भाषा का स्वरूप
भाषा का स्वरूप
भाषा का स्वरूप
भाषा ध्वनि प्रतीकों की एक ऐसी व्यवस्था है जिसके द्वारा किसी भाषा-समाज के लोग परस्पर अपने विचारों
का आदान-प्रदान करते हैं। वास्तव में सहयोग और वैचारिक विनिमय की प्रवृत्ति ही भाषा के रूप में प्रकट होती है।
भाषा एक परिवर्तनशील वस्तु है। उसका रूप सदा ही परिवर्तित होता रहता है। जो रूप एक बार निश्चित
हो जाता है कुछ समय के बाद वह बदल जाता है। सच तो यह है कि सामाजिक विचारधाराओं में ज्यों-ज्यों परिवर्तन
होता जाता है, भाषा के ध्वनि-संकेत भी बदलते जाते हैं। किसी वस्तु के लिये किसी खास ध्वनि-संकेत का प्रयोग
अर्थात एक अर्थ एक शब्द का संबंध पूर्णतया आकस्मिक होता है। धीरे-धीरे संसर्ग या अनुकरण के कारण वन
या श्रोता उस संबंध को स्वाभाविक समझने लगता है । वक्ता हमेशा विचार कर या बुद्धि की कसौटी पर कसकर शर
नहीं गढ़ता । इसी से माना जाता है कि जब एक शब्द चल पड़ता है तो उसे लोग संसर्ग द्वारा सीखकर उसका प्रया
करते हैं। भाषा की अविच्छिन्न धारा का शायद यही रहस्य है।
भाषिक स्वरूप के तीन चरणों को चिन्हित किया जा सकता है: डार्विन का कहना है कि हम बंदरों के
विकसित रूप हैं। कभी हमारी भाषा जरूर ही बंदरों की भाषा के समीप रही होगी। बंदरों में उच्चारित या वाचिक
भाषा के साथ-साथ आंगिक संकेतों की भाषा भी मिलती है जबकि दूसरी ओर असभ्य आदिम जातियों की तुलन
में शिक्षित लोगों में भाषा का लिखित रूप मिलता है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि मनुष्य में भाषा क
प्रारंभिक रूप विभिन्न प्रकार के पशुओं की तरह आंगिक ही रहा होगा । वनबिलाव अपना गुस्सा प्रकट करने के लिये
अपने बालों को खड़ा कर लेता है तो बंदर ओठों को अजीब ढंग से फैलाकर दाँत को निकाल देता है और कुत्ता
प्यार-प्रदर्शन के लिये मालिक के शरीर को कभी चाटता है तो कभी पूँछ हिलाता है। ये आंगिक भाषा के ही रूप
हैं। भाषा का दूसरा रूप वानिक हुआ। इसमें उच्चारित ध्वनियों का प्रयोग होता है। प्रारंभ में मानव-भाषा में आंगिक
संकेत अधिक थे और वाचिक कम । आज की आंगिक भाषा के आधार पर मानव अपनी अभिव्यक्ति को शक्त बनाता
है। भाषा का तीसरा रूप लिखित है। इसने भाषा की उपयोगिता को और अधिक शक्त बनाया है।
आंगिक भाषा स्थूल और सीमित थी। प्रेम, क्रोध, भूख आदि के सामान्य भाव ही वह प्रकट कर सकती थी
दूसरे की आंगिक चेष्टाओं को देखना भी उसके लिये आवश्यक था। वाचिक भाषा के प्रयोग से यह कठिनाई दून
हो गयी। सूक्ष्म से सूक्ष्म भाव एवं विचार व्यक्त होने लगे। किंतु वाचिक भाषा इन तीनों दृष्टियों से आगे बढ़कर भी
देश-काल की सीमा से बंधी थी। इसका प्रयोग उतनी ही दूर तक हो सकता था जहाँ तक सुनाई पड़े । मनुष्य ने भाषा
