भारतीय मंदिर आस्था एवं समृद्ध वास्तुकला के प्रतीक

भारतीय मंदिर आस्था एवं समृद्ध वास्तुकला के प्रतीक

                   भारतीय मंदिर आस्था एवं समृद्ध वास्तुकला के प्रतीक

मन्दिर वह स्थान है, जहाँ किसी देवता की मूर्ति को प्रतिष्ठित कर पूजा अर्चना की जाती है. हिन्दू वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण हिन्दू मन्दिरों के रूप में देखने को मिलता है. गुप्तोत्तर काल में मंदिर का निर्माण बड़ी संख्या में होने लगा था.
जनसाधारण में मूर्तिपूजा तथा भक्ति आन्दोलन की लोकप्रियता के साथ ही मंदिरों की संख्या में वृद्धि हुई. इस भक्ति आन्दोलन में शैव और वैष्णव सम्प्रदाय का प्रमुख योगदान था. उत्तर और दक्षिण भारत में जिन सैकड़ों मंदिरों का निर्माण हुआ, वे सभी कला की दृष्टि से उच्चकोटि के हैं तथा अनेक धार्मिक गूढ रहस्यों का आत्म- सात् किए हुए हैं. दक्षिण में मंदिरों ने सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में भी महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाई हैं.
       मंदिरों के निर्माण में वास्तुविदों द्वारा अनेक प्रकार की शैलियों का प्रयोग किया गया है. इन शैलियों में तीन प्रमुख हैं―
(1) नागर शैली–उत्तर भारत में विन्ध्य पर्वत तक के में प्रचलित.
 
(2) बेसर शैली–विन्ध्य से कृष्णा नदी के बीच के क्षेत्र में प्रचलित.
 
(3) द्रविड़ शैली–कृष्णा नदी के दक्षिण में कन्याकुमारी तक प्रचलित.
 
(1) नागर शैली
गुप्तकाल का दशावतार मंदिर (देवगढ़ झाँसी) नागर शैली का प्रारम्भिक उदाहरण है. इसका एक विशिष्ट शैली के रूप में आठवीं सदी तक विकास हो चुका था. नागर शैली की मुख्य विशेषताएं हैं–
(i) ये मंदिर वर्गाकार होते हैं और प्रत्येक भुजा के बीच से प्रक्षेप निकलकर
क्रमशः ऊपर तक चला जाता है.”
 
(ii) उठानी में एक-एक शिखर होता है, जो ऊपर तक जाते हुए वक्र का रूप ले लेता है.
 
(iii) शीर्ष भाग में गोलाकार आमलक और कलश होता है.
नागर शैली में प्रादेशिक विभिन्नताएं भी दिखाई देती हैं. वर्गाकार और ऊपर की ओर वक्र होते हुए शिखर इन मंदिरों की मुख्य विशेषताएं हैं. इसके विपरीत विड़ शैली के मंदिर आयताकार तथा इनके शिखर पिरामिड के आकार के हैं. यह शिखर आयताकार गर्भगृह की तरह के अनेक खण्डों से बनाया जाता है. गर्भगृह के चारों ओर छत से ढका हुआ गलियारा होता है, जिसे प्रदक्षिणा पथ कहते है. नागर शैली में प्रदक्षिणा पथ छत से ढका नहीं होता है.
        पूर्व मध्यकाल में बने उडीसा (ओडिशा) के मंदिर विशुद्ध नागर शैली का प्रतिनिधित्व करते हैं. इनमें भुवनेश्वर का लिंगराज मन्दिर, पुरी का जगन्नाथ मंदिर और कोणार्क का सूर्य मंदिर तेरहवीं सदी का है. यह पूर्वी वास्तुकला की महान् उपलब्धि है. इस मंदिर को रथ का रूप दिया गया है.
        नागर शैली के अन्य मन्दिरों में खजुराहो का मंदिर प्रसिद्ध है, जिन्हें चन्देल राजाओं ने 10वीं और 11वीं सदी में बनाया था. खजुराहो के शैव, वैष्णव, शक्ति एवं जैन मंदिरों चित्रकूट, जगदम्बा, विश्वनाथ, कंदारिया महादेव तथा पार्श्वनाथ के मन्दिर महत्वपूर्ण हैं.
          ओडिशा तथा मध्य प्रदेश के दोनों जगहों के मंदिरों की एक विशेषता यह है कि मंदिर की बाहरी दीवारों पर विभिन्न आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं, जैसे-फूल-पत्तियाँ, पशु, देव-दानव स्त्री, पुरुष आदि. अधिकांश आकृतियाँ स्त्री-पुरुष की हैं. कुछ विद्वानों के अनुसार वे कामसूत्र में वर्णित कामपरक विषयों का चित्रण करती है. अन्य विद्वानों के अनुसार वे तान्त्रिक पद्धति से सम्बन्धित धार्मिक क्रियाओं का चित्रण करती हैं. खजुराहो के एक मंदिर में एक स्थल पर पत्थर ढोने वाले श्रमिक और पत्थर उत्कीर्ण करने वाले शिल्पकारों का भी चित्रण है, जिनके परिधान अत्यन्त सादे हैं।
        राजस्थान में जोधपुर में ओसियां नामक गाँव में नागर शैली के अनेक मंदिर हैं. पश्चिम भारत के मंदिरों की निर्माण शैली का चरमोत्कर्ष दिलवाड़ा का जैन मंदिर है. ये दोनों मंदिर सफेद संगमरमर से बने हैं. ये मंदिर बाहर से सादे हैं, लेकिन अन्दर से अत्यन्त ही अलंकृत हैं.
 
