मात्र समर्पण ही नहीं, समझदारी भी जरूरी है

मात्र समर्पण ही नहीं, समझदारी भी जरूरी है

       मात्र समर्पण ही नहीं, समझदारी भी जरूरी है

आप शायद सुनकर चौंक रहे होंगे, क्योंकि हर कोई समर्पण के ही गीत गाता है.
सदा परमात्मा या गुरु को अर्पण करने की ही बात करता है. साधु-सन्तों, महात्माओं को
सुनो, तो वे भी आपको समर्पण का ही पाठ पढ़ाते मिलेंगे, किन्तु हमारा अनुभव यह कहता
है कि समर्पण तभी सम्भव हो सकता है, तभी वास्तविक हो सकता है, जब आप समझदार
भी होंगे. नासमझ व्यक्ति समर्पण भी पूरा नहीं कर सकेगा, क्योंकि उसकी नासमझी जब
कभी अहं व बहस में तब्दील हो जाएगी तो वह समर्पण की जगह पर भी लड़ पड़ेगा. अपने
इष्ट गुरु के नाम के गीत भी गा लेगा और अपनी डफली की तान भी छोड़ने को तैयार
नहीं हो सकेगा यानि खुद की बात भी चलाता रहेगा जैसे एक पुरानी लोकोक्ति है कि-
                नादां की दोस्ती जी का जंजाल
        अर्थात् दोस्ती भी अगर नादान से की गई है. बेवकूफ व अल्हड़ आवारे के साथ
की गई है, तो वह भला नहीं कर सकेगी, बहुत सम्भव है कि ऐसा दोस्त मुसीबत में
काम आने की बजाय स्वयं मुसीबत का घर बन जाए वह आपकी साख बढ़ाने की बजाय
उसकी साख उड़ाने वाला बन जाए. वह कहीं भी कभी भी कुछ ऐसा कर दे या बोल
दे, तो आपके जी का जंजाल बन जाए. ऐसे में आप क्या कहेंगे ? यही ना कि कुछ अच्छा
करने की बजाय सारा श्रम और समय फटी को सीने में ही लग जाता है. पैबन्द लगाने
में ही लग जाता है. ये दोस्ती है या दुश्मनी का एक अलग तरीका खैर, हम चेते कि
हम स्वयं भी ऐसे नादां तो नहीं हैं कि हमारी वजह से हमारे परिजनों और मित्रों के
जीवन में अशान्ति व्याप्त हो रही हो. हम किसी को भी दिक्कत में डालने वाले तो नहीं
बन रहे हैं. हमें अपनी दोस्ती, अपने प्यार और समर्पण के रिश्तों में निम्नवत् बातों से
बचकर रहना चाहिए-
1. परस्पर शंका और शिकायतें.
2. अनावश्यक इच्छाएं व अपेक्षाएं.
3. अधिक महत्व पाने की लालसाएं.
4. कल्पित भय व दुःखपरक सोच बनाने की आदतें.
5. अनुपयोगी व अप्रीतिकर बातों को लम्बा खींचने की आदतें.
6. अपनी मानसिकता व शर्तें अन्य को मनवाने की इच्छा.
7. दोषारोपण,परालोचना, तानाकशी व निंदा-चुगली की आदतें.
8. काल्पनिक सुखों में रस लेने की वृत्तियाँ.
9. गुटवाद बनाकर कलह करने की वृत्ति,
10. निराशा उत्पन्न करने वाली वाणी.
11. पुराने विवादित मुद्दों पर बार-बार बहस करने की आदतें.
      प्रेम-निष्ठा व समर्पण के सम्बन्धों में ये तीन सद्गुण अवश्य हों-
1. वफादारी- अपने भीतर इस गुण का महत्व जानो अपने व्यवहार, मन
व विचार-तीनों स्थानों में इस गुण को प्रथम स्थान दो. भूलकर भी कभी अपने परिजनों
व गुरुजनों की विवेचनाएं यत्र-तत्र न करो. सम्भव है आपका मानस कभी किसी के प्रति
असन्तोष से भर जाए, अपने परिजनों से आपकी जरूरतें पूरी न हो पाएं. ऐसे में भी
आप उनकी आलोचनाएं किसी अन्य के सामने न करें. न ही अपने घर-परिवार या
संघ के सदस्यों की बुराई सुनने में रस लेवें. कोई अन्य बुराई कर भी रहा हो, तो उसकी
हाँ में हाँ कभी न मिलावें, बल्कि अपने परिजनों की या गुरुजनों की संघ के किसी
भी सदस्य की मात्र अच्छाई पर ही ध्यान टिकाएं प्रायः हम गलतियाँ तब कर बैठते हैं
जब कोई अन्य हमारी आलोचना कर रहा होता है. कोई अन्य हमारी चारित्रिक आदतों
