मन/मस्तिष्क पर नियंत्रण करने का अभ्यास करना

मन/मस्तिष्क पर नियंत्रण करने का अभ्यास करना

                   मन/मस्तिष्क पर नियंत्रण करने का अभ्यास करना

हमारा मन / मस्तिष्क हमारे ज्ञान के अवयवों अर्थात् इन्द्रियों को नियन्त्रित करता है और वह स्वयं बुद्धि द्वारा नियन्त्रित होता है. इस प्रकार हमारी बुद्धि मस्तिष्क के माध्यम से इन्द्रियों को नियन्त्रित करती है. यदि इन्द्रियाँ घोड़े हैं, तो मस्तिष्क लगाम है जिसके माध्यम से सारथी बुद्धि इन्द्रियरूपी घोडों को नियन्त्रित करती है.
रथ वांच्छित दिशा में उसी स्थिति में चलेगा जब घोड़ों के ऊपर बुद्धि का पूर्ण नियन्त्रण होगा और यह तब सम्भव है जब घोड़ों की लगाम पूरी तरह बुद्धि के हाथ में हो. जीवन के कारखाने में मन/मस्तिष्क एक अधीक्षक है, जो इन्द्रियों रूपी कर्मचारियों को संचालित करता है. अन्तिम निर्णय करने और तद्नुसार निर्देश देने का कार्यक्षेत्र बुद्धि का है. बुद्धि यदि मेघाच्छन्न अथवा अस्पष्ट है, तो मन/मस्तिष्क उसकी बात सुनेगा, जो कारखाने में सबसे अधिक जोर से बोलता है. यानी मस्तिष्क उस इन्द्रिय के प्रति प्रवृत्त हो जाएगा, जो सर्वाधिक प्रबल रूप में अपनी वासना को अभिव्यक्ति प्रदान करती है. इस प्रकार जीवन के सम्यक संचालन के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है मस्तिष्क/मन पर बुद्धि का पूर्ण नियन्त्रण होना. मन/मस्तिष्क पर पूर्ण नियन्त्रण मानव की सबसे बड़ी विजय है. कहा भी जाता है कि विश्व पर विजय प्राप्त करने के लिए मन पर विजय प्राप्त करो. यही हमें जीवन में जय-पराजय की बात सिखाता है-मन के हारे हार है, मन के जीते जीत. असुन्दर शरीर में सुन्दर मस्तिष्क की स्थिति सुन्दर शरीर में असुन्दर मस्तिष्क की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ माने जाने का कारण ही यह है कि कार्य व्यक्तित्व एवं चरित्र के परिचायक होते हैं. ठीक ही कहा जाता है- सुन्दर वह है, जो सुन्दर आचरण करता है,
बुद्धि संश्लेषण है और मन/मस्तिष्क का स्वभाव विश्लेषण है. बुद्धि मैं, मेरा के का स्वभाव से परे रहती है, जबकि मन/मस्तिष्क ( बौद्धिकता) मैं, मेरा के भाव द्वारा ग्रसित रहता है. जिस व्यक्ति का मन / मस्तिष्क बुद्धि का अनुगामी हो, अर्थात् अपने अहंकारी स्वभाव से वंचित हो जाता है, वह स्थितप्रज्ञ, पूर्णयोगी विकसित मानव आदि कहा जाता है जब तक मन / मस्तिष्क स्वार्थ पूर्ति में इन्द्रियों की वासनाओं की पूर्ति में लगा रहता है, तब तक वह स्वतंत्र नहीं हो पाता है. स्वतंत्र होने के लिए आवश्यक है कि मन / मस्तिष्क मैं, मेरा के भाव (अहंकार) को दूर रखे. बुद्धि और मन के स्वभावों में मौलिक अन्तर है. अतएव उनके मध्य निरन्तर संघर्ष चलता रहता है. अन्तःकरण  इसकी अनुभूति करता है. फलत: मनुष्य बेचैन बना रहता है. पशुओं को इस प्रकार की बेचैनी की अनुभूति नहीं होती है, क्योंकि उनकी चैतना इतनी जाग्रत नहीं होती है कि वे अन्तःकरण की अनुभूति कर सकें स्वार्थ सिद्धि अथवा इन्द्रियों की वासनाओं से छुटकारा पाकेर इस संघर्ष से मुक्ति सम्भव है. यह मुक्ति मानवता की प्राप्ति हेतु महत्वपूर्ण सोपान है. इस स्वतन्त्रता की अवस्था में जय-पराजय का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता है. इसी को लक्ष्य करके महात्मा गांधी कहा करते थे कि सत्याग्रही की हार कभी नहीं होती है. उनका मंतव्य स्पष्ट था. सत्याग्रही स्वार्थ को त्याग कर परमार्थ के मार्ग पर चलता है. वह अपनी साधना द्वारा प्रत्येक पग पर पवित्र होता रहता है.