(2) बेसर शैली
10वीं सदी के उत्तरार्द्ध में प्रचलन में आने वाली बेसर नामक मिश्रित स्थापत्य शैली विन्ध्य पर्वत के कृष्णा नदी तक के क्षेत्र की विशेषता थी. बेसर शैली को चालुक्य शैली भी कहा जाता है. यह मुख्यतः द्रविड़ शैली की स्थापत्य का परिवर्तित रूप है. सातवीं-आठवीं सदी में एहोल तथा पटदकल नामक स्थानों में नागर और द्रविड़ दोनों शैलियों के मिलन से एक नवीन शैली का विकास हुआ.
        बेसर स्थापत्य में मूल नियोजन द्रविड़ शैली का होता है, लेकिन इसमें विद्यमान अलंकरण नागर शैली से प्रभावित है. द्रविड़ शैली की भाँति इसमें भी विमान (शिखर) मंडप और कुछ उदाहरणों में एक अतिरिक्त खुले मंडपों का नियोजन होता है. मंडप की छत स्तम्भों पर आधारित होती है. नागर शैली का दूसरा लक्षण प्रदक्षिणा पथ का छत विहीन होना है. मंदिर की बाहरी दीवार पर रथों का नियोजन भी नागर शैली का परिचायक है. होयसल शासकों के काल में तारा के आकार में मदिरों का नियोजन प्रचलित हुआ कुछ चालुक्य मदिरों के मुख्य मंडप में दीवारें भी हैं.
          बेसर शैली के मंदिर निम्नलिखित हैं–प्राचीन हैदराबाद में कूकानड का बालेश्वर मन्दिर, धारवाड़ जिले में लक्कुनड़ी नामक जैन मन्दिर तथा मुक्तेश्वर, सिद्धेश्वर, सोमेश्वर, सिद्ध रामेश्वर आदि जैसे मदिर. 
            12वीं सदी में बेसर शैली का पूर्ण विकसित रूप प्राप्त होता है. 12वीं सदी के पूर्वार्द्ध में प्राचीन हैदराबाद राज्य में इतग्गी नामक स्थान में निर्मित महादेव मंदिर तथा 12वीं सदी के उत्तरार्द्ध में लकुन्नड़ी में काशी विशेश्वर मंदिर बेसर स्थापत्य के पूर्ण रूप प्रस्तुत करते हैं.
 
(3) द्रविड़ शैली
सुदूर दक्षिण के तमिल प्रदेश में जिसे प्राचीनकाल में दविड देश कहा जाता था, द्रविड शैली की स्थापना पल्लव नरेशों के शासनकाल में हुई इस शैली की प्रमुख विशेषता है-मुख्य प्रतिमा कक्ष (गर्भगृह) के ऊपर एक के ऊपर एक मंजिलों का निर्माण होना. इन मंजिलों की संख्या 3 से 7 तक होती है. ये एक विशिष्ट शैली में पिरामिड आकार के बने हैं, जिन्हें विमान कहते हैं. प्रायः प्रतिमा कक्ष के सामने मंडप नामक एक बड़ा कक्ष होता है, जिसकी समतल छत अलंकृत स्तम्भों पर टिकी होती है. मंडप में सभाएं होती हैं, जहाँ अनेक तरह के क्रियाकलाप होते थे, जिनमें देव दासियों का अनुष्ठानिक नृत्य भी शामिल था. भक्तों की परिक्रमा करने के लिए गर्भगृह के चारों ओर एक गलियारा बना होता है, जिसे प्रदक्षिणा पथ कहते हैं, इस गलियारे में अनेक देवताओं की प्रतिमाएं रखी जा सकती है. समग्र दाँचा एक प्रागण के अन्तर्गत ऊंची दीवारों से घिरा होता है, जिसे गोपुरम कहा जाता है. समय के साथ विमान और ऊँचे बनते गए, प्रांगणों की संख्या बढ़कर दो या तीन हो गई और गोपुरम अधिकाधिक अलंकृत होते गए. मंदिर के खर्च के लिए राजस्व मुक्त भूमि की सुविधा थी. समृद्ध व्यापारियों से उन्हें अनुदान और प्रचुर चन्दा मिलता था. फलतः कुछ मन्दिर इतने समृद्ध हो गए कि वे व्यापार के क्षेत्रों में ऋण देने और व्यापारिक कार्यों में सहायता देने का कार्य करने लगे.
         8वीं सदी में बना द्रविड शैली का प्रारम्भिक उदाहरण कांचीपुरम का कैलाश मंदिर है. इस शैली का उत्कृष्ट उदाहरण 11वीं सदी में चोल शासक राजाराम द्वारा बनवाया गया. तंजौर का वृहदेश्वर या राजराजेश्वर मंदिर है. 11वीं सदी में ही राजेन्द्र चोल के द्वारा बनवाया गया. गंगइकोण्डचोलपुरम का मंदिर द्रविड़ शैली का एक अन्य उत्कृष्ट उदाहरण है. दक्षिण भारत के अन्य स्थलों में भी चोलों के अधीन बड़ी संख्या में मंदिरों का निर्माण हुआ.
      चोल साम्राज्य के पतन के बाद चालुक्य और होयसल राजाओं के काल में भी मंदिर निर्माण जारी रहा. धारवाड जिला और होयसलों की राजधानी हेलेबिड में बड़ी संख्या में मंदिर हैं. इनमें सबसे अधिक भव्य होयसलेश्वर का मंदिर है. यह चालुक्य शैली का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है. इस मंदिर में देवी-देवताओं की मूर्तियों के अतिरिक्त अनेक सेवकों और स्त्री-पुरुष की प्रतिमाएं भी हैं. मंदिरों की दीवारों पर व्यस्त जीवन के चित्र उत्कीर्ण हैं, जिनमें नृत्य, संगीत, युद्ध और प्रणय के दृश्य शामिल हैं. इस प्रकार यह स्पष्ट है कि तत्कालीन जीवन पूर्ण रूप से जुड़ा था. जनसाधारण के लिए मंदिर मात्र एक पूजा-स्थल नहीं था, बल्कि वह सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन का केन्द्र भी था.
 