पर लम्बी-चौड़ी व्याख्याएं व विवेचनाएं कर रहा होता है, तब हम भी उत्तेजित, उद्वेलित
एवं पीड़ित होकर उनकी ही तरह व्यवहार करने लग जाते हैं, किन्तु हमें ऐसा करने से
बचना चाहिए. पुरानी कहावत है किसी को कुएं में गिरते देखकर खुद कुएं में ना गिरो.’
ऐसे समय में भी अपने आपको सँभालो. धैर्य-विनय-विवेक से हर परिस्थिति में राह
बनाने वाला अन्ततोगत्वा अपने निजी संसार को सुन्दर बना ही लेता है.
              2. देखभाल करने वाले बनो – सदा अपने सम्बन्धियों के सुख-दुःख
का ख्याल रखने वाले बनो. उनकी जरूरतों को पूरी करने में तत्पर रहो. सम्भव है आपके
सहवर्ती लोग अपनी जरूरतों के समय आपसे कुछ कहे नहीं, बोलकर आपकी सेवाएं आपसे
न माँगे, किन्तु तब भी आप स्वयं आगे बढ़कर उनके लिए सहयोगी बनना न भूलो.
भला हममें से कौन ऐसा होगा, जो दूसरों द्वारा देखभाल करने पर खुश न होता
हो ? जब कोई हमारा मददगार बनता है, तब हमें कितना अच्छा लगता है ? ऐसे में
कई बार हमारे लिए दो घण्टों में पूरा होने वाला काम 20-25 मिनट में ही पूरा हो जाता
है. ऐसे ही हमारा सहयोग सबके लिए हो कोई भी बड़े यज्ञ बिना सहयोग भावना के
पूरे नहीं हो सकते हैं. इसीलिए प्रत्येक को अपनी योग्यता व सामर्थ्य के अनुसार तन-
मन-धन से उपलब्ध वातावरण में सद्भावमय सहयोगी होना ही चाहिए. साथ ही इस बात
का भी ख्याल रखना चाहिए कि यदि सहवर्ती अपना सहयोग आपकी अपेक्षा
के अनुसार न दे अथवा कम दे तब भी आप शिकवा-शिकायतों की विष बेल को
अपने हृदय आँगन में स्थान ही न दे अन्यथा अन्य को देखकर आप प्रभावित होते गए,
तो इस जगत् को अपना अमूल्य सहयोग देकर अमर होने वाले अनगिनत श्रेष्ठगणों
की पंक्ति के उम्मीदवार कभी न हो सकेंगे ना ही अपनी अधिक योग्यताओं का सम्पादन
कर पाएंगे और तब अधिकाधिक योग्यताएं पाने के उन्नत क्रम से भी वंचित रह जाएंगे,
क्योंकि इस प्रकृति का यह शाश्वत नियम है कि “जो जितना देता है वह उससे कई
गुना अधिक पाता है.” आप और हम सभी अपनी-अपनी क्षमताओं का समुचित संविभाग
कर इस जगत् के सौन्दर्य को बढ़ाने वाले भोजन में नमक की भाँति महत्वपूर्ण स्थान पा
सकते हैं.
        3. संघ एकता बढ़ाने वाले बनो- प्राचीन ऋषि गुरुकुल में अपने छात्रों को
संघ एकता की प्रार्थना कराया करते थे. वे सब मिलकर गाया करते थे कि-
                   ‘सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानीयताम्।’
        अर्थात् सब मिलकर एक साथ चलें, सब मिलकर एक साथ गावें और हम सबके
मन एक हो जावें. एक-दूसरे को जानने-समझने वाले होवें पूज्य विराट गुरुजी की
प्रार्थना के भी कुछ पद इसी प्रकार से हैं-
                       एक मन को दूसरे की समझ होवे
                       प्रेम सेवा दान सब बिन गर्ज होवे ।
                       जिंदगी चारों तरफ संगीतमय हो
                       भावना मेरी जगत् में सब अभय हो ।
      जिस भी ग्रुप से आप और हम जुड़ें, हमारा होना उस ग्रुप के सभी सदस्यों को
परस्पर जोड़ने वाला हो, कभी किसी सम्बन्धों में मतभेद न आने दें. कोई तेज होता है,
के कोई धीरे, कोई कैसा कोई कैसा जोड़ें हम से सभी को ? हम सबके साथ तालमेल बैठाकर
से जीना जानें-यही कुशलता हमारी समझदारी गे होगी अन्यथा हम जहाँ भी जाएंगे वहाँ रंग
में भंग पड़ जाएगा. ऐसा न हो.

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