के लिखित रूप देकर ये दोनों बंधन समाप्त कर दिये । अपने लिखित रूप में भाषा देश-काल से कतई बंधी नहीं है।
आज स्थिति यह है कि लिखकर जहाँ उसे दो-चार वर्षों बाद भी पढ़ा जा सकता है वहीं लिखकर ही उसे सात समुद्र
पार तक भी पहुँचाया जा सकता है।
भाषिक स्वरूप पर विचार करते हुए भाषाशास्त्रियों ने यह माना है कि भाषा अपने प्रारंभिक रूप में संगीतात्मक
थी। उसमें वाक्य शब्द की भाँति थे। अलग-अलग शब्दों में वाक्य के विश्लेषण की कल्पना पहले नहीं की गयी
थी। वहाँ स्पष्ट अभिव्यंजना का अभाव था। उनमें कठिन ध्वनियाँ अधिक थीं। स्थूल और विशिष्ट के लिये शब्द
थे। सूक्ष्म और सामान्य का उन्हें पता नहीं था। व्याकरण संबंधी नियम तो थे ही नहीं। वहाँ केवल अपवाद ही
अपवाद थे। स्पष्ट है तब भाषा हर दृष्टि से लंगड़ी और अपूर्ण थी। इस दृष्टि से देखें तो भाषा के स्वरूप के तीन
चरणों की ओर स्पष्ट संकेत मिलता है।
(i) आंगिक
(ii) वाचिक, और
(iii) लिखित।
भाषा के दो आधार होते है: एक मानसिक और दूसरा भौतिक । मानसिक आधार ही वस्तुतः भाषा की आत्मा
होते हैं। भौतिक आधार उसका शरीर है। मानसिक आधार से तात्पर्य है वे विचार या भाव जिनकी अभिव्यक्ति के
लिये वक्ता भाषा का प्रयोग करता है। भौतिक आधार का अर्थ है, जिसके सहारे श्रोता उसे ग्रहण करता है। इससे
आशय है भाषा में प्रयुक्त वे ध्वनियाँ (वर्ण, सुर, और स्वराघात) जो भावों और विचारों की वाहिका है, जिनका
आधार लेकर वक्ता अपने विचारों या भावों को व्यक्त करता है; और जिनका ही आधार लेकर श्रोता विचारों या
भावों को ग्रहण करता है। जैसे ‘सुंदर’ शब्द का एक निर्धारित अर्थ होता है। इस शब्द का उच्चारण करने वाले
के मस्तिष्क में वह अर्थ होगा और सुननेवाला भी इसे सुनकर अपने मस्तिष्क में उस अर्थ को ग्रहण कर लेगा। यही
अर्थ ‘सुंदर’ आत्मा की तरह है। यही भाषा का मानसिक पक्ष है। यह मानसिक पक्ष सूक्ष्म है, तभी इसे स्थूल का
सहारा लेना पड़ता है। यह स्थूल रूप है-‘स + उ + न + द + अ + र’ । ‘सुंदर’ के भाव या विचार को व्यक्त करने
के लिये वक्ता इन ध्वनि-समूहों का सहारा लेता है जिन्हें सुनकर श्रोता ‘सुंदर’ शब्द का अर्थ ग्रहण कर लेता है।
जाहिर है ये ध्वनियाँ उस अर्थ की वाहिका हैं। यही वास्तव में भाषा का भौतिक पक्ष है। यह भौतिक आधार तत्वत:
अभिव्यक्ति का साधन है और मानसिक आधार साध्य है। दोनों के मिलने से ही भाषा का स्वरूप निर्मित होता है।
कभी-कभी इन्हें ही क्रमश: ‘बाह्य भाषा’ तथा ‘आंतरिक भाषा’ के नाम से भी अभिहित किया जाता है। पहले को
समझने के लिये शरीर-विज्ञान और भौतिक शास्त्र का सहारा लेना पड़ता है तो दूसरी को समझने के लिये मनोविज्ञान का।
कुछ भाषाशास्त्री वक्ता और श्रोता-दोनों के मानसिक व्यापार को भी भाषा का मानसिक आधार मानते हैं और
