भारत में भक्ति आंदोलन

भारत में भक्ति आंदोलन

                    भारत में भक्ति आंदोलन

● सूफी आन्दोलन की अपेक्षा भक्ति आन्दोलन अधिक प्राचीन है. भक्ति का
सर्वप्रथम उल्लेख श्वेताम्बर उपनिषद् में मिलता है, भक्ति आन्दोलन एक
सुधारवादी और समतावादी आन्दोलन था. भक्ति की अवधारणा का स्वरूप
एकेश्वरवादी था.
 
● भक्ति से तात्पर्य ईश्वर एवं व्यक्ति के मध्य रहस्यवादी सम्बन्ध पर बल देता
है. भक्ति संतों के अनुसार व्यक्ति को ईश्वर की अनुभूति प्राप्ति, ज्ञान एवं
कर्म से नहीं, बल्कि व्यक्तिगत आस्था एवं प्रार्थना से ही सम्भव है.
 
● भक्ति आन्दोलन की शुरूआत दक्षिण भारत में 7वीं-8वीं शताब्दी के मध्य
प्रारम्भ हुई इस आन्दोलन के प्रथम प्रचारक शंकराचार्य थे. भक्ति आन्दोलन
को अलवर तथा नायनार सन्तों ने लोकप्रिय बनाया. ये संत सभी जातियों
के थे, जिनमें पुलैया और पनार जैसी अस्पृश्य समझी जाने वाली जातियों के
लोग भी शामिल थे. वे बौद्धों और जैनों के कटु आलोचक थे और शिव तथा
विष्णु के प्रति सच्चे प्रेम को मुक्ति का मार्ग बताते थे.
 
भक्ति आन्दोलन के कारण
(1) मुस्लिम शासकों के बर्बर शासन से कुंठित एवं उनके अत्याचारों से त्रस्त हिन्दू
जनता ने ईश्वर की शरण में अपने आपको अधिक सुरक्षित महसूस कर भक्ति मार्ग का
सहारा लिया.
 
(2) मुस्लिम शासकों द्वारा आए दिन मूर्तियों को नष्ट एवं अपवित्र कर देने के
कारण बिना मूर्ति एवं मन्दिर के ईश्वर की आराधना के प्रति लोगों का झुकाव बढ़ा
जिसके लिए उन्हें भक्ति मार्ग का सहारा लेना पड़ा.
 
(3) शंकराचार्य का ज्ञान मार्ग व अद्वैतवाद अब साधारण जनता के लिए
बोधगम्य नहीं रह गया था.
 
(4) सूफी-सन्तों की उदार एवं सहिष्णुता की भावना तथा एकेश्वरवाद के प्रति प्रबल
निष्ठा ने हिन्दुओं को प्रभावित किया, जिस कारण से हिन्दू, इस्लाम के सिद्धान्तों के
निकट सम्पर्क में आए. इन सबका भक्ति आन्दोलन पर गहरा प्रभाव पड़ा.
        मध्यकाल में भक्ति आन्दोलन की शुरूआत सर्वप्रथम अलवर भक्तों द्वारा की
गई. दक्षिण भारत से उत्तर भारत में बारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में रामानन्द द्वारा यह
आन्दोलन लाया गया. भक्ति आन्दोलन का महत्वपूर्ण उद्देश्य था- हिन्दू धर्म एवं समाज
में सुधार तथा इस्लाम एवं हिन्दू धर्म में समन्वय स्थापित करना. अपने उद्देश्य में यह
आन्दोलन काफी सफल रहा
 
● भक्ति आन्दोलन के दौरान कुल मिलाकर 63 नयनार ऐसे थे, जो
कुम्हार, अस्पृश्य, कामगार, किसान, शिकारी, सैनिक, ब्राह्मण और मुखिया
जैसी अनेक जातियों में पैदा हुए थे. उनमें प्रसिद्ध थे-अप्पार, संबंदर,
सुंदरार और माणिक्कवसागार. उनके गीतों के दो संकलन हैं तेवरम् और तिरुवाचकम्
 
● अलवर संत संख्या में 12 थे, वे भी भिन्न-भिन्न प्रकार की पृष्ठभूमि से आए
थे. उनमें से सर्वाधिक प्रसिद्ध थे―
पेरियअलवार, उनकी पुत्री अंडाल, तोंडरडिप्पोडी अलवार और नम्मालवार.
उनके गीत दिव्य प्रबंधम में संकलित हैं.
 
