मातृभूमि की मिट्टी से प्रेम करना सीखिए
मातृभूमि की मिट्टी से प्रेम करना सीखिए
मातृभूमि की मिट्टी से प्रेम करना सीखिए
जापान का एक चित्रकार भगवान बुद्ध के जीवन के अनेक प्रसंगों को अपनी
तूलिका से चित्रित करने के उद्देश्य से सारनाथ (वाराणसी के पास) आया हुआ था.
वह भगवान बुद्ध के जीवन के प्रसंगों को दीवालों पर चित्रित करने के काम में
दिन भर दत्तचित्त होकर जुटा रहता था. रात के समय बटलोई में कुछ चावल, दाल और
आलू डालकर अपने लिए खिचड़ी बना लेता.
एक दिन एक बौद्ध भिक्षु ने उसे एक डिब्बे में से चावल के कुछ दाने निकालकर
खिचड़ी में मिलाते देख लिया बौद्ध भिक्षु ने पूछा “क्या चावल के दानों में कोई
विशेषता है, जो तुमने चावल-दाल में मिलाए हैं.” चित्रकार ने उत्तर दिया, “महाराज,
चावल के ये दाने मेरे देश जापान में उत्पन्न हुए हैं. मैं इन्हें अपनी मातृभूमि का परम
प्रसाद मानकर प्रतिदिन अपने भोजन में मिला लेता हूँ. इस माध्यम से अपनी मातृभूमि से
जुड़ा महसूस करता हूँ.”
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मानव-विकास के संदर्भ में थियोसोफीकल चिन्तनधारा में कैलीफोर्निया का विशेष
महत्व है. वहाँ के एक वृक्ष में बहुत सुन्दर फूल लगते हैं. थियोसोफीकल सोसाइटी के
एक उत्साही कार्यकर्त्ता ने उस श्रेणी के एक पौधे को अडयार (चेन्नई) स्थित सोसाइटी
के प्रधान कार्यालय के उद्यान में आरोपित कर दिया. कुछ दिनों बाद वह पौधा मुरझाने
लगा, यद्यपि उसकी पूरी तरह देखभाल की गई थी.
वह कार्यकर्त्ता अगली बार (लगभग 1 वर्ष बाद) जब कैलीफोर्निया गया, उन्होंने
उस बगीचे के माली को उपालम्भ दिया कि उसने इस प्रकार का पौधा क्यों दिया. माली
ने अपनी चूक स्वीकार करते हुए एक पौधा दोबारा दे दिया-साथ में लगभग 20 किलो
मिट्टी दी और कहा- ‘यह कैलीफोर्निया की मिट्टी में पनप सकेगा.” इस बार पौधे ने
जड़ पकड़ ली. वह थियोसोफीकल सोसाइटी, अडयार के बगीचे की शोभा बढ़ाने लगा
उसकी अन्य कलमें भी लगाई गई. वे लहलहाने लगीं, परन्तु सबको लगाते समय
पहले पौधे के थाले में से कुछ मिट्टी लेकर, नई कलम को लगाते समय इस्तेमाल की
जाने लगी. उक्त दोनों उदाहरण यह घोषित करते हैं कि विदेशों के निवासियों में अपने
देश की मिट्टी के प्रति गहरा लगाव पाया जाता है. इतना ही नहीं, वनस्पति जगत् में
भी इस प्रकार का लगाव पाया जाता है. जिस देश की अन्तः प्रकृति एवं बाह्य प्रकृति
में देश की मिट्टी से लगाव हो, उस देश को क्या कभी गुलाम बनाया जा सकता है?
जापान और जर्मनी के उदाहरण तो हम्मरे जीवन में घटित होने वाली घटनाएँ हैं.
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इन दोनों देशों पर भिन्न देशों के मुखिया अमरीका ने
अधिकार कर लिया था, परन्तु कुछ ही वर्षों के अन्तराल पर दोनों देश स्वतन्त्र हो गए
और आज ये दोनों देश विश्व की महान् शक्तियों में गिने जाते हैं.
हम अपना हृदय टटोलकर देखें, क्या हमारे मन में देश की मिट्टी के प्रति लगाव
है? हमारा देश शताब्दियों तक विदेशी शासन में रहने के बाद जब किसी प्रकार
राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने में समर्थ हुआ तब हमने प्रसन्नतापूर्वक अपने देश
का नाम गुलामी की निशानी के तौर पर भारत की जगह इण्डिया कर लिया. देश का
नामकरण किसी विदेशी भाषा में करना यह प्रकट करता है कि हमने स्वतंत्रता प्राप्ति को
मात्र एक औपचारिकता के रूप में स्वीकार किया है, उसको हम अपनी अस्मिता नहीं
मानते हैं. ऐसी स्थिति में यदि हम मानसिक दासता को सगर्व धारण करते हैं, तो
आश्चर्य की कोई बात नहीं है.