इसलिये बोलने और सुनने की प्रक्रिया को भी भौतिक आधार मानते हैं। भाषा-विज्ञान में केवल ध्वनियाँ जो बोली
और सुनी जाती हैं और विचार जो वक्ता द्वारा व्यक्त किये जाते हैं तथा श्रोता द्वारा ग्रहण किये जाते हैं, मानसिक
आधार माने जाते हैं।
भाषा के नैसर्गिक स्थान और उसकी विशेषताओं पर दृष्टि डालने से इसके स्वरूप का आयाम उद्घाटित होता
है। भाषा पैत्रिक संपत्ति नहीं होती। वातावरण और परिवेश बदल दिये जाने पर बच्चे मातृभाषा छोड़कर उक्त
वातावरण की ही भाषा सीख लेते हैं। इसलिये यह कहना ज्यादा समीचीन है कि भाषा इस सामान्य मुखर भाषा से
भिन्न होती है।
इसमें कोई संशय नहीं कि भाषा आदि से अंत तक एक सामाजिक वस्तु है। भाषा समाज से ही सीखी जाती
है। भाषा का विकास समाज में होता है, उसका अर्जन समाज से किया जाता है। भाषा का प्रयोग भी समाज में
ही किया जाता है । वस्तुतः भाषा भी एक तरह की सामाजिक संस्था की तरह होती है। वैसे तो अकेले में हम सोचते
अवश्य हैं परंतु वह भाषा इस सामान्य मुखर भाषा से नितांत भिन्न होती है।
भाषा परंपरागत होती है। व्यक्ति समाज द्वारा उसे अर्जित कर सकता है परंतु उसे उत्पन्न नहीं कर सकता।
हाँ, उसमें परिवर्तन करने की क्षमता है। भाषा का अर्जन भी अनुकरण के द्वारा ही होता है। शिशु के समक्ष माँ ‘दूध’
कहती है। वह सुनता है और धीरे-धीरे वह स्वयं इसे कहने का प्रयास करता है।
भाषा परिवर्तनशील होती है। मौखिक भाषा अनुकरण पर आधारित होती है। यही कारण है कि दो व्यक्तियों
की भाषा कहीं से भी बिलकुल एक-सी नहीं होती। शारीरिक और मानसिक भिन्नता के कारण अनुकरण करनेवाल
हू-ब-हू अनुकरण कर भी नहीं सकता। इसी कारण भाषा के स्वरूप में परिवर्तन की भूमिका सदा ही बनी रहती है।
भाषा-प्रयोग की बारम्बारता से घिसती रहती है। बाहरी प्रभावों से भी उसमें परिवर्तन होता रहता है।
जाहिर है उपर्युक्त विश्लेषण के आधार पर यह सिद्ध होता है कि भाषा का कोई निश्चित और अंतिम
नहीं होता। भाषा का अंतिम रूप भाषा को ही जड़ और मृत बनाता है । जीवित भाषा में परिवर्तन और अस्थैर्य ।
उसकी प्राणवंतता का प्रमाण होता है।
प्रत्येक भाषा की एक भौगोलिक परिसीमा होती है। वही भौगोलिक परिसीमा उसका वास्तविक क्षेत्र होती है।
उसी सीमा के बाहर उस भाषा का स्वरूप थोड़ा या अधिक परिवर्तित हो जाता है।
हर भाषा की एक ऐतिहासिक सीमा भी होती है। यह इतिहास के किसी एक निश्चित काल से प्रारंभ होक
इतिहास के किसी निश्चित काल तक व्यवहृत होती है। संस्कृत से पहले पालि, पालि से प्राकृत और अपभ्रश तक तथ
फिर हिन्दी-ये सब एक निश्चित ऐतिहासिक कालखंड तक में ही जीवित रहीं।
प्रत्येक भाषा की अपनी अलग संरचना भी होती है अर्थात् किन्हीं दो भाषाओं का ढाँचा-स्वरूप पूर्णतर
