मानव की जय यात्रा के पथिक बनिए

मानव की जय यात्रा के पथिक बनिए

                         मानव की जय यात्रा के पथिक बनिए

“न मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित्”
                      अर्थात् मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है.”
      भर्तृहरि कहते हैं-“विद्वान् लोग ईर्ष्या से ग्रसित हैं, धनी गर्व से दूषित हैं, अन्य
लोग अज्ञानी हैं. अतः श्रेष्ठ मानवीय भाव यों ही नष्ट हो जाते हैं.”
      निष्कर्ष स्पष्ट है श्रेष्ठतर कोटि के मनुष्यों की संख्या अत्यन्त स्वल्प है तथा
संदर्भित श्रेष्ठता सहज प्राप्य न होकर प्रयत्न-साध्य है. एक अंग्रेज विद्वान् का कथन इस
दिशा में हमारा मार्गदर्शन करता है मनुष्य आधे वन्य पशु और आधे मानव-शिशु के
रूप में जन्म लेता है. वन्य पशु को पालतू बनाना होता है और मानव-शिशु का पोषण
करना होता है मनुष्य के विकास की, उसके द्वारा पशुपति के पद की प्राप्ति की
यात्रा संक्षेप में यही है.
              हमने, आपने, सबने जब जन्म लिया था, तब आज जैसे नहीं थे. आदिमानव भी
वैसा न था, जैसा वह आज है. यह उसकी युग-युगों की जय यात्रा के सुफल हैं.
                      क्या आपने देवदारु के दीर्घकाय वृक्ष को देखा है? वह जड़ शक्ति के दुर्वार
आकर्षण-महाकर्षण को पराभूत करते हुए निरन्तर ऊर्ध्वगामी बनकर उन्मुक्त व्योम मण्डल में
विहार करता है और पाषाण की कठोर छाती भेदकर अज्ञात पाताल से अपना रस
खींचता रहता है. विशिष्टता यह है कि वह अपने स्थान पर दृढ़तापूर्वक विराजमान है.
              वास्तविक मनुष्य वही है जो पशु-धरातल से पाशविक गुणों से ऊपर उठा हो.
मनुष्य और पशु में आदिम सहजात अनेक प्रवृत्तियाँ समान रूप से प्रबल हैं-आहार,
निद्रा, भय, मैथुन, लोभ, स्वार्थ आदि, लेकिन मनुष्य फिर भी मनुष्य है, क्योंकि वह दूसरों
के लिए अपना सर्वस्व उत्सर्ग कर सकता है, उसमें त्याग है, संयम है, दया है, ममता
है. करुणा है, संतोष है, श्रद्धा है और सबसे ऊपर हैं- विवेक बुद्धि और संकल्पशक्ति.
इस संदर्भ में विलियम जेम्स का यह अप्रिय कथन उल्लेखनीय है कि “विवेकहीनता के
क्षणों में जब मनुष्य का पशुत्व प्रबल हो जाता है तब वह पशु से भी बुरा होता है, वह ऐसा
भयानक जन्तु बन जाता है जो व्यवस्थित ढंग से अपनी ही जाति के जन्तुओं का
शिकार करता है, परन्तु ये क्षणिक आवेश होते हैं. मनुष्य अन्ततः मनुष्य ही रहता है.
विवेक और संकल्पशक्ति के बल पर वह सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी बन गया. उसने
प्रकृति की दासता कभी स्वीकार नहीं की और अपना सिर सीधा रखने वाला प्रकृति का
एकमात्र जीवधारी बन गया. उसने प्रकृति को अपने अनु-रूप नियमित किया जिससे
अपनी इच्छानुसार वह उसका उपयोग कर सका वस्तुतः यहीं से सृष्टि का एक नया
इतिहास शुरू हुआ, जिसमें मानव की जय यात्रा का अंकन आरम्भ हुआ. चट्टानें इसके
पृष्ठ हैं और भग्नावशेष अक्षर हैं.
              जड़ से चैतन्य, चैतन्य से मन-बुद्धि और मन बुद्धि से मनुष्यत्व का विकास यह
सचमुच विस्मित कर देने वाली एक ऐसी घटना है, जिसकी अवधारणा रक्त कणों में
एक अपूर्व झनझनाहट की अनुभूति का हेतु बन जाती है.
            महाकर्षण की शक्ति जड़ में सबसे बड़ी शक्ति है वह चेतन को नीचे खींचती
है, परन्तु खींच नहीं पाती है. चेतन की ऊर्ध्वमुखी वृत्ति निरन्तर उठती जाती है.
