महापुरुष आसमान से नहीं उतरते

महापुरुष आसमान से नहीं उतरते

                   महापुरुष आसमान से नहीं उतरते

“प्रकाश फैलाने के दो तरीके होते हैं, या तो दीपक बन जाएं या उसे प्रतिबिम्बित करने
वाला दर्पण”
        समण संस्कृति के चौबीसवें तीर्थंकर अर्हा श्री महावीर स्वामी ने अपने उपदेशों में
इस बात पर बहुत बल दिया कि “इंसान जन्म से नहीं कर्म से महान् होता है.” उनका कहना
था कि समाज में किसी भी वर्ग विशेष को या जाति विशेष को ऊँचा या नीचा नहीं कहना
चाहिए, न ही समझना चाहिए, प्राचीनकाल में भारतीय मानसिकता यही रहती थी कि
ब्राह्मण व क्षत्रिय जाति उच्च है व वैश्य मध्यम तथा शूद्र निम्न कोई भी महापुरुष
उच्च कुल में ही जन्म लेता है. वह कभी वैश्य या शूद्र कुल में जन्म नहीं लेता है, किन्तु इस
मानसिकता को भगवान वर्द्धमान महावीर स्वामी ने एवं समण गौतम बुद्ध इन दोनों
महापुरुषों ने बदला समण दर्शन का यह उद्घोष रहा कि हर इंसान अपने संकल्प बल
को जगाकर, उसका सदुपयोग कर मानव से महामानव बन सकता है. हर आत्मा में
परमात्मा निहित है. मात्र उसे जानकर उजागर करने की जरूरत है. अंगुलिमाल जैसा हिंसक
इंसान भी बदल सकता है व महान् साधू हो सकता है. बाल्मीकि चोर व डाकू था, किन्तु
महान् ऋषि बन गया.
         प्राचीनकाल से भारत में दो प्रकार की मान्यताएं प्रचलित हैं- एक उत्तारवाद की,
दूसरी अवतारवाद की अवतार शब्द का प्रयोग उन इंसानों के जन्म के लिए किया
जाता था, जो इस देह से कुछ ऐसे कार्य कर गए जिनकी यशोकीर्ति पूरी मानव जाति में
गाई जाती रही जैसे श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि. कुछ धर्मों की ऐसी सोच व मान्यता रही है कि
जब भी कोई इंसान अपनी क्षुद्र सोच, स्वार्थ व संकीर्णता के घेरे से ऊपर उठ कर पूरे
समाज व मानवता के लिए महान् कार्यों का सम्पादन करता है, जनमानस को दुःख
मुक्ति का मार्ग बताता है, उसे जीना सिखाता है. उसे दासता से मुक्ति दिलाता है. दीन-
दुःखियों का दुःख दूर करता है. वे स्वयं भगवान के अवतार होते हैं. भगवान स्वयं
ऐसे मानवों के रूप में अवतरित होते हैं व अधर्म, अन्याय व अज्ञान से ग्रस्त इंसानों को
न्याय, धर्म व ज्ञान का प्रकाश देते हैं. हिन्दू मान्यता है कि-
                          यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
                          अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
    जैन दर्शन कहता है, जो भगवान हैं। वह तो इस सांसारिक बंधनों से पूर्णतया
मुक्त हो चुके हैं. अतः वे पूर्ण निष्काम हैं, वे दुबारा जन्म-मरण नहीं करते हैं, किन्तु इस
मानव शरीर में मौजूद चेतना अपना उच्चतम विकास कर स्वयं ‘महापुरुष हो सकती है. वह
समस्त भीतरी बाहरी संघर्षो को धैर्य व प्रेम से जीतकर महान्ता का दर्जा प्राप्त कर
सकती हैं. यही कारण है कि समण दर्शन कहता है कि महापुरुष अपना उत्तार करते
हैं, वे किन्हीं लोकों से अथवा आकाश से नहीं उतरते, बल्कि अपनी आत्मिक क्षमताओं
को पहचानकर उनका विकास करके स्वयं का व सम्बन्धित जनों का उद्धार करने में
निमित्त होते हैं हर इंसान में यह योग्यता अन्तर्निहित है कि वह महान् हो सके जिस
प्रकार हर बीज में वृक्ष होने की सम्भावना है उसी प्रकार हर आत्मा में महात्मा व परमात्मा
होने की क्षमता अन्तर्निहित है. जरूरत है अपनी क्षमताओं को पहचान कर उन्हें
उजागर करने की समय-समय पर इस धरा पर ऐसे महामानव हुए हैं जिन्होंने अनेक
लोगों को योग्य बनाया है. दक्ष बनाया है. उन्हें जीना सिखाया है. उन्हें संघर्षों का
धैर्यपूर्वक सामना करना सिखाया है. रामकृष्ण परमहंस स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी,
पश्चिम में हुए महान् दार्शनिक सुकरात, लाओत्से, च्वांशत्सु इत्यादि ऐसे ही महापुरुष
जैन दर्शन कहता है कि हर आत्मा विविध गतियों व योनियों में भ्रमण करते हुए स्वयं
को विकसित करती है. विकास की चरम सम्भावना इसी मानव जीवन में सम्भव है
इसीलिए यह जीवन अन्य सभी जीवनों से श्रेष्ठ है, श्रेष्ठतर है. प्राचीन ऋषि-मुनियों ने
कहा कि-
                ‘न हि मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किञ्चिद्।’
 इस मनुष्य के जीवन से श्रेष्ठ अन्य कोई जीवन है ही नहीं.
         एक बार की बात है किसी इंसान के मन में यह जिज्ञासा पैदा हुई कि इस प्रकृति
में इतने महान्-से-महान् तत्व बिखरे पड़े हैं- सोना, चाँदी, हीरा, माणिक, पन्ना, रत्न,
लोहा, सीसा, जस्ता इत्यादि फिर क्या कारण है कि इंसानी देह का निर्माण मिट्टी
से हुआ. मिट्टी के घड़ों की तरह जरा-सा आघात लगते ही यह देह भी क्षत-विक्षत हो
जाती है. कितना अच्छा होता यदि इस मानव देह का निर्माण भी किसी मजबूत
धातु से होता, तो अनेक वर्षों तक इसका कुछ भी बिगाड़ न होता, उस इंसान ने
अपनी यह जिज्ञासा किसी ज्ञानी संत के समक्ष रखी. उसकी जिज्ञासा सुनकर संत
मुस्कराए और कहने लगे कि एक बात कही। युवक इस धरती पर मिट्टी के सिवाय और
कौनसा ऐसा तत्व है, जो फसल उगाने की अनंत क्षमता रखता है. सोना सोने को उगा
नहीं सकता. न ही स्वर्ण स्थल पर किसी ऐसी उपयोगी सामग्री को पैदा कर सकता है.
जोकि मानव के ही नहीं प्राणी मात्र के काम आए, पर मिट्टी ही एक मात्र ऐसी सम्पदा है,
जो न जाने कितने प्राणियों के लिए गर्भ स्वरूपा है, संरक्षण कर्ता है व पोषिका है
इसीलिए इस मानव देह का निर्माण मिट्टी से हुआ है, जो अनंत सम्भावनाओं का पिण्ड है.
कहने का तात्पर्य यह है कि एक इंसान अपने इस जीवन का सदुपयोग कर महामानव
बन सकता है, तो दुरुपयोग कर दानव भी. हमारा यह जीवन चौराहे की भाँति है जहाँ
से चारों दिशाओं में जाने के रास्ते खुलते हैं, देखिए-
                                    देव अवस्था
                                            ↑                  तिर्यन्व
 पुनः मनुष्य या मोक्ष  ← मानव जीवन→  (पशु-पक्षी अवस्था)
                                           ↓
                                    नरक अवस्था
 