भक्ति आन्दोलन के प्रणेता
            शंकराचार्य-इनका जन्म 788 ई.के लगभग कलादी (केरल) में हुआ था. इनके
पिता का नाम शिवगुरु तथा माता का नाम आर्यम्बा था. ये मेधावी प्रकृति के थे. इन्होंने
सात वर्ष की आयु में वेद तथा शास्त्रों का अध्ययन समाप्त कर लिया तथा आठ वर्ष
की आयु में संन्यास ग्रहण कर लिया. काशी पहुँचकर इन्होंने लगभग पचास सम्प्रदायों के
आचार्यों को शास्त्रार्थ में पराजित कर अपनी आध्यात्मिक विजय का डंका बजा दिया.
उन्होंने अपने सिद्धान्तों को मूर्त रूप देने के लिए चार दिशाओं पुरी (पूर्व), द्वारका
(पश्चिम), केदारनाथ (उत्तर) तथा श्रृंगेरी (दक्षिण) में चार मठों की स्थापना की.
             रामानन्द-रामानन्द का जन्म 1299 ई. में इलाहाबाद में हुआ था. वे राघवानन्द के
शिष्य थे. भक्ति आन्दोलन को दक्षिण से उत्तर भारत में लाने का श्रेय रामानन्द को
दिया जाता है. इन्होंने सभी जाति व धर्म के लोगों को अपना शिष्य बनाकर एक तरह से
जातिवाद पर कड़ा प्रहार किया. उनके शिष्यों में कबीर (जुलाहा) सेना (नाई), धन्ना
(जाट), पीपा (राजपूत) व रैदास (चमार) थे. उन्होंने एकेश्वरवाद पर बल देते हुए राम
की उपासना की बात कही. सम्भवतः हिन्दी में उपदेश देने वाले प्रथम वैष्णव संत
रामानन्द ही थे.
 कबीरदास―कबीरदास का जन्म 1440 ई. में वाराणसी में हुआ था. सूरत गोपाल इनका प्रमुख शिष्य था. ये रामानन्द के शिष्य तथा दिल्ली सल्तनत के सुल्तान सिकन्दर लोदी के समकालीन थे. एक महान् समाज सुधारक के रूप में उन्होंने समाज में व्याप्त हर तरह की बुराइयों के खिलाफ संघर्ष किया.
इन्होंने राम, रहीम, हजरत तथा अल्लाह आदि को एक ही ईश्वर के अनेक रूप माना.
इन्होंने जाति प्रथा, धार्मिक कर्मकाण्ड, बाहरी आडम्बर, मूर्तिपूजा, जप-तप, अवतारवाद
आदि का घोर विरोध करते हुए एकेश्वरवाद में आस्था तथा निराकार ब्रह्मा की उपासना
को महत्व दिया. इनके अनुयायियों को कबीरपंथी कहा गया. इसमें हिन्दू व मुस्लिम
दोनों सम्प्रदायों के लोग शामिल थे. कबीर की प्रमुख रचनाओं में साखी, सबद, रमैनी, दोहा,
होली तथा रेखताल प्रमुख हैं. इनकी मृत्यु 1510 ई. में मगहर में हुई थी.
            गुरुनानक-गुरुनानक का जन्म 15 अप्रैल, 1469 ई. को पाकिस्तान में लाहौर
के निकट तलवन्डी (ननकाना) नामक स्थान पर हुआ था. इनके पिता का नाम
मेहता कल्याण दास उर्फ कालू तथा माता का नाम तृप्ता था. सिख पन्त के प्रवर्तक
गुरुनानक ने भी कबीर की भाँति निर्गुण ईश्वर की प्रार्थना का प्रचार किया. उन्होंने
हिन्दू, मुसलमान में ऊँच-नीच का भेदभाव छोड़कर सभी को अपने मत से दीक्षित
किया. उनके उपदेशों को सिख पंथ के पवित्र ग्रंथ ‘गुरुग्रंथ साहब’ में संकलित
किया गया. गुरुनानक ने बाबर से सम्बन्धित ‘बाबरवाणी’ नामक ग्रंथ की रचना की. उनकी
रचना ‘जपुजी’ का सिखों के लिए वही महत्व है, जो हिन्दुओं के लिए गीता का है.
          दादू दयाल इनका जन्म गुजरात के अहमदाबाद में एक जुलाह के यहाँ हुआ था.
कबीर तथा नानक के साथ निर्गुण भक्ति की परम्परा में दादू का महत्वपूर्ण स्थान है.
इनका स्वप्न सभी धर्मों के विपथगामियों को प्रेम और बंधुत्व के एक सूत्र में आबद्ध
करना था, इसके लिए उन्होंने ब्रह्म सम्प्रदाय या परब्रह्म सम्प्रदाय की स्थापना की. दादू
की शिक्षा थी-“विनयशील बनो तथा अहम से मुक्त रहो.” इनके ही समय में निपख
आन्दोलन की शुरूआत हुई.
           सुन्दरदास―इनका जन्म राजस्थान के व्यापारी परिवार में हुआ था. सुन्दरदास दादू 
दयाल के शिष्य, कवि एवं सन्त थे. इनके विचार ‘सुन्दर विलास’ नामक पुस्तक में
मिलते हैं.
         वीरभान–इनका जन्म पंजाब में ‘नारनौल’ के समीप हुआ था. इन्होंने
‘सतनामी सम्प्रदाय’ की स्थापना की. संतनामियों की धर्म पुस्तक ‘पोथी’ थी,
जिसमें उन्होंने जातिवाद एवं मूर्तिपूजा का खण्डन किया.
        चैतन्य महाप्रभु― इनका वास्तविक नाम विश्वम्भर मिश्र था.बंगाल में भक्ति आन्दोलन
के प्रवर्तक चैतन्य महाप्रभु ने सगुण भक्ति मार्ग का अनुसरण करते हुए कृष्ण भक्ति पर
विशेष बल दिया. उन्होंने भी अन्य सन्तों की तरह जाति-पांत एवं अनावश्यक धार्मिक
कुरीतियों का विरोध किया. चैतन्य महाप्रभु ने ‘गोसाई संघ’ की स्थापना की और ‘संकीर्तन
प्रथा’ को जन्म दिया. उनके दार्शनिक सिद्धान्त को अचिंत्य भेदाभेदवाद के नाम से जाना
जाता है.
        बल्लभाचार्य―इनका जन्म 1479 ई. में वाराणसी में उस समय हुआ था जब उनके
पिता लक्ष्मण भटट तेलंगाना से अपने परिवार के साथ काशी की तीर्थयात्रा पर
आए थे. बल्लभाचार्य ने विजयनगर के शासक कृष्णदेव राय के शासनकाल में
वैष्णव सम्प्रदाय की प्रतिष्ठा की. ये श्रीनाथजी के नाम से भगवान कृष्ण की पूजा करते थे.
वल्लभाचार्य शुद्धाद्वैतवाद में विश्वास करते थे. बल्लभाचार्य का दर्शन एक वैयक्तिक
तथा प्रेममयी ईश्वर की अवधारणा पर केन्द्रित है. वे पुष्टिमार्ग और भक्तिमार्ग में
विश्वास करते थे. इन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे जिनमें सुबोधिनी और सिद्धान्त रहस्य
अत्यधिक प्रसिद्ध हैं. बल्लभाचार्य के अनुयायी ‘अष्टछाप’ के नाम से विख्यात हुए.
          निम्बार्काचार्य―निम्बार्काचार्य का जन्म तमिलनाडु के बेल्लारी में हुआ था. इन्हें
‘सुदर्शन चक्र’ का अवतार माना गया है. इन्होंने सनक सम्प्रदाय की स्थापना की तथा
‘द्वैताद्वैतवाद’ नामक दर्शन दिया. इन्होंने कृष्ण को ईश्वर माना है और साथ में राधा
की भी उपासना की.
         माधवाचार्य―माधवाचार्य ने शंकराचार्य और रामानुज दोनों के मतों का विरोध
किया इनका विश्वास द्वैतवाद में था और वे आत्मा व परमात्मा को पृथक्-पृथक् मानते
थे. वे लक्ष्मी नारायण के उपासक थे.
        रामानुज―इनका जन्म तमिलनाडु के पेरम्बदूर नामक स्थान पर हुआ था. इनके
बचपन का नाम ‘लक्ष्मण’ था. इनका दार्शनिक मत विशिष्टाद्वैतवाद तथा सम्प्रदाय
श्रीसम्प्रदाय था. ये सगुण भक्ति में विश्वास करते थे, चोल शासक कुलोत्तुंग द्वितीय से
मतभेद के कारण रामानुज होयसल शासक विष्णुवर्धन के दरबार में चले गए और उन्हें
वैष्णव सम्प्रदाय का अनुयायी बनाया.
         मीराबाई―मीराबाई का जन्म 1498 ई में मेड़ा (मेवाड़) जिले के कुदकी नामक
ग्राम में हुआ था. इनका विवाह सिसोदिया वंश के राणा सांगा के पुत्र भोजराज से
हुआ था. मीराबाई सोलहवीं शताब्दी के भारत की एक महान् महिला सन्त थीं. मीरा
ने अपने काव्य में कृष्ण को प्रेमी, सहचर और अपना पति मानकर चित्रित किया
सूरदास-सूरदास का जन्म 1478 ई में उत्तर प्रदेश में मथुरा के निकट रुनकता
नामक ग्राम में हुआ था, वे बल्लभाचार्य के शिष्य तथा सगुण भक्ति के उपासक थे.
सूरदास को “पुष्टिमार्ग का जहाज़’ कहा जाता है. वे ‘अष्टछाप’ के कवि थे. उन्होंने
ब्रजभाषा में तीन ग्रंथों की रचना की, जो सूरसागर, सूर-सरावली तथा साहित्य
लहरी नाम से जाने जाते हैं. ये अकबर एवं जहाँगीर के समकालीन थे. इनके ग्रंथों में
सूरसागर प्रसिद्ध है, जिसकी रचना जहाँगीर के शासनकाल में हुई थी.
          तुलसीदास―तुलसीदास का जन्म 1523 ई. में उत्तर प्रदेश में बांदा जिले के
राजापुर’ गाँव में हुआ था. वे मुगल बादशाह अकबर के समकालीन थे. वे राम के सगुण
भक्ति के उपासक थे. इन्होंने 1574-75 ई. में ‘रामचरितमानस’ की रचना की, जिसकी
भाषा अवधी थी. इसके अतिरिक्त इन्होंने कई अन्य ग्रंथ- गीतावली, कवितावली,
विनयपत्रिका, बरवै रामायण की रचना की.
          रैदास―रैदास चमार जाति के थे. वे बनारस में मोची का काम करते थे. वे
रामानन्द के बारह शिष्यों में से एक थे. निर्गुण ब्रह्म के उपासक रैदास ने हिन्दू और
मुसलमानों में कोई भेद नहीं माना. इन्होंने अवतारवाद का खण्डन किया तथा ‘रायदासी
सम्प्रदाय’ की स्थापना की.
 
