भाषा और मनस्तत्व

भाषा और मनस्तत्व

                     भाषा और मनस्तत्व

भाषा और मनस्तत्व का संबंध अत्यंत गहरा और एक अर्थ में अन्योन्याश्रित है। यह कहने में जरा भी
सूक्ष्मतम अत्युक्ति नहीं कि एक के अभाव में दूसरे का अस्तिव्य ही लगभग असंभव है। मनस्तत्व यदि व्यक्तित्व की इकाई है तो भाषा उसकी अभिव्यक्ति का अत्यंत शक्त ध्वन्यात्मक उपकरण ।
 
जीवन और जगत का सम्मिलित प्रभाव अंतश्चेतना में अंततः एक आकारहीन अनुभूति के रूप में व्याप जाता है, और उस आकारहीन अनुभूति को रचना में संप्रेषणीयता से उभारने के लिये भाषा को भी तदनुरूप आकार ग्रहण करना पड़ता है। संभवतः यही कारण है कि ज्यों-ज्यों मनुष्य का ज्ञान जीवन और जगत के संबंध में विस्तृत और व्यापक होता गया त्यों-त्यों शायद देश-काल व पात्र के आधार पर प्रत्येक शब्द के पर्यायों में वृद्धि होती गयी । कहा जाता है कि मनुष्य का मन समाज तथा भाषा के कारण एक अत्यंत ही उलझनपूर्ण व्यापार हो गया है। हालाँकि यह एक दार्शनिक उपपत्ति ही मानी जायगी। भाषा तो मनस्तत्व का चिरंतन सहकारी उपकरण है।
 
किसी भी रचनाकार की कृति का विश्लेषण करने पर यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि उसमें विषय, वर्णन एवं लेखक की व्यक्तिगत रुचि के अनुसार एक ही शब्द के अनेक पर्यायों का प्रयोग किया गया है। एक उदाहरण लें-‘स्वर्ण’ शब्द का तात्त्विक रूप से एक ही अर्थ है-सोना; परंतु साहित्य में विभिन्न स्थलों पर उसके भिन्न पर्यायों का प्रयोग किया गया है-कहीं कनक तो कहीं कंचन ।
 
स्पष्ट है, मात्र ‘स्वर्ण’ शब्द से स्वर्ण को देख कर, छूकर व ग्रहण करके जितनी अनुभूतियों का आभास होता
है, वह ‘स्वर्ण’ से ध्वनित नहीं हो सकती । इसीलिये स्वर्ण से संबंद्ध विभिन्न अनुभूतियों को संप्रेषणीयता से उभारने के लिये उसके पर्यायों में वृद्धि होती गयी है।
 
जहाँ ‘स्वर्ण’ लिखकर कवि उसके वर्ण-सौंदर्य पर बल देना चाहता है, वहाँ ‘कंचन’ शब्द का प्रयोग पित्ते हुए सोने या चमकते हुए आभूषणों से विकीरित होने वाली किरणों का आभास देने के लिए किया जाता है। ‘कनक’ शब्द से झंकार या ‘टंकार’ की ध्वनि निकलती है। हिंदी के छायावादी कवियाँ की रचनाओं में स्वर्ण-वीणा’ का उल्लेख अक्सर पाया जाता है। इससे यह बोध होता है कि कवि वीणा की चमक पर अधिक बल देना चाहता है। ऐसे ही रवीन्द्र नाथ ठाकुर की कविताओं में ‘कनक-वीणा’ का प्रयोग अधिक पाया जाता है। लगता है टैगोर ‘कनक, वीणा’ से निकलने वाली झंकार पर अधिक बल देना चाहते हैं।
 