आर्थिक दासता को हम विकास की पहचान मानते हैं तथा सांस्कृतिक दासता
को सगर्व स्वीकार करके हम आधुनिक एवं प्रगतिशील होने का दावा करते हैं. हमारे
दिमाग में आज भी स्वतंत्रता प्राप्ति के 67 वर्षों के बाद भी यह बात नहीं आती है कि
स्वतंत्रता का आनन्द लेने के लिए तथा उसकी रक्षा करने के लिए यह आवश्यक है
कि हमें देश की मिट्टी, देश की प्रकृति से लगाव हो. हमारे क्रान्तिकारी स्वतंत्रता सेनानी
सम्भवतः यह जानते थे कि जिन्हें हम जड़ कहते हैं, उन पेड़-पौधों को भी अपनी मिट्टी
से लगाव होता है. वे बार-बार उच्च स्वर में गाते थे-
“सूख जाए न पौधा यह आजादी का ।
खून से अपने इसलिए हम तर करते हैं।”
‘समाधि’ नामक फिल्म में एक बार यह दृश्य देखने को मिला था कि आजाद हिन्द
का एक सैनिक घायल होने पर किसी प्रकार फिसल-फिसल कर प्राण त्यागने के
पहले भारत की मिट्टी का स्पर्श करके परम संतोष का अनुभव करता है. परन्तु आज
हमारे नौनिहालों की यह स्थिति है कि उन्हें भारत की मिट्टी में दुर्गन्ध आती है और वे
विदेश में जाकर बस जाने को जीवन का परम लक्ष्य मानते हैं, जिनके बच्चे विदेशों में
रहते हैं, वे वहाँ उपलब्ध भौतिक सुविधाओं का बखान करते थकते नहीं हैं और जो
अपने बच्चों को विदेश का भ्रमण नहीं कराते हैं, उन्हें वे कूपमण्डूक कहते हैं और
जो ऐसा करने में असमर्थ हैं, उन्हें तो वे हिकारत (घृणा) की नजर से देखते हैं, क्या
इस वर्ग के व्यक्ति कभी श्री सोम ठाकुर की इन पंक्तियों में निहित महत्व को समझने
का प्रयास करते हैं-“मेरे भारत की माटी है चन्दन और अबीर”?
ध्यातव्य है कि विदेशों में इस प्रकार की भावाभिव्यक्ति का कितना महत्व है, इसका
अनुमान लगाने के लिए इतनी जानकारी पर्याप्त है कि इस कविता को सुनाने के
पीयूषवर्षी सोम ठाकुर को कई देशों द्वारा आमंत्रित किया जा चुका है.
एक बार विद्यार्थियों के सामने यह विकल्प था कि दो टिकटों में से उन्हें एक
टिकट लेना है. एक टिकट में भारत के चारों धाम एवं सप्तपुरियों के दर्शन का
प्रावधान है और दूसरे में लंदन अथवा न्यूयॉर्क की यात्रा की व्यवस्था है. एक स्वर
से आवाज आई थी- द्वितीय विकल्प के पक्ष में यह उत्तर सुनकर आश्चर्य होना
स्वाभाविक था, क्योंकि लगभग 20 वर्ष तक स्वतंत्रता सेनानियों को भारत माता की
चरण रज मस्तक पर धारण करते देखा गया था. उस युग में हॉकी के जादूगर स्व.
ध्यानचंद आदि कई व्यक्तियों ने विदेशों में मिलने वाली आकर्षक नौकरियाँ अस्वीकार
कर दी थीं, और अपने देश में सीमित साधनों को वरीयता प्रदान की थी. उन्हें देश
की मिट्टी से प्यार था.
जो नवयुवक अपने देश की मिट्टी के प्रति लगाव नहीं रखते हैं, वे अडयार में
कैलीफोर्निया से लाए हुए पौधे के सामने खड़े होकर प्रश्न करें-मैं ‘जड़’ हूँ अथवा
यह पौधा ‘जड़’ है.
जिसे अपने देश की मिट्टी से लगाव नहीं है, वह कैसे कह सकता है कि वह इस
देश का निवासी है ? वह अन्यत्र भले ही स्वर्ण निर्मित भवनों में रहने लगे, परन्तु
कहलाएगा खानाबदोश ही उसे अपने को स्वतंत्र कहने का अधिकार तो प्राप्त हो ही
नहीं सकता है, क्योंकि विदेशों में बसने की सुविधा तो उन गुलाम देश के निवासियों को
भी होती है, जहाँ से उन्हें गुलामों के रूप में निर्यात किया जाता है.
हमें पूर्ण विश्वास है कि हमारा युवा वर्ग स्वतंत्रता के नाम पर भारत की मिट्टी से
प्यार करने की भावना का विकास करने का प्रयत्न करेगा.
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