एक-सा नहीं होता। उनमें ध्वनि, शब्द, रूप, वाक्य या अर्थ आदि किसी भी स्तर पर या एक से अधिक स्तरों
संरचना में अंतर अवश्य रहता है। यह अंतर भाषाओं की स्वतंत्र सत्ता का कारण बनता है।
भाषा की धारा स्वाभविक तौर पर काठिन्य से सारल्य की ओर होती है। संसार की समस्त भाषाओं के इतिहास
इस तथ्य के साक्षी हैं। कठिनता से सरलता की ओर अभिगमन करने का ही परिणाम है कि प्रयास करके लोग सत्येन्द्र
को ‘सतेन्द्र’ या ‘सतेन’ कहने लगते हैं। इसी क्रम में वह ‘सत्येन्द्र’ को ‘सति’ कहकर भी पुकारने लगता है। यह
स्थिति ध्वनि के संबंध में जितनी सच है उतनी ही व्याकरण के रूपों के विषय में भी। वस्तुतः भाषा पानी की धार
की मानिंद है जो स्वभावतः ऊँचाई से (कठिनाई से) नीचे अर्थात् सरलता की ओर जाती है।
भाषा स्थूलता से सूक्ष्मता और अप्रौढ़ता से प्रौढ़ता की ओर भी जाती है, भाषा के विकास के साथ ही वह
स्थूल से सूक्ष्म तथा अप्रौढ़ से प्रौढ़ की ओर होती जाती है।
हर भाषा का स्पष्ट या अस्पष्ट अपना एक मानक रूप होता है। समग्रतः ये स्थितियाँ संसार की सभी भाषाओं
के स्वरूप के साथ जुड़ी हुई हैं। भाषा का स्वरूप मुख्यत: चार आधारों पर आधारित होता है-इतिहास, भूगोल, प्रयोग
और निर्माता। भारत में कभी संस्कृत बोली जाती थी; फिर पालि बोली जाने लगी। उसके बाद प्राकृत और तब
अपभ्रंश। अपभ्रंश के बाद संस्कृत पालि और प्राकृत की परंपरा में जो परिवर्तन आया उसे ही आधुनिक भारतीय
आर्यभाषा कहा जाने लगा। इस ऐतिहासिक रूप के अलावा दूसरे अन्य प्रकार के रूप भी हैं जैसे भौगोलिक रूप।
इसके उदाहरण पंजाबी, हिन्दी, गुजराती, मराठी तथा बंगाली भाषा रूप में मिलते हैं। भौगोलिक रूप से ही अधिक
व्यापक रूप भाषा है फिर बोली, फिर स्थानीय बोली । इसी का संकीर्ण रूप है ‘व्यक्ति-बोली’ या ‘व्यक्ति की भाषा’।
तीसरा आधार है ‘प्रयोग’ । प्रयोग के ही आधार पर जातीय भाषा, राजभाषा, राष्ट्रभाषा एवं साहित्यिक भाषा,
गुप्त भाषा, राजनयिक भाषा, परिनिष्ठित भाषा, अपभाषा, विकृत भाषा, मृत भाषा, जीवित भाषा या प्रचलित भाषा
एवं अल्प प्रचलित भाषा जैसे प्रयोग भी भाषा के स्वरूप के विस्तार हैं। ऐसे ही टकसाली भाषा, साधु भाषा, असाधु
भाषा, शुद्ध भाषा, अशुद्ध भाषा जैसे रूप भी हैं।
चतुर्थ आधार है निर्माता । यदि भाषा का निर्माता समाज है, वह परंपरागत रूप से चली आ रही है तो उसे
‘भाषा’ कहते हैं। यदि एक-दो व्यक्तियों ने ही भाषा का निर्माण किया है तो उसे ‘कृत्रिम भाषा’ कहते हैं। सच
तो यह है कि श्लीलता, मिश्रण, बोधगम्यता, श्रवण, और संस्कृति आदि आधारों पर भाषा के स्वरूप की अनेक दिशाएँ
रेखांकित होती हैं।
भाषा के स्वरूप की प्रथम स्थिति है मूल भाषा । भाषा की उत्पति अत्यंत प्राचीन काल में उन स्थानों में हुई
