मनोभाषा-विज्ञान

मनोभाषा-विज्ञान

                  मनोभाषा-विज्ञान

भाषा और मनस्तत्व के विश्लेषण के क्रम में यह कहा गया है कि मनोभावों की अभिव्यक्ति अथवा अंतस् के आलोड़न-विलोड़न को सजीवता से उभारने के लिये भाषा में जो परिवर्तन व प्रयोग किये जाते हैं, उन्हीं के समुच्चय को भाषा-मनोविज्ञान या मनोभाषा विज्ञान की संज्ञा से अभिहित किया जा सकता है। वास्तव में मनस्तात्विद क्रिया-प्रतिक्रिया को भाषा का लिबास पहनाना ही मनोभाषा-विज्ञान का सिद्धांत है। वास्तव में मनोविज्ञान और भाषा-विज्ञान की अंत: संबंद्धता ही मनोभाषा विज्ञान को जन्म दे पाई है। मोटे तौर पर इसमें भाषा-विज्ञान के मनोवैज्ञानिक पक्ष का उद्घाटन और अध्ययन किया जाता है। यही कारण है कि भाषा-विज्ञान का भी मनोवैज्ञानिक उपपत्तियों से गहरा ताल्लुक होता है।
 
विचारों का सीधा संबंध मस्तिष्क और मन से होता है। ‘अर्थ’ का तो मनोभाषा विज्ञान से पूर्ण संबंध होता है। बाल-मनोविज्ञान और अविकसित लोगों के मनोविज्ञान से भाषिक उपकरणों का बड़ा संबंध है। पागलों का मनोवैज्ञानिक उपचार उनके द्वारा कही गई ऊल-जलूल बातों के विश्लेषण के द्वारा ही उनकी मानसिक गुत्थियों का एवं तजनित ग्रंथियों का पता लगाया जाता है। मनोविज्ञान की इस एक नयी शाखा मनोभाषा-विज्ञान का आधुनिक भाषा-विज्ञान में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है। पिछली सदी के चौथे दशक से मनोविज्ञान की ओर मुड़कर मनोवैज्ञानिक अंततोगत्वा सन् 1950 के आसपास मनोभाषा-विज्ञान तक पहुँचे। भाषाविद् टॉमस सीबक तथा मनोवैज्ञानिक चार्ल्स आसगुड के प्रयास से यह विज्ञान अस्तित्व में आया । संभवत: यह कहना अधिक संगत है कि भाषा-विज्ञान और मनोविज्ञान के मिलन का एक समतोल परिणाम मनोभाषा-विज्ञान के रूप में सामने आया है जिसमें मानसिक क्रियाओं के विवेचन-विश्लेषण के आधार पर भाषा का बहुआयामी रूप निदर्शित किया जाता है।
 
सुनने की प्रक्रिया के तहत अर्थ तक पहुँचने का संपूर्ण व्यावहारिक आयाम मनोभाषा विज्ञान का आधारभूत ढाँचा है। मनोभाषा-विज्ञान भाषा-विज्ञान के तत्वों और मानकों से उतना संबद्ध नहीं होता जितना भाषा में व्यक्त सूक्ष्म और जटिल उपपत्तियों से । वह वक्ता और श्रोता के बीच एक तरह की भाषिक अध्ययनपरकता एवं अर्थ-ग्रहण की व्यावहारिकता के लिये पुल का कार्य करता है। सो, मनोभाषा-विज्ञान की कार्य-प्रणाली की कई दिशाएँ होती हैं :
 
(क) भाषा-सीखने एवं ग्रहण करने की कार्य-प्रणाली
 
(ख) मानसिक स्तर पर चलने वाली तज्जन्य क्रियाएँ एवं भाषिक तत्वों के अध्ययन की कार्य-प्रणाली
 
(ग) भाषा द्वारा प्रदत्त अभिज्ञानपरक उपपत्ति के अध्ययन का उपक्रम ।
 
(घ) भाषा और मानसिक प्रक्रिया की व्यापक सार्वभौमिकता का गहन अध्ययन ।
 
              मनोभाषा विज्ञान के मुख्य उपजीव्य :
 
