भाषा-शिक्षण के प्रमुख सिद्धांत
भाषा-शिक्षण के प्रमुख सिद्धांत
भाषा-शिक्षण के प्रमुख सिद्धांत
(अ) भाषा का वह अंश जिसका उपयोग प्रायः सभी क्षेत्रों में होता है, अधिक काम की वस्तु है। सांस्थानिक शब्द और प्रयोग इसी के अंतर्गत हैं। सामान्य व्यवहार को सामग्री को शिक्षण में प्राथमिकता देने की आवश्यकता है। अतः शिक्षण के लिये सामग्री चयन और उसके क्रमानुयोजन की बड़ी आवश्यकता है। सामग्री छौटने में विविध प्रकार की भाषा-वस्तु को उचित अनुपात में रखने पर भी विशेष ध्यान देना चाहिये।
(आ) इस सामग्री के व्यवहार को अभ्यास द्वारा सहज बना देना चाहिए, जिससे उसका उपयोग अनायास हो जाय और जिसकी आदत-सी बन जाए। भाषा के व्यवहार में एक सीमा तक गति आना भी बड़ा आवश्यक है, जो बिना अभ्यास के नहीं आ सकती।
(इ) अत: कंठस्थ करना भाषा-शिक्षण का मुख्य सिद्धांत है। इसकी आवश्यकता प्रत्येक स्तर पर है। कंठस्थ की हुई सामग्री के संश्लेषण तथा पुनः भिन्न-भिन्न संश्लेषणों से नवीन रचना करने में शिक्षार्थी सफल होता है। कंठस्थ करने के लिये गद्य-पद्य भागों की सामग्री विवेक के साथ छाँटने की आवश्यकता होती है।
(ई) आरंभिक अवस्था में अभ्यास खूब हो और संशोधन कम हो, और जब करना भी पड़े तो बड़े प्यार और सहानुभूति के साथ।
(उ) प्रयत्न बहुमुखी हो; विविध भाषा-कौशलों का अलग-अलग सामूहिक अभ्यास हो यानी पड़ने लिखने के संश्लिष्ट अभ्यास के साथ-साथ शब्द-भंडार-वृद्धि, गति-वृद्धि, आदि की अलग-अलग शिक्षा आवश्यक है।
(ज) भाषा-शिक्षण अपने प्रयास की वस्तु है और प्रयास बिना रुचि के पर्याप्त मात्रा में सफलतापूर्वक नहीं हो सकता। अस्तु उसे रोचक बनाया जाना चाहिये।
(ए) शिक्षार्थी के प्रथम प्रयासों में भूल होना स्वाभाविक है। परंतु यह भूल प्रयास की दिशा में कदापि नही होनी चाहिये । भाषा सीखने की इसी विधि का अनुसरण करता हुआ शिशु शुद्ध भाषा सीखता चलता है। इसे भूल सुधार का सिद्धांत कहते हैं। यह समझने की बात है कि भलीभांति पढ़ना सीखने के पूर्व पर्याप्त मात्रा में पढ़ना-लिखना सीखने के पूर्व पर्याप्त मात्रा में लिखना तथा बोलना सीखने के पूर्व पर्याप्त मात्रा में बोलना अत्यंत आवश्यक है।
(ऐ) भाषा अनुकरण की वस्तु है । हम उसे दूसरों का अनुकरण करके सीखते हैं । सभी छात्र के सामने स्पष्ट और उचित नमूना होना चाहिए। शिक्षक का काम नमूना उपस्थित करना है। नमूना जितना ही अच्छा होगा, उतनी ही अच्छी प्रतिकृति शिक्षार्थी द्वारा प्राप्त करने की आशा की जा सकती है।
(ओ) भाषा अनेक व्यवस्थाओं की व्यवस्थित समष्टि है। यहाँ व्याकरण शिक्षण का एक महत्वपूर्ण साधन