होगी जहाँ बहुत से लोग एक साथ रहा करते होंगे। ऐसे स्थानों में किसी एक स्थान की भाषा जो आरंभ में उत्पन्न
हुई होगी तथा आगे चल कर जिससे अनेक भाषाएँ, बोलियाँ तथा उपबोलियाँ आदि बनी होंगी, मूल भाषा कही जायेगी।
एक व्यक्ति की भाषा को ‘व्यक्ति-बोली’ कहते हैं। एक दृष्टि से यह भाषा के स्वरूप का संकीर्णतम या
लघुतम रूप है। उप बोली या स्थानीय बोली भी भाषा के स्वरूप का अभिन्न अंग है। भाषा का एक रूप भूगोल
पर आधारित होता है। एक छोटे से क्षेत्र में ही इसका प्रयोग होता है, सीमित भौगोलिक परिसीमा में । स्पष्ट है, किसी
छोटे क्षेत्र की ऐसी व्यक्ति-बोलियों का सामूहिक रूप जिसमें आपस में कोई प्रत्यक्ष अंतर न हो, स्थानीय बोली या
उपबोली कहलाती है। हिन्दी में कुछ लोगों ने भाषा के इस रूप के लिये ही ‘बोली’ शब्द का प्रयोग किया है। इसे
ही कुछ भाषाविद विभाषा, उपभाषा, प्रांतीय या क्षेत्रीय भाषा के नाम से भी पुकारते हैं। भाषा का लिखित रूप
मौखिक रूप की अपेक्षा अधिक संस्कृत रहता है।
भाषा का एक रूप है अपभाषा, जिसे परिनिष्ठित एवं शिष्ट भाषा की तुलना में विकृत या अपभ्रष्टं समझ जाता
है। इस प्रकार भाषा के स्वरूप के आधारभूत उपादाथों को अगर सूचीबद्ध किया जाय तो वे निम्नलिखित होंगे। ये
उपादन ऐसे उपादान है जिन्हें हम संसार की किसी भी भाषा के स्वरूपगत आधारिक निकष के रूप में खतिया सकते हैं :
1. ध्वनि-आरंभिक भाषा में आज की विकसित भाषाओं की तुलना में ध्वनियाँ बहुत कठिन रही होंगी । यहाँ
कठिन से आशय उच्चारण में कठिन संयुक्त व्यंजन । (जैसे आरंभ में प्स, क्व, त्थ आदि) मूल ध्वनि आदि हैं। भाषा
की आरंभिक अवस्था में शब्द अपेक्षया बड़े एवं उच्चारण की दृष्टि से कठिन रहे होंगे। अब ये ध्वनियाँ शनैः शनै
सरलोन्मुख होती गयी हैं । कदाचित आरंभिक भाषा में क्लिक ध्वनियाँ अधिक रही होंगी। वैदिक संस्कृत और हिंदी
की तुलना से यह स्पष्ट हो जाता है कि अब अपेक्षया शब्द सरल और छोटे हो गये हैं। होमरिक ग्रीक तथा वैदिक
संस्कृत में संगीतात्मक स्वराघात की उपस्थिति के यथेष्ट प्रमाण मिलते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि आरंभिक
अवस्था में लोग बोलने की अपेक्षा गाते अधिक रहे होंगे। निस्संदेह आरंभिक भाषा में संगीतात्मक स्वराघात (सुर)
बहुत अधिक रहे होंगे।
2. व्याकरण-प्रारंभ में शब्दों के रूप भी अधिक रहे होंगे जो बाद में सादृश्य या ध्वनि-परिवर्तन आदि के
कारण आपस में मिल कर कम हो गये । यही वजह है कि आधुनिक भाषाओं की तुलना में पुरानी भाषाओं में सहायक
क्रिया या परसर्ग आदि जोड़ने की आवश्यकता कम या नहीं के बराबर होती होगी। स्पष्ट है आभिक भाषा
संश्लेषणात्मक रही होगी अर्थात् सहायक क्रिया या परसर्ग आदि जोड़ने की वहाँ कोई जरूरत नहीं पड़ती होगी। वहाँ