(i) शैशवकालीन स्वभाषा (मातृभाषा) सीखने के उपक्रम
(ii) शिशु की भाषा बनाम् वयस्क की भाषा
(iii) भाषा से निःसृत अर्थ को ग्रहण करने की प्रक्रिया और उसकी खोज
(iv) भाषिक उपपत्तिगत इकाई और संवेद्य स्थिति के तालमेल की व्यावहारिकता की खोज
(v) मनोभाषा-विज्ञान भाषिक स्तर पर अर्थ प्रकट करने वाले वाक्य के अंतर्गर्भ का अध्ययन करता है।
 
शिशुओं में वस्तु-प्रतीति अथवा अभिज्ञान के विकास की एक सहज स्वाभाविक प्रक्रिया होती है जो जन्म के उपरांत नहीं, जन्म के पूर्व से ही अत्यंत सूक्ष्म रूप में विद्यमान होती है। ज्ञान और चेतना का यह विकास इस अर्थ में तत्काल नहीं वरन् यह एक अनवरत की प्रक्रिया की देन है। बच्चे या संभवतः एक सीमा तक वयस्क भी, अपनी शारीरिक परिवर्तित स्थिति और मनस्तत्वपरक बदलाव का ठीक-ठीक अनुमान नहीं लगा पाते । बच्चों में यह विकास अत्यंत तीव्र गति से होता है जबकि वयस्कों में ठिठक-ठिठक कर । बच्चों में विकास-क्रम से बदलती हुई क्रियाएँ उसकी पक्वावस्था की द्योतक होती हैं। शनैः शनैः होने वाली आगिक और मानसिक विकास की प्रक्रिया में बच्चों में व्यावहारिक तौर पर ज्ञान की बहुविध दिशाओं का अन्वेषण होने लगता है। इनमें व्यावहारिक नैतिक धार्मिक, भाषिक और मानसिक प्रवृत्तियों के विकास की सभी स्थितियाँ हैं।
 
मनोभाषाविज्ञान में प्रत्यक्षरूपेण मन के साथ भाषा के संबंधों का निरूपण किया जाता है। निश्चय ही इस अर्थ में चाम्स्की की इस मान्यता का यथार्थ समझ में आता है जब वह कहता है कि भाषा जन्मजात प्रवृत्ति है, और अगर यह जन्मजात प्रवृत्ति है तो स्वाभाविक रूप में उसका संबंध मन से होगा ही। भाषा के विश्लेषण के क्रम में अर्थ की व्यंजना का संदर्श मन से सीधे जुड़ा होता है। साहित्य में प्राचीन काल से ही पश्चिम या पूर्व सभी देशों के रचनाकारों की कृतियों में मनोभाषावैज्ञानिक संदर्भ देखे जा सकते हैं। भले ही यह मनोभाषाविज्ञान शास्त्र की दृष्टि से आधुनिक युग की देन हो।
 
कवि के मन में किसी दृश्य को देखने या किसी ध्वनि के श्रवण से उद्भूत अनुभूति ठीक उसी रूप में आखिर पाठक को कैसे होती है? वेद की ऋचाओं में जो काव्य, ज्ञान या मंत्र हैं वे हजारों वर्षों बाद आज भी खोजी एवं ज्ञानान्वेषी पाठक के अंत:करण की तंत्री के तारों को उन्हीं भावनाओं और अनुभूतियों से झनझनाते हैं जिस प्रकार स्वयं कवि, ऋषि या स्वयंभू ने उस अपूर्व क्षण में देखा-सुना या अनुभव किया होगा। वाल्मीकि के चौबीस वर्णों के अनुष्टुप छंद के शब्दों में मूल ध्वनि की वही प्रतिध्वनि मूर्तित होती प्रतीत कैसे होती है जो तब कवि को अभीष्ट था ?
 
कालिदास के ‘कुमार संभवम्’ का जो पहला श्लोक है, उसमें दीर्घात मात्रा वाले शब्दों का बाहुल्य है। हमारी वर्णमाला में जो मुख्य स्वर हैं वे अपने दीर्घ रूप में इस श्लोक में आए हैं: हिमालयों के अंत में ‘य’ का ‘यो’ हो गया है, जिससे लगता है हिमालय की ऊँचाई के प्रति पाठक के अवचेतन का ध्यान आकर्षित करना कवि का निश्चित लक्ष्य रहा होगा।
 