      जो इंसान अपनी योग्यताओं की वास्तविक चरम परिगति को उपलब्ध हो
जाते हैं, वे ही ‘भगवान’ कहलाते हैं. भगवान कहो, ईश्वर, अल्लाह, खुदा या परमात्मा हर
शब्द इंसान की ही उत्कृष्ट चरम विकसित अवस्था का ही नाम है. वीतराग वाणी कहती है
कि हमारे जीवन की तीन श्रेणियाँ सम्भव हैं-
                                  (1) जीवात्मा (2) महात्मा (3) परमात्मा 
जीवात्मा तो हम सभी हैं ही, अगर हम महान् संकल्पों के धनी, उदार हृदय व
सर्वजन मंगल की भावना से भरकर प्रत्येक क्षण जीवें, तो हम ‘महात्मा’ हो जाते हैं, जब
महात्मा पुरुषों के भीतर कोई भी सात्विक, राजसिक या तामसिक इच्छा वृत्ति शेष नहीं
बचती, तब वे ‘परमात्मा हो जाते हैं. 
        महापुरुष आसमान से नहीं उतरते, वे इसी धरती पर ही हमारे बीच में, हम जैसे
ही होते हैं. इन्हीं हवाओं में सांस लेते हैं, वहीं दाल-भात, रोटी खाते हैं. ये सब कहने
का तात्पर्य इतना ही है कि हम ये सोचें कि जो महापुरुष हुए हैं या होंगे वे कोई और ही
तरह के लोग होंगे, हम नहीं हो सकते हैं. हम हो सकते हैं. हमें यह विश्वास हो, तो
हम स्वयं ही ईश्वर हो सकते हैं. आत्मज्ञानी श्री विराट गुरुजी का कहना है कि-
                           है खुदा जग में तो यह विश्वास है।
                           खोजते बाहर मगर वो पास है।
                           संकटों में क्यों उखड़ती सांस है।
                           बच के चलना सीख लें बस,
                           ‘इष्ट पर अवधान होना चाहिए।
                            जिंदगी ज्योति है जगमग,
                            चित्त में सद्भाव होना चाहिए।

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