पूर्ण नियमों का अभाव एवं अपवादों का बाहुल्य रहा होगा । तत्कालीन लोगों की मानसिक अव्यवस्था के कारण भाषा
में भी व्यवस्था का अभाव रहा होगा। स्पष्ट ही तब व्याकरण या भाषा-नियम नाम की कोई चीज न रही होगी।
3. शब्द-समूह-भाषा में विकास के साथ ही उसकी अभिव्यंजना-शक्ति में भी वृद्धि होती जाती है। साथ
ही सामान्य और सूक्ष्म भावों को प्रकट करने के लिये शब्द भी बनते जाते हैं। आरंभिक भाषा में ऐसे शब्दों का अभाव
रहा होगा क्योंकि आज भी ऐसी असंस्कृत और अविकसित भाषाएँ हैं जहाँ यह अभाव है। स्पष्ट है तब शब्द केवल
स्थूल और विशिष्ट के लिये ही रहे होंगे, सामान्य और सूक्ष्म के लिये नहीं । समयान्तराल से कुछ समय पश्चात् शब्दों
का बाहुल्य हुआ होगा।
4 वाक्य-भाषा वस्तुत: वाक्य पर ही आधारित रही है। वाक्य के शब्दों का विश्लेषण कर ही हमने उन्हें
अलग-अलग कर लिया है और उनके नियमों का अध्ययन कर व्याकरण बनाया है। हालाँकि यह कार्य भाषा और
उसके साथ हमारे विचारों के बहुत विकसित होने पर ही किया गया है। आरंभ में इन शब्दों का पता न रहा होगा
और वाक्य इस इकाई के रूप में रहे होंगे। शब्दों के रूप में उनका व्याकरण या विश्लेषण नहीं हुआ रहा होगा।
5. विकास की प्रारंभिक अवस्था में भावना-प्रधान रहने कारण लोग तर्क या विचार की वैज्ञानिक श्रृंखला
से अपरिचित रहे होंगे। यही कारण है कि संसार की सभी भाषाओं में पद्य या काव्य बहुत प्राचीन मिलता है किंतु
गद्य नहीं। इसी प्रकार गीत आदि की प्रधानता रही होगी। गीत में भी स्वाभाविक और जन्मजात भावना के कारण
प्रेम, भय, क्रोध आदि के चित्र ही अधिक रहे होंगे।
निष्कर्ष-भाषा अपने प्रारंभिक रूप में संगीतात्मक रही होगी। उसमें वाक्य शब्द की भाँति थे। अलग-अलग
शब्दों में वाक्य के विश्लेषण की कल्पना नहीं की गई थी। स्पष्ट अभिव्यंजना का अभाव था। कठिन ध्वनियाँ अधिक
थीं। स्थूल और विशिष्ट के लिये शब्द थे । सूक्ष्म और सामान्य का पता नहीं था। व्याकरण संबंधी नियम नहीं थे।
केवल अपवाद ही अपवाद थे। इस प्रकार भाषा प्रत्येक दृष्टि से लंगड़ी और अपूर्ण थी। बाद में भाषा आंगिक,
वाचिक और लिखित तीन रूपों में दृढ़तापूर्वक रेखांकित की गयी।
सो, भाषा पद्धतियों की एक पद्धति है जिसमें मंथर गति से परिवर्तन होता रहता है। सामान्य रूप से बोलने
वालों और सुनने वालों का यह अनुभव है कि भाषा ध्वनियों से निर्मित होती है। प्रत्येक भाषा उच्चारणों के रेखाक्रमों
में प्रकट होती है जिसे कभी-कभी ‘भाषित श्रृंखला’ कहा जाता है। भाषा के प्रतीक ‘श्रोत्र ग्राह्य’ होते हैं।
भाषा और बोली दोनों की अपनी-अपनी पद्धति होती है। देखा गया है कि किसानों की बोली में भी नियम
होते हैं। उनका एक अंतर्ग्रथित व्याकरण है। शिष्ट भाषा बोलने वाले को यह देखकर आश्चर्य भी होता है। वे