है। आरंभ में उसका उतना उपयोग वैसे नहीं है। बच्चों की अपेक्षा वयस्कों को व्याकरण की आवश्यकता अधिक होती है।
भाषा-शिक्षण के इन्हीं सिद्धांतों के आधार पर प्रत्येक भाषा चाहे वह पहली हो अथवा दूसरी, सीखी-सिखाई जाती है। हाँ, द्वितीय भाषा के शिक्षण में कुछ भिन्नताएँ जरूर हो सकती हैं जैसे―
मातृभाषा सहजज्ञात भाषा होती है जबकि दूसरी भाषा किसी विशेष उद्देश्य से सीखी जाती है। उससे इतनी अधिक मात्रा भी प्राप्त नहीं की जा सकती। अत: उसकी भाषा-सामग्री के चयन में अपेक्षाकृत और भी अधिक सावधानी की आवश्यकता होती है, जैसे अहिंदी राज्यों में हिंदी-शिक्षण के लिये सावधानी के साथ वैज्ञानिक ढंग से चयन की हुई सामग्री के आधार पर क्रमानुयोजित पाठ्य पुस्तकें बनाने, अंग्रेजी के ‘फाउलर’ की तरह प्रयोग कोश बनाने की भी जरूरत होगी।
शिशु के पास सीखने के लिए बहुत समय होता है। उसे अनुकरण की सुविधा भी बहुत है। दूसरी भाषा सीखने वाले के पास न इतना समय रहता है और न सुविधा । अत: उसकी शिक्षण-व्यवस्था में पठन-शिक्षा का प्रवेश यथासंभव शीघ्र कराना चाहिये जिससे वह स्वतंत्र रूप से भाषा सीखने का काम शीघ्रातिशीघ्र प्रारंभ कर सके।
पहली भाषा की जानकारी, उसके प्रयोग, रूपक, उसकी ध्वनियाँ आदि दूसरी भाषा के प्राप्त करने में बाधक भी हो सकते हैं और विवेक से काम लेने में सहायक भी। प्रथम भाषा की अवहेलना नहीं की जा सकती: वह ज्ञात-अज्ञात रूप में सक्रिय रहेगी ही। चतुर शिक्षक प्रथम भाषा की जानकारी से दूसरी भाषा सीखने में उसी प्रकार सहायता लेता है जिस प्रकार बड़ा भाई छोटे भाई को अंगुली पकड़कर चलना सिखाता है। जब वह कुछ समर्थ हो जाता है, बड़ा भाई उसे स्वतंत्र छोड़ देता है।
दूसरी भाषा की ध्वनियों में मातृभाषा की ध्वनियों से कुछ-न-कुछ अंतर अवश्य रहता है। अलग-अलग ध्वनियों के अंतर के अतिरिक्त भाषाओं के सर्वांगीण संगीत अलग होते हैं। इसीलिये द्वितीय भाषा के शिक्षण में विधिवत वाक्-शिक्षण की आवश्यकता होगी।
जाहिर है अन्य भाषा सिखाने की प्रक्रिया मातृभाषा सीखने की सहज प्रक्रिया के अनुसार ही होनी चाहिए । जिस प्रकार परिवेश के द्वारा मातृभाषायी दक्षता प्राप्त हो सकी उसी प्रकार अन्य भाषायी दक्षता प्राप्त करने के लिये उपयुक्त अन्य भाषा-परिवेश रहे । भाषा-शिक्षण की प्रक्रिया यही है। इतना ही नहीं, आधारभूत शब्दावली जिनके बिना भाषा ही परिचालित नहीं हो सकती, को पहले ही सिखा देना आवश्यक है । जैसे सर्वनाम, संख्यावाचक, सामान्य व्यवहार की संज्ञाएँ, विशेषण, क्रिया विशेषण, क्रियाएँ आदि । इसके बाद ही शिक्षक को क्रमश: (1) चयन (2) अनुक्रमण और प्रस्तुतीकरण-इन तीन कार्यों को करना है। प्रस्तुतीकरण तो प्रत्यक्षतया शिक्षण-विधि पर निर्भर करता है।