मस्तिष्क/मन यदि बुद्धि की आवाज सुने और तद्नुसार इन्द्रियों को आदेश दें, तो बुद्धि और मन के मध्य होने वाला संघर्ष बन्द हो जाए. जब हम यह कहते हैं कि मुझे बड़ी बेचैनी है, मेरा मन व्याकुल है, अशांत है, तब समझना चाहिए कि हम कोई ऐसा कार्य कर रहे हैं अथवा हमने कोई ऐसा कार्य किया है, जो हमारी बुद्धि नहीं चाहती है. जे. कृष्णमूर्ति का कहना है कि किसी भी कार्य को करने के पहले अपने आप से यह प्रश्न करो कि क्या इस काम को मैं करना/ चाहता हूँ अथवा मेरा मन ऐसा करना चाहता है ? उत्तर सुन कर यदि कार्य क्रिया जाएगा, तो / न कभी गलत काम होगा और न अन्तर्द्वन्द्व होगा.
महाभारत के अरण्य पर्व में यक्ष प्रश्न प्रकरण के अन्तर्गत यम धर्मराज युधिष्ठिर से प्रश्न करता है- विश्व में सर्वाधिक गतिमान क्या है ? धर्मराज उत्तर देते हैं ‘मन् यम संतुष्ट हो जाता है, मन वस्तुतः सर्वाधिक गतिवान मनोवेग है, इसी कारण यह सदैव अस्थिर एवं बेचैन बना रहता है. अर्जुन ने मन की चंचलता को लक्ष्य करके कहा था कि “प्रभु मन बड़ा चंचल है, इसको वश में करना अत्यन्त दुष्कर प्रतीत होता है. भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन की विवशता एवं कठिनाई स्वीकार करते हुए परामर्श दिया था. “
मन को वश में करने के सम्बन्ध में स्कंध पुराण में एक कथा आती है. कुरुक्षेत्र के युद्ध के उपरान्त धर्मराज युधिष्ठिर अश्वमेध यज्ञ करना चाहते हैं. श्रीकृष्ण चाहते थे भीम को मन को वश में करने का उपाय बताया जाए वह भीम को निर्देश देते हैं कि यज्ञ के लिए पुरुष मृग को लाना है. यह मृग हिमालय पर रहता है. साथ ही श्रीकृष्ण भीमसेन को चेतावनी देते हैं कि मृग मन की गति से दौड़ता है, तुम्हें मन की गति से दौड़ना पड़ेगा, अन्यथा वह मृग तुम्को मार डालेगा. भीम वायु वेग से चल सकेते थे. उन्होंने सोचा कि वायु की गति से चलने में समर्थ होने के फलस्वरूप वह सफलता खोज में भीम पूग की वहाँ मार्ग प्राप्त कर लेंगे. हिमालय पर्वत पर पहुँच जाते हैं. में वह अपने भाई हनुमान (दोनों वायु पुत्र, हैं) से मिल जाते हैं. भीम हनुमानजी से अपने उद्देश्य का उल्लेख करते हैं हनुमान भीम से कहते हैं कि पुरुष मृग को नियन्त्रित करने का एक ही उपाय है, तुम मार्ग में एक हजार शिवलिंग रख दो. शिवजी का भक्त होने के कारण मृग प्रत्येक लिंग पर रुकेगा और सहस्र बार शिव नाम का जप करेग्रा. इस प्रकार तुम उसके वेग का मुकाबला कर सकोगे और तुम अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त कर लोगे कहने की आवश्यकता नहीं है कि भीम ने तद्नुसार कार्य किया था और सफलता प्राप्त की थी. अश्व हमारी इन्द्रिय एवं उनकी वासना का प्रतीक है. उनको समाप्त करना ही अश्वमेध (घोड़े का वध) है, यह तब सम्भव है जब उनका स्वामी पुरुष रूप मन वश में हो जो मन के अपार वेग से गतिमान रहता है. यदि जप रूपी रुकावटें उसके मार्ग में हों, तो वह वश में किया जा सकता है- यह परामर्श है हनुमान का- हन्यमन्यु का जिसका अहंकार नाश को प्राप्त हो चुका है.
जीवन में सुख शान्ति प्राप्त करने के लिए स्वतंत्र मानव के रूप में रहने के लिए ग्रह अनिवार्य है कि हम मन के स्वार्थबद्ध आचरण की उपेक्षा करें और अन्दर से आने वाली आवाज को बुद्धि के संकेतों को सुनने और तदनुसार आचरण करने का अभ्यास करें.

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