वस्तुतः भाषा का बोलना और अध्ययन करना दो अलग क्रियाएँ हैं। अध्ययन करते समय हमारा ध्यान भाषा के व्याकरणसम्मत रूप पर अधिक रहता है जबकि बोलते समय भाषा आत्माभिव्यक्ति; चाहे वह अंत:करण की अभिव्यक्ति हो या बाह्य क्रियाकलापों की, पर रहता है। इसकी अभिव्यंजना मनुष्य की प्रतिक्रिया के रूप में होती है और शक्त ध्वन्यात्मक साधन के रूप में वक्ता के समक्ष रहती है। शायद इसलिये साहित्यकार कभी-कभी अपने को व्यक्त करने के लिये भाषा के नियमों की अवहेलना करके उसके परंपरागत ढाँचे को परिवर्तित करने में भी नहीं चूकता । अस्तु मनोभावों की अभिव्यक्ति या अंतझ के आलोड़न को सजीवता से उभारने के लिये भाषा में जो परिवर्तन व प्रयोग किये जाते है उनके समुच्चय को मनस्तात्त्विक संदर्भ से अभिहित किया जा सकता है।
 
भाषा और संवेग-संवेग की भाषा संक्षिप्त और सांकेतिक होती है, और कुछ सार्थक-निरर्थक शब्दों व
प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त होती है क्योंकि हृदय में उमड़ने-घुमड़ने वाली असीम-असीम भावनाओं को एक क्षण में शाब्दिक आकार देना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य होता है। गहन संवेग की अभिव्यक्ति में भाषा अति लाघव से काम लेती है। कुछ ही शब्दों में खास संवेग से भरे हृदय की सैकड़ों भावनाएँ साकार हो उठती हैं। इनका शाब्दिक अर्थ भले न हो परंतु भावनात्मक अर्थ में वाक्य भी पूर्ण होता है, अर्थ भी।
 
अंत:करण में उमड़ते हुए चेतना-प्रवाह जिसमें एक क्षण के भी हजारवें हिस्से में व्यक्ति वर्षों का जीवन तीखी संवेदनशीलता के साथ जी लेता है-को पूर्ण रूपेण शब्दों में व्यक्त का पाना कठिन होता है, किंतु अभिव्यक्ति का अभाव भी मनुष्य के लिये बोझ बन जाता है। तब अंतरावेग कुछ शब्दों में संकेत देता हुआ फूट पड़ता है।
 
अंतर्जगत की दबी की घुटी संवेदनाएँ जब कुछ शब्दों में व्यक्त होकर भी मनुष्य की अभिव्यक्ति को संतोष नहीं दे पाती तो रचनाकर का अवचेतन सादृश्य धर्म के आधार पर किसी बाह्य उपकरण से तादात्म्य स्थापित कर उसे सजीवता से उभारने का यल करता है। भाषा के सूक्ष्म अवयव ऐसे में बड़ी सहायता करते हैं। एक उदाहरण से यह समझा जा सकता है:
 
“इस एक क्षण में उन आँखों में न जाने कितना कुछ दिखाई दिया- करुणा, क्षोभ, ममता, आर्द्रता, ग्लानि, भय, असमंजय और स्नेह । उसके होंठ कुछ कहने के लिये काँपे, लेकिन काँपकर रह गये । मैं भी चुपचाप उसे देखता रहा। कुछ क्षणों के लिये मुझे अहसास हुआ कि मेरा दिमाग बिल्कुल खाली है और मुझे पता नहीं कि मैं क्या कह रहा था और आगे क्या कहना चाहता था। सहसा उसकी आँखों में फिर वही सूनापन भरने लगा और क्षण भर में ही वह इतना बढ़ गया कि मैंने उसकी तरफ से आँखें हटा ली।”
 
“बत्ती के पास उड़ता हुआ कीड़ा उसके साथ सटकर झुलस गया।”
 
यहाँ अतिम पंक्ति के द्वारा यह संकेत किया गया है कि प्रकाश के प्रति अदम्य आकर्षण से प्रेरित होकर पतंग जिस प्रकार संघर्ष करता हुआ समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार उन दोनों की ममता व स्नेह का भा दुखद अंत होगा। यह है भाषा का मनस्तात्विक पर्यवसान ।
 