सूरदास आंतरिक भावनाओं को सजीवता से उभारने के लिये शब्दों का मनोवैज्ञानिक प्रयोग कर डालते हैं। अभीष्ट मानसिक प्रभाव उत्पन्न करने के लिये समुद्र की जगह ‘समंदर’ शब्द का प्रयोग किया जाता है । ‘उ’ कार के स्थान पर ‘अ’ कार तथा अनुस्वार के प्रयोग से सागर के असीम विस्तार, उद्वेलन व चंचलता का गत्यात्मक चित्र उत्पन्न करने का प्रयास होता है। कई बार मनोभाषा-विज्ञान व भाषा-मनोविज्ञान एक दूसरों से इतने अंत: संबद्ध प्रतीत होते हैं कि लगता है, यह मनोभाषा-विज्ञान जबरिया का शास्त्र है।
 
अलंकार एक ओर भाषा के परिष्कारक होते हैं तो दूसरी ओर भावों के प्रयोजन की अंतर्दृष्टि के सूचक भी। मनोवैज्ञानिक शब्दावली में ‘मानवीकरण’ एकीकरण मानसिक रक्षायुक्ति का ही परिणाम है। इसी तरह प्रतीकात्मकता मानसिक प्रक्रिया का चमत्कार ही तो है। विभिन्न प्रतीकों का दामन थामकर अंतस् को चित्रमयता से उकेरते हुए उसमें संप्रेषणीयता उत्पन्न कर देती है। ऐसे ही अप्रस्तुत विधान का भी
एक मनोमय संसार है
 
हमारे कंठ-स्वर भी मनोभाषिक रूप ही हैं। वाणी कभी असत्य भाषण कर भी दे, किंतु कंठ-ध्वनि को
समझने में भूल नहीं हो सकती । शब्द कुछ भी कहें, अंत:करण तो ध्वनि में झंकृत हो उठता है। किसी भी कारण से मन:स्थिति डावाँडोल होने पर वाक्य-विन्यास अव्यवस्थित हो जाता है। भावावेश की प्रबलता भावाभिव्यक्ति में व्यतिक्रम उपस्थित करके भाषा को अव्यवस्थित कर देती है।
 
यह अंतद्वंद्व की भाषा क्या है ? हमें पता है कि भाषा और मनोविक्षिप्रता का कितना घनिष्ठ संबंध होता है। किसी मानसिक रोग से ग्रस्त होने पर भी मनुष्य की भाषा में परिवर्तन आ जाता है। कुछ ऐसे अनावश्यक शब्द उसके मुख से निकलने लगते हैं कि व्यक्ति का ध्यान इस तथ्य की ओर आकर्षित हुए बिना नहीं रहता । मनोवैज्ञानिक तो कुछ शब्दों का विश्लेषण करके ही उसके रोग का पता लगा लेते हैं।
 
प्रसिद्ध आंग्ल उपन्यासकार जेम्स ज्वायस का कथन है कि “मानसिक जगत के गतिशील स्वरूप को व्यक्त करने के लिये वाक्य के अंत में पूर्ण विराम नहीं लगाना चाहिये।” अम्यंतर का यह गत्यात्मक रूप मनोभाषिक स्थिति का पर्याय ही तो है। उलझी हुई संवेदना और संत्रास को व्यक्त करके के लिये भाषा में अनेक तरह के मनोवैज्ञानिक प्रयोग तक किये जाते हैं। ऐसी स्थिति में कर्ता, कर्म, क्रिया व विशेषणों के परंपरागत प्रयोग में व्यर्थ हो जाते हैं, क्योंकि इन अस्पष्ट वाक्यों के समान ही मस्तिष्क में उठने वाले विचार भी अबूझ व बेतरतीव हैं। चिंतन की अवस्था में गहनता में डूब जाने पर प्रायः व्यक्ति ऊँगली व अँगूठे से भौंहों को सहलाने लगता है।
 
इस प्रकार वैसे तो यह मनोभाषा-विज्ञान आधुनिक सोच की खोज है परंतु इसके तहत प्राचीन साहित्य से लेकर अद्यतन साहित्य में इसका विनियोग हो रहा है। रचना में सजीवता लाने के लिये भाषा में अनेक तरह से मनस्तात्त्विक प्रयोग होते रहे हैं। वस्तुतः यही मनस्तात्विकता आधुनिक मनोभाषाविज्ञान की जननी है।
 
संक्षेप में कह सकते हैं कि मनोभाषाविज्ञान पारपरीण संरचनात्मक भाषा-विज्ञान से कतई भिन्न है क्योंकि इसमें ‘मन’ या ‘मनस्तत्त्व’ केंद्र में रहता है।

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