भाषा-शिक्षण की अनेक विधियाँ भाषा वैज्ञानिकों ने प्रचलित की हैं : (1) प्रत्यक्ष विधि; (2) संरचना विधि (3) फोनेटिक विधि, (4) प्राकृतिक विधि; (5) व्याकरण विधि (6) अनुवाद विधि और (7) व्यतिरेकात्मक विधि । एक आंग्ल शिक्षा शास्त्री मैकी ने अपनी पुस्तक ‘लैंग्वेज टीचिंग एनेलिसिस’ में भाषा शिक्षण की चौदह विधियों को रेखांकित किया है। वास्तव में ये सभी नाम भाषा के किसी-न-किसी अंश अथवा भाषा शिक्षण की प्रक्रिया में विशिष्टतया स्वीकृत किसी क्रिया का संकेत दे रहे हैं।
इन विभिन्न विधियों में अधिकतर में परस्पर विरोध अथवा व्यावर्तकता नहीं है। इनमें से अधिकांश विधियों की विशेषताओं का समावेश एक साथ संभव है। वैसे भी आधुनिक भाषा वैज्ञानिक व्याकरण-विधि और अनुवाद-विधि को पूर्णतया दोषपूर्ण मानते हैं। आज तो इस सारी प्रक्रिया को भाषा-शिक्षण की ‘भाषा-वैज्ञानिक विधि’ नाम दिया जाता है। सच तो यह है कि भाषा शिक्षण क्रिया से भाषा-विज्ञान प्रत्यक्ष रूपेण संलग्न है नहीं; किंतु शिक्षणोपयुक्त सामग्री निर्माण में उसका प्रचुर योगदान होता है।
स्वयं भाषा पढ़ाने वाले व्यक्ति को भाषा वैज्ञानिक विश्लेषण पद्धति का ज्ञान तो अवश्य होना चाहिये।
एक व्यक्ति जब एकाधिक भाषाएँ सीखने लगता है तब उसे मनोवैज्ञानिक रूप से भाषायी व्याघात की स्थिति का सामना करना पड़ता है, क्योंकि मातृभाषा का संस्कार शैशवकाल से ही जमा रहता है। वही भाषा उसके चिंतन का माध्यम है; उसके विवेचन में भी लगभग वही भाषा निहित रहती है । स्वग्न में, स्मृति में, एकांत चिंतन में, आवेश में, भावुक स्थिति में वह उसी भाषा का सहज प्रयोग करता है। वह भाषा उसके व्यक्तित्व का अंग होती है। दूसरी भाषा सीखते समय वह नितांत भाषाहीन स्थिति में नहीं होता। अतः दूसरी भाषा आत्मसात करते समय पूर्वज्ञात भाषा की दक्षता परिचालित रहती है। कई बार तो इसी कारण दूसरी भाषा सीखने में दक्षता कुंठित हो जाती है।
आजकल बालकों में प्रत्यक्ष ज्ञान को अधिक उपादेय, रोचक, सरस एवं प्रभावोत्पादक बनाने के लिए ‘ऑडियो-विजुअल एड्स (AVA) का उपयोग होने लगा है। भाषा-शिक्षण में शब्दों का प्रयोग, वस्तुओं और क्रियाओं के प्रतीक रूप में होता है तथा बालक के पूर्व संचित ज्ञान या अनुभव को इन प्रतीकों के माध्यम से जागृत किया जा सकता है। इसलिये बालकों में प्रत्यक्ष ज्ञान को अधिक उपादेय, रोचक, सरस एवं प्रभावोत्पादक बनाने के लिये ‘ऑडियो विजुअल एड्स’ अत्यंत उपादेय है