जाहिर है भाषा का मनस्तत्व से अतीव गहरा संबंध होता है । मद्यपान से मनुष्य की चेतना शिथिल हो जाते है । यह शैथिल्य उसके वाक्य-विन्यास को भी अव्यवस्थित कर देता है। एक उदाहरण देखें “बलिया अंग्रेजों के चंगुल से छूट गया। वहाँ की जनता की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं । जगह-जगह जलेबियाँ बँटनी शुरू हो गयीं। भाँग का दौर चलने लगा। बिज्जू’ भी इसी रंग में रंगा भाँग के नशे में धुत्त स्वराज्य का प्रसाद लिये उषा के पास पहुँचता है। लेकिन नशे में जिह्वा लड़खड़ाने लगी-“ये, …..लीजिये सुराज का …… परसाद । हम त दूसरे झगड़े में पड़ गये थे।” इसे ही जेम्स ज्वायस ने अपने उपन्यास ‘यूलीसिस’ में ‘रोटेन्ड्रिकिंग’ शब्द से अभिहित किया है।
 
मनुष्य के शरीर में मनस्तात्विक ‘लक्ष्य-निदेशन का सिद्धांत लागू होता है। शरीर की भाषा अलग होती है। इसको एडलर ने अंगीय उपभाषा कहा है। प्रत्येक संवेग की निजी अंगीय उपभाषा होती है। अंगीय विकार-शक्ति को लालसा की अभिव्यक्ति इसी भाषा में होती है।
 
मनोभावों को अभिव्यक्ति के लिये अंगीय भाषा का उपयोग किया जाता है। संवेगों की यह भाषा इतनी शक्त होती है कि इसको समझने में कोई भी धोखा नहीं रखा सकता। बाला रेक्व मुनि से प्यार करती, है; किंतु लज्जा के कारण गुरु व पिता के समक्ष व्यक्त नहीं कर पाती संकोच में वाणी रुद्ध हो जाती है। उसकी झुकी पलकें और कपोलों की लाली जैसे पुकार-पुकार का प्रेम की पीर व्यक्त कर रही है। तभी तो आचार्य असमंजस में पड़ जाते हैं। फिर, जाबाला ने कोई उत्तर नहीं दिया। आँखें अनायास नीची हो गयी। क्या बतायें कुछ बताने योग्य भी तो हो । वृद्ध आचार्य की अनुभवी आँखों से किशोरी के पांडुर कपोलों पर खुल जाने वाली यह लालिमा छिप नहीं सकी। वे असमंजस में पड़ा गए।”
 
अंगीय उपभाषा जिह्वा की भाषा की तुलना में अधिक शक्त भाषा होती है। कई बार इन्सान चुप रहकर ज्यादा बातें कह सकता है। जुबान से कही बात में वह रस नहीं होता, जो आँख की चमक से, ओठों के कम्पन से या माथे की एक लकीर से कही गयी बात से होता है।
 
अंग-संचालन भी अंगीय उपभाषा का एक रूप है। मनोभावों की अभिव्यक्ति केवल शरीर व चेहरे के
उतार-चढ़ाव से ही नहीं, अंग-संचालन के विभिन्न रूपों द्वारा भी होती है। अंग-संचालन की भाषा कितनी शक्त और समर्थ होती है इसका एक सुंदर उदाहरण बिहारी के इस दोहे में हैं:
 
         “कहत नटत रीझत खिझत खिलत मिलत लजियात ।
                  भरे मौन में करतु हैं नैननु ही सों बात ॥
 
ऐसे ही ‘बाणभट्ट’ को आत्मकथा का बाणभट्ट मुख को रेखीय भाषा के द्वारा निउनिया के विगत जीवन
के सुख-दुख को पढ़ने का यत्न करता है । स्वयं उसी के शब्दों में ऐसा लगता है वह पान कम बेच रही है मुस्कान ज्यादा।” “यह हँसी एक विचित्र प्रकार की थी। इसमें आकर्षण था पर आसक्ति नहीं, ममता थी पर मोह नहीं।” चेहरे की रेखीय भाषा को पढ़ने पर ही भट्ट ने निष्कर्ष निकाला था कि निउनिया के मुख पर झलकने वाली मुस्कान कृत्रिम है। वह अंतस में किसी गहन दुख से पीड़ित है। तारुण्य के कारण उसके हास्य में आकर्षण तो था, किंतु पीड़ा की अतिशयता, जिसने उदासीनता का रूप ले लिया था के कारण उसमें अब भी वर्तमान थी, किंतु आलम्बन के अभाव में मोह का रूप नहीं ले सकी थी।
 