महाराष्ट्र में भक्ति आन्दोलन
           तेरहवीं से सत्रहवीं शताब्दी तक महाराष्ट्र में अनेकानेक संत कवि हुए,
जिनके द्वारा सरल मराठी भाषा में लिखे गए गीत आज भी जन-मन को प्रेरित करते
हैं. उन सन्तों में महत्वपूर्ण थे-जणेश्वर, नामदेव, एकनाथ, तुकाराम और सक्कूबाई
जैसी स्त्रियाँ तथा चोखमेला का अस्पृश्य परिवार, जो महार जाति का था, महाराष्ट्र में
भक्ति पंथ ‘पंढरपुर’ के मुख्य देवता ‘विठोवा’ या विट्ठल’ के मन्दिर के चारों
ओर केन्द्रित था. इस काल के प्रमुख सन्त निम्नलिखित हैं―
          नामदेव―नामदेव का जन्म एक दर्जी परिवार में हुआ था. प्रारम्भ में ये डाकू थे.
उन्होंने मराठी भाषा के माध्यम से न केवल महाराष्ट्र के सन्तों के लिए, अपितु मराठों के
राजनीतिक उन्नयन के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया. नामदेव ने कहा था कि “एक पत्थर
की पूजा होती है, तो दूसरे को पैरों तले रौंदा जाता है. यदि एक भगवान है, तो
दूसरा भी भगवान है.” नामदेव का सम्बन्ध महाराष्ट्र के वारकरी सम्प्रदाय से था.
नामदेव एकेश्वरवाद व कर्मकाण्ड के विरोधी थे.
         एकनाथ―एकनाथ का जन्म पैठन (औरंगाबाद) में हुआ था. ये जाति एवं धर्म
में कोई भेदभाव नहीं करते थे. इन्होंने पहली बार ‘ज्ञानेश्वरी’ का विश्वसनीय संस्करण
प्रकाशित करवाया. इन्होंने ही मराठी भाषा में ‘भावार्थ रामायण’ की रचना की थी.
         ज्ञानेश्वर या ज्ञानदेव महाराष्ट्र के भक्ति आन्दोलन को लोकप्रिय बनाने में
‘ज्ञानेश्वर’ का महत्वपूर्ण स्थान है. इन्होंने मराठी भाषा में भगवतगीता पर ज्ञानेश्वरी
नामक टीका (समीक्षा) लिखी, जिसकी गणना संसार की सर्वोत्तम रहस्यवादी रचनाओं में
की जाती है.
          तुकाराम― तुकाराम शूद्र थे और शिवाजी के समकालीन थे. इन्होंने कभी भी दरबारी
जीवन को स्वीकार नहीं किया. शिवाजी द्वारा दिए गए विपुल उपहारों को भी स्वीकार नहीं
किया. तुकाराम ने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल दिया तथा वारकरी पंथ की स्थापना की.
          रामदास―यह शिवाजी के आध्यात्मिक गुरु थे. इनकी रचना दासबोध है, जिसमें
इन्होंने समन्वयवादी सिद्धान्त के साथ-साथ विविध विज्ञानों एवं कलाओं के अपने
विस्तृत ज्ञान को संयुक्त रूप से प्रस्तुत किया.
           बहिनाबाई―बहिनाबाई महाराष्ट्र की महिला संत थीं. वह तुकाराम को अपना
गुरु मानती थीं.
● इसके अतिरिक्त हेमादि, चक्रधर और रामनाथ आदि की गणना महाराष्ट्र के
प्रसिद्ध सन्तों में की जाती है.
 