              मंदिरों का समाज पर प्रभाव
 
मंदिरों ने सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. मठ और मन्दिर भक्ति भावना और विचारधारा के संस्थानिक आधार थे. मंदिरों का अस्तित्व सामंती वातावरण के अनुकूल था, क्योंकि मठाधीशों और पुरोहितों से राजाओं को प्रजा पर शासन करने में सहायता मिलती थी. इस दृष्टि से पूर्व मध्यकाल में मठाधीशों और राजगुरुओं ने वही भूमिका निभाई, जो प्राचीनकाल में वैदज्ञ (वेदों के जानकार) ब्राह्मणों और पुरोहितों ने निभाई थी.
       मंदिरों को विभिन्न प्रकार के दान एवं अनुदान प्राप्त होते थे. मंदिरों को गाँव भी दान में मिलते थे. गाँवों से प्राप्त होने वाले अन्य कर भी मंदिर की सम्पत्ति हो जाती थी. ये कर जब मंदिर को हस्तांतरित किए जाते थे, तो इसके साथ राजसत्ता का कुछ अंश भी मंदिरों को प्राप्त हो जाता था. उन्हें शासन तथा दण्ड सम्बन्धी करों को वसूलने का अधिकार मिल गया. केन्द्रीय सत्ता के कमजोर होने पर मंदिरों को प्राप्त इन अधिकारों ने ही सामंती व्यवस्था को जन्म दिया. इस तरह से मंदिर राजनीतिक व्यवस्था का केन्द्र बन गए.
          मंदिरों में संचित अतुल धनराशि के सम्बन्ध में कहा गया है कि इस धन के उपयोग की कोई निश्चित योजना नहीं थी. पूजा के धार्मिक उत्सव आदि परम्परागत कार्यों पर व्यय करने के अलावा अन्य समाज-हित के कार्यों या देश-रक्षा के कार्यों पर यह धन खर्च नहीं होता था. इस अतुल धनराशि ने विदेशी आक्रमणकारियों की धन-लिप्सा को उभारा.
       दक्षिण भारत के मंदिर शिक्षा के केन्द्र भी थे. मंदिर को मिले भूमिदान से विद्यार्थियों की पढ़ाई का खर्च चलता था. शिक्षकों को भूमि के रूप में वेतन मिलता था. इसके लिए पृथक् भूमि निर्धारित होती थी. इन विशाल मंदिरों ने कला को भी प्रोत्साहन दिया. विशाल मंदिरों का निर्माण कार्य अनेक वर्षों तक चलता रहता था. इससे अनेक वास्तुकलाविदों और शिल्पियों को आजीविका मिलती थी. मंदिर ने नाट्य और संगीत कला को प्रोत्साहन प्रदान किया. चोल और पाण्डय अभिलेखों से पता चलता है कि मंदिर के मंडप में महाभारत से सम्बद्ध पौराणिक घटनाओं को अभिनीत किया जाता था. इसी मंडपों में रामायण और महाभारत का पाठ होता था और अलवार तथा नयनार संतों के भक्ति-भजनों का गायन भी, इस प्रकार जनसाधारण को सांस्कृतिक परम्परा का ज्ञान कराया जाता था.

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