वास्तव में साहित्य में भावाभिव्यंजना का एकमात्र उपकरण है भाषा । शब्द के दो तत्व नाद एवं अर्थ वस्तुतः अर्थ के ही दो स्वरूप हैं। शब्द की ध्वन्यात्मकता अर्थ की सहज एवं व्यापक प्रतीति में सहायक होती है। यदि नाद में ही अर्थ ध्वनित होता है तो उसके समझने में सरलता होती है। रागात्मक वृत्तियों में शब्द का संबंध अंतर्जगत की गहराइयों से जुड़ा होता है। अनुकरणात्मक परिस्थिति के अभाव में भावात्मक अर्थ की अभिव्यक्ति के लिये शब्द-प्रयोग की विचित्र शैलियों को अपनाना आवश्यक हो जाता है। अर्थ शब्द में निहित रहते हैं। जल में लहर के समान अलग होते हुए भी अलग नहीं होते । भावपरक अर्थ-बोध के लिये शब्दों के ऐसे प्रयोग की आवश्यकता होती है जो मनस्तात्विक गहन अभिव्यक्ति के साथ ही सहृदय पाठक की रागात्मक वृत्तियों को अधिक से अधिक उद्दीप्त करके भावात्मक तादात्म्य में सहायक हो सके। इस प्रकार हम जीवन और जगत की हलचलों को व्यक्त करने के लिये व्यवहार में भी और साहित्य में भी सजीवता लाने के भाषा के अनेक मनस्तात्विक प्रयोग करते रहते हैं। इस संबंध में एक अंग्रेज विचारक की विचार द्रष्टव्य हैं:
“दे एक्सप्लोर द पौसिविलीटी आफ लिंग्विस्टिक इल्युजन टु कन्ट्रेकट द डिस्कांटिनुइटी ऑफ स्टेन्सन एंड थॉट, एंड कन्वेंशनल एम्सप्रेशन । दे ब्रेक एंड रिफार्म द पैटर्न ऑफ लैंग्वेज विथ रिपीटीशन्स, एंड एलिप्सेज, पोस्टमैनवाक्स वर्ड्स एट न्यू कॉयनेजज, हाफ सीज्ड इल्यूजन्स इनोफिंग वर्ड्स इनवोकेटिव इमेजेज । दे स्टन अस, फोल्ड आउट द ग्रूव्स ऑफ द फार्मल लॉजिक एंड सून एट एट्यूसिंग इन अस द रिक्रियेशंस बॉय द इंट्यूशन ऑफ द व्कियर फ्लक्स ऑफ सेंसेशन्स एंड पर्सेप्शंस देट विदाउट पॉज फ्लट्स आवर
माईन्डस”                      
 
अर्थात् वे भाषा के ढाँचे को छिन्न-भिन्न कर उसमें सुधार करते हैं। उनकी भाषा में आवृत्तियाँ होती हैं। वह वक्र गति से चलती है, अनेक शब्दों को जोड़कर एक नूतन शब्द गढ़ लिया जाता है। शब्दों और उत्तेजक चित्रों की भी भरमार रहती है। वे हमें निस्तब्ध कर देते हैं। उनका लक्ष्य होता है संवेदना की विचारधारा, जो हमारी चेतना को आप्लावित कर देती है, का पाठक अपनी सहज चेतना द्वारा पुनर्निर्माण करे । वे सदा वैयक्तिक विशिष्टता पर जोर देते हैं चाहे सामान्यीकृत लोकग्राह्य शब्द प्रतीकों के प्रयोग से प्रेषणीयता लाने में जो एक व्यावहारिक सुविधा होती है, उसका अंश बलिदान ही क्यों न करना पड़े।

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