अन्य प्रमुख सन्त
          कुछ अन्य धर्म प्रचारक व सुधारक सन्त हुए, जिन्होंने समाज में अपना बहुमूल्य
योगदान दिया. उनका विवरण निम्नवत् है―
       शंकरदेव―यह असोम के महान् धार्मिक सुधारक थे. इन्होंने विष्णु की भक्ति पर बल
दिया और असमिया भाषा में कविताएं तथा नाटक लिखे. इनके द्वारा स्थापित सम्प्रदाय
एक शरण सम्प्रदाय के रूप में प्रसिद्ध है. शंकरदेव मूर्तिपूजा एवं कर्मकाण्ड दोनों के
विरोधी थे. इन्होंने सर्वोच्च देवताओं के महिला सहयोगियों को मान्यता प्रदान नहीं की.
नरसी (नरसिंह) मेहता-नरसी मेहता गुजरात के प्रसिद्ध सन्त थे. इन्होंने राधा
और कृष्ण के प्रेम का चित्रण करते हुए गुजराती भाषा में गीतों की रचना की. ये
गीत ‘सुरत संग्राम में संकलित किए गए हैं. महात्मा गांधी के प्रिय भजन ‘वैष्णव जन तो
तेनो कहिए’ के रचयिता नरसी मेहता ही थे.
 