समझते थे कि पाठशाला में पढ़ने वाले लड़कों की पुस्तकों मात्र में ही भाषा के नियम होते हैं। परंतु यह देखकर
विस्मय होता है कि कभी-कभी व्याकरण के द्वारा सीखी हुई बोलियों की अपेक्षा ग्रामीण बोलियों में, जिन्हें हम
विभाषा कहते हैं नियम और भी जटिल होते हैं। तभी भाषाशास्त्री ऐसे शब्दों को अत्यंत महत्त्वपूर्ण समझते हैं।
भाषा-विज्ञान में ‘भाषा’ शब्द का आशय निश्चित रूप से साहित्यिक भाषा से लिया जाता है। जिस भाषा
में कोई साहित्य नहीं लिखा जाता उसे भाषा नहीं कहते । हाँ भाषा शब्द के बजाय उन्हें बोली, विभाषा या उपभाषा
वगैरह की संज्ञा दी जाती है, जबकि परंपरागत रूप में भाषा और बोली दोनों ही अपने-अपने रूपों में वर्तमान रहते
हैं। भाषा हमें साहित्य से सीखने को मिलती है और बोली माँ-बाप तथा जन समाज से ।
हम बोलने और लिखने में प्रायः संयत बुद्धि और साधु भाषा का प्रयोग करते हैं । साधुभाषा (मानक भाषा)
का अतिक्रमण कहकर कई बार बोली को पीछे धकियाया जाता है जबकि मानक भाषा सदा स्थिर नहीं रहती। हम
जानते है कि भाषा के स्वरूप का यही इतिहास रहा है कि युगों के परिवर्तन से देश-काल और क्षेत्र की भाँति भाषा
में भी परिवर्तन होता रहता है।
अस्तु भाषा मुख्यतः संप्रेषण का माध्यम है जो सांकेतिक और यादृच्छिक होता है। यह एक मौखिक
प्रतीकात्मक पद्धति है । भाषा की यही प्रकृति भी है। ध्वनि-संकेत इसलिये मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षियों तक की भाषा
में होते हैं। हालाँकि उसके ये संकेत अत्यंत सीमित होते हैं। पशु-पक्षी अपने ध्वनि-संकेत वाक्यों में प्रकट नहीं कर
सकते जैसे मनुष्य कर लेते हैं।
‘भाषा’ शब्द का प्रयोग दो रूपों में किया जाता है : सामान्य भाषा के लिये और विशिष्ट भाषा के लिये।
सामान्य भाषा में विभिन्न देशों की भाषा-जैसे चीनी, जापानी, जर्मन और अमेरीकी आदि नामों के रूप में आती है।
विशिष्ट भाषा का अर्थ है जैसे-राष्ट्रभाषा, साहित्यिक भाषा, मानक भाषा, राजभाषा, अतर्राष्ट्रीय भाषा तथा बोली,
आंचलिक भाषा आदि । संघटना, रचना तथा शैली की दृष्टि से इन विभिन्न भाषा-रूपों में अंतर होता है। इस भिन्नता
के भी कई कारण होते हैं जिनमें मनुष्य की रुचि, तथा प्रवृत्तिगत भिन्नता प्रमुख है। जलवायु की भिन्नता तथा
परंपरागत संस्कार भी इस भिन्नता के जनक हैं। इसी भाषा-भेद के कारण उसके विभिन्न रूपों के द्योतन के लिये
हम अलग-अलग शब्दों का प्रयोग करते हैं।
फिर भी एक भाषा का जन-समुदाय अपनी भाषा के विविध रूपों के माध्यम से एक भाषिक इकाई का निर्माण
करता है। विविध भाषा-रूपों के मध्य संभाषण की संभाव्यता से भाषिक एकता का निर्माण होता है। भाषिक स्वरूप
की यही वास्तविकता भी है।
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