अपने यहाँ यद्यपि ग्राफ्स, पोस्टर्स, मानचित्रों के आधार पर शिक्षण की उपयोगिता की ओर ध्यान दिया जाता रहा है, परंतु इसमें भाषा-शिक्षण की दिशा में भाषा के व्यंग्य, हास्य और अतिशयोक्तिपूर्ण स्थलों के भावों, गूढ़ रहस्यों तथा तथ्यों का स्पष्टीकरण उतना प्रभावकारी नहीं हो सकता जितना ए.डी.ए. द्वारा।
दृश्य उपकरणों में भी दो वर्ग किये जा सकते हैं :
(1) प्रक्षेपित दृश्य उपकरण
(2) अप्रक्षेपित दृश्य उपकरण
प्रथम प्रकार के उपकरणों में चलचित्र, चित्रपट्टी तथा चित्रफलक के अतिरिक्त मूक चलचित्र उल्लेख्य है। अप्रेक्षपित दृश्य उपकरणों में यथार्थ वस्तुएँ, प्रतिरूप नमूने, पर्यटन, अभिनय, रेखाचित्र, चित्र, कार्टून, पोस्टर्स छायाचित्र, तथा लैसकार्ड आदि आते हैं। यह एक मान्य तथ्य है कि शैक्षिक चलचित्र के माध्यम से भाषा-शिक्षण को अधिक उपादेय बनाया जा सकता है। भाषा-शिक्षण के दौरान चलचित्र द्वारा भाषा के विभिन्न भाषाई तत्वों उच्चारण, वाक्य-विन्यास, पद-रचना, अर्थबोध और लेखन अभ्यास बालक की नेत्रंद्रियों और श्रवणेंद्रियों द्वारा होते हैं। वाक्य संरचना के शिक्षण में बालकों को पदों की व्यवस्था और अर्थ तत्त्व के वैज्ञानिक विश्लेषण रखकर बालक की योग्यता आकांक्षा पर विशेष बल देकर वाक्यों के विभिन्न प्रकार, वाक्य-विन्यासक्रम, शब्द, शब्द-प्रयोजन तथा पारस्परिक संबंध के आदर्श ढाँचे फिल्मों द्वारा प्रदर्शित किये जा सकते हैं। वाक्य-शिक्षण एवं वाक्य-विन्यास पर दृश्य-विधान प्रस्तुत कर प्रभावशाली ढंग से भाषा की शिक्षा दी जा सकती है। सच पूछिये तो ‘ए.डी.ए’ प्रणाली
भाषा-शिक्षण के क्षेत्र में एक अभिनव क्रांति की मानिंद प्रमाणित हुई है।
पश्चिमी देशों में तो दूरदर्शन तक का व्यापक उपयोग भाषा-शिक्षण के क्षेत्र में किया जा रहा है। इसका व्यापक उपयोग छात्रों के भाषा-शिक्षण में अधिक उपादेय है क्योंकि किसी शब्द, शब्द-समूह, वाक्यांश, वाक्य-समूह, पद-समूहों के उच्चारण की अभिव्यक्ति शिक्षक मुँह से करता है साथ ही श्यामपट पर लिखता जाता है। दूरदर्शन की सर्वाधिक बड़ी उपयोगिता अथच् उपादेयता यही है कि जिन विषयों को सुना जा सकता है, उन्हें देखा भी जा सकता है।
एक तरह से भाषा-शिक्षण एक कार्य-प्रक्रिया मात्र नहीं है बल्कि एक विशिष्ट शोधात्मक क्रिया भी है। इस क्रिया में भाषा-विज्ञान, मनोविज्ञान, सीखने की क्रिया, तथा शिक्षा-शास्त्र तीनों का योग होता है। कहें तो कह सकते हैं कि यह अनेक शोध-कर्ताओं के सम्मिलित प्रयास की उपलब्धि है।
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