रोचक तथ्य
● चैतन्य महाप्रभु बंगाल के सूफी संत थे. इन्होंने राधा-कृष्ण के प्रति निष्काम
भक्ति भाव का उपदेश दिया.
 
● मुगल सम्राट् जहाँगीर ने सिख गुरु अर्जुन देव को सम्भावित खतरा
मानकर 1606 ई. में मृत्युदण्ड देने का आदेश दिया, क्योंकि उन्होंने विद्रोही
शहजादे खुसरो की सहायता की थी.
 
● बारकरी सम्प्रदाय पण्ढरपुर के बिट्ठल भगवान के सौम्य भक्तों का सम्प्रदाय
था. यह रहस्यवादियों का सम्प्रदाय था.
 
● धरकरी सम्प्रदाय भगवान राम के भक्तों का सम्प्रदाय था.
 
● दादू दयाल के शिष्य सुन्दरदास रज्जब का कहना था कि “जितने मनुष्य
उतने ही अधिक सम्प्रदाय हैं.”
 
● सुन्दरदास रज्जब ने ही कहा कि “यह संसार वेद है, यह सृष्टि कुरान है.”
 
● चैतन्य महाप्रभु ने सम्पूर्ण भारत की यात्रा की. उन्होंने वृन्दावन में कृष्ण
भक्ति सम्प्रदाय को पुनर्स्थापित किया था.
 
● चैतन्य महाप्रभु के ओडिशा नरेश प्रताप रुद्र गजपति शिष्य थे. उनके संरक्षण
में चैतन्य स्थायी रूप से पुरी में ही रहे और वहीं उनका देहान्त भी हुआ.
 
● भक्ति आन्दोलन को ‘मौन क्रान्ति’ के नाम से जाना जाता है.
 
● व्यवहारवाद का दर्शन रामानन्द से सम्बन्धित है.
 
● इस्लाम धर्म से सबसे अधिक प्रभावित संत नामदेव थे.
 
● महाराष्ट्र की महिला महादम्बा एक रहस्यवादी तथा उच्चकोटि की कवयित्री थीं.
 
● बंगाल के कवि चण्डीदास ने बंगाली भाषा को लोकप्रिय बनाया तथा बंगाल
में सहजिया सम्प्रदाय की स्थापना की.

Amazon Today Best Offer… all product 25 % Discount…Click Now>>>>

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *