाओं पर, अर्थ-विचार पर तथा संस्कृत व्याकरण के दर्शन पर, अर्थ-विज्ञान और व्याकरण-दर्शन पर तथा अन्य कई महत्त्वपूर्ण भाषिक उपपत्तियों पर कार्य किये हैं।
तारपुरवाला, पूनावाला, कागा, कपाडिया तथा सुकुमार सेन ने ‘अवेस्ता’ आदि पर कार्य किया है। डा.
सुनीतिकुमार चटर्जी ने ‘बंगला भाषा की उत्पत्ति और विकास’ नामक पुस्तक में वर्तमान भारतीय आर्य भाषाओं पर विश्व कोशीय कार्य किया है। बंगला भाषा के विविध पक्षों पर अनेक भाषाविदों ने गम्भीर कार्य किये हैं। उड़िया भाषा के इतिहास पर पंडित विनायक मिश्र का, ओडिया भाषार इतिहास, शीर्षक ग्रंथ प्रसिद्ध है। इसके अलावा ओड़िया कोश, ओडिया भाषा तत्त्व, तथा सरल भाषा तत्व नामक पुस्तकों के प्रकाशन से इस क्षेत्र में विशद् जानकारी प्राप्त हुई है।
नेपाली, असमिया, सिंधी, मराठी, गुजराती, द्रविड, सिंहली-जैसी भाषाओं पर भी यथेष्ठ कार्य हुए हैं। असमी में बालीकान्त काकाती का असमी का स्वरूप और विकास, नामक पुस्तक महत्त्वपूर्ण है। बनारसी दास ने पंजाबी ध्वनियों पर काम किया है। प्यारा सिंह पदम का ‘पंजाबी बोली दा इतिहास’ तथा प्रो० प्रेम प्रकाश सिंह का ‘पंजाबी बोली दा विकास ते विकास’ सुंदर ग्रंथ हैं।
मराठी का “तौलनिक व्युत्पत्ति कोश”, “मराठी ध्वनिका रूप विवेचन”, “कोंकणी की बनावट”, “आधुनिक मराठी चे उच्चतर व्याकरण” तथा कुलकर्णी का “मराठी भाषाः उद्गम व विकास” शीर्षक पुस्तकें महत्त्व की हैं।
गुजराती में ग्रियर्सन का “गुजराती भाषा” टर्नर का “गुजराती फोनोलॉजी”, “हिस्ट्री ऑफ द गुजराती लैंग्वेज”, “गुजराती लैंग्वेज एंड लिटीचर” “आपणा कविओं”, “शब्द अने अर्थ”, (अर्थविज्ञान विषयक ग्रंथ)”, गुजराती भाषानी उत्कान्ति” तथा “गुजराती भाषा शास्त्र विकासिनी रूपरेखा’ भाषा विषयक कार्य के प्रसिद्ध ग्रंथ हैं।
अन्य लोगों में नरसिंह चार (कन्नड़), रामकृष्ण (तमिल, अमृत राव (तमिल), नीलकंठ शास्त्री (तमिल), रामास्वामी अय्यर (मलयालम) चंद्रशेखर (मलयालम) सभी भाषाविद् अपने-अपने महत्त्वपूर्ण कार्यों के लिये ख्यात हैं।
हिंदी व उसकी बोलियों या रूपों के संबंध में कार्य करने वाले कुछ प्रमुख व्यक्ति ये हैं: हिंदी-बीम्स, केलॉग, ग्रियर्सन, श्यामसुंदर दास, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, पदमसिंह शर्मा, सुनीति कुमार चटर्जी, धीरेन्द्र वर्मा, कामता प्रसाद गुरू विश्वनाथ प्रसाद, उदयनारायण तिवारी, जहाँगीरदार, चन्द्रबली पांडेय, रामचन्द्र वर्मा, हरदेव बाहरी, किशोरी दास वाजपेयी, भोलानाथ तिवारी, कैलाश चंद्र भाटिया, रमेश चंद्र मेहरोत्रा, दयानन्द श्रीवास्तव, रवीन्द्र नाथ श्रीवास्तव तथा अनंत लाल चौधरी के नाम लिये जा सकते हैं।
इसके अलावा उर्दू, हिन्दुस्तानी, पूर्वी हिन्दी, बिहारी, ब्रज, बुंदेली, अवधी, भोजपुरी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी, कोरेठी, बाँगरू, दक्खिनी तथा मैथिली पर भाषातात्त्विक अध्ययन का एक लम्बा सिलसिला रहा है।
इस तरह भारतीय भाषा विज्ञान के क्षेत्र में काम हुए हैं अथवा हो रहे हैं, उनमें प्रमुखतया तीन धाराओं के हैं:
(1) पूरा अध्ययन ‘भाषाओं, बोलियों, किसी काल की भाषा, किसी कवि या लेखक की भाषा तथा किसी रचना की भाषा का अध्ययन;
(2) ध्वनि-ध्वनि, ध्वनिग्राम, व्यंजन-गुच्छ, बलाघात, सुर-लहर, संगम, आक्षरिक रचना
आदि का अध्ययन
(3) रूप-प्रत्यय, उपसर्ग, समास, कारक रूप, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया, अव्यय का अध्ययन;
(4) वाक्य-वाक्य की रचना का अध्ययन,
(5) शब्द बोलियों की औद्योगिक एवं सांस्कृतिक शब्दावली का अध्ययन, भाषा या बोली के शब्द समूह का अध्ययन, अन्य भाषा के विदेशी प्रभावों का अध्ययन । पारिभाषिक शब्द निर्माण तथा एकभाषिक द्वैभषिक कोश-रचना आदि;
(6) अर्थ-अर्थ- परिवर्तन एवं अर्थपरक अंतर की दृष्टि से अध्ययन, शब्दों का अध्ययन ।
(7) मुहावरों-लोकोक्तियों का अध्ययन । ये अध्ययन ऐतिहासिक दिशा में अधिक
हुए हैं। यह सिलसिला अनवरत चल रहा है। हालाँकि अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है।
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