ऊर्ध्वमुखी चेतन उल्लसित होता है. चैतन्य का उल्लास ही वास्तविक मनुषत्व है, जिसका
स्थूल उदाहरण अन्यत्र इंगित देवदारु में देखने को मिलता है. आचार्य हजारी प्रसाद
द्विवेदी के शब्दों में “साहित्य और कला चित् तत्व की ओर आकर्षित करते हैं.
इसीलिए वे उन विज्ञानों से श्रेष्ठ हैं जो चित् तत्व की ओर सीधे नहीं ले जाते.
           जड़ से मनुष्यत्व तक के विकास की श्रृंखला न तो मात्र संयोग पर आधारित है,
न यह सब कुछ यों ही निरर्थक और निरुद्देश्य है. सृष्टि की इस रहस्य-लीला के
पीछे किसी शक्ति की, भले ही वह अभी तक अज्ञात है- प्रेरणा होनी चाहिए त्रिपुर
सुन्दरी का त्रैलोक्यमोहन रूप निश्चय ही किसी महान् उद्देश्य के लिए है. हमारे विचार
से यह महान् गणितज्ञ शिल्पी की महायोजना का एक अंग है. यह योजना अथवा श्रृंखला
अभी अधूरी है. क्या आप किसी ऐसे मनुष्य की ओर इंगित कर सकते हैं जिसमें दोष,
कमी या खोट न हो तब फिर मैन को अधूरा अथवा अपूर्ण विकसित छोड़कर
सुपरमैन की बात क्यों की जाए? इतिहास में मनुष्य की धारावाहिक जय यात्रा की
कहानी पढ़ेंगे, साहित्य और कला में इसी के आवेगों, उद्वेगों और उल्लासों का अनुभव
करेंगे. राजनीति अर्थशास्त्र आदि सर्वत्र इसी की शक्ति को झाँकते हुए पाएंगे. जो कला
या विज्ञान अनादिकाल-प्रवाह में प्रवहमान जीवंत मानव समाज की विकास कथा को
न कहे वह विज्ञान अथवा कला कहे जाने का अधिकारी कदापि नहीं हो सकता है.
          मनुष्य में कुछ पशुत्व, पशु-संस्कार भी हैं, जो थोड़ी-सी उत्तेजना पाते ही, स्वार्थों में
व्याघात उपस्थित होते ही उसके अहंकार को बेकाबू कर देते हैं. इसी के फलस्वरूप
संसार में मार-काट, झगड़े-टण्टे, नोच-खसोट विनाशकारी युद्ध आदि दिखाई
पड़ते हैं. मनुष्यता की उच्चभूमि पर पहुॅचे हुए मनुष्य इन्हें क्षणिक एवं अस्थायी मानते
हैं. वे तो यहाँ तक सोचते हैं कि ये अपने को उत्सर्ग करके महाकाल की लीला में
सहायक होने की मानसोल्लासिनी वेदना है. मनुष्य के नाखून बढ़ते अवश्य हैं, परन्तु वह
उन्हें काटता भी तो रहता है. एक स्थान पर कवीन्द्र रवीन्द्र ने भी लिखा है कि लोहार
की दूकान में दिखाई देने वाले कूड़ा-करकट तथा हथोड़े की चोटों की खटखट के पीछे
वीणा के उन तारों का निर्माण हो रहा है जो सुमधुर संगीत का सृजन करेंगे हम चाहते
हैं कि हमारा युवावर्ग इस प्रकार की उदात्त एवं अन्तर्भेदी दृष्टि का धारणकर्ता बन सके.
तभी यह सम्भव है कि वे मनुष्यता के उस सोपान पर पहुँच सकें जहाँ वे तादात्म्य
स्थापन अथच एकत्व की अनुभूति कर सकें. इस श्रेष्ठतर भावभूमि को प्राप्त करने
के लिए आवश्यक है कि वे परम्परा से रस ग्रहण करें और प्रगतिशील बनें यानी
अनावश्यक रूढ़ियों, गलत वर्जनाओं को नकार कर मानव की जय यात्रा के पथिक
बनने का प्रयत्न करें विकसित मनुष्य की भाँति आप भी अपनी त्रुटियों एवं मूर्खताओं
पर हँसना सीखिए अवसर बनाइए अवसर न होने की शिकायत कर्मवीर नहीं करते हैं.
वे यहीं और अभी हैं,
           एक सामान्य बालक अनवरत् प्रयत्न एवं दृढ़ संकल्पशक्ति द्वारा कितना श्रेष्ठ मनुष्य
बन सकता है, महात्मा गांधी इसके जीवंत उदाहरण रहे. उन्होंने प्रवृत्तियों को छिपाया
नहीं. वह उनसे डरे नहीं, उनके नाम पर वह लज्जित भी नहीं हुए, परन्तु साथ ही उनको
नियन्त्रित करने में उन्होंने कभी किसी प्रकार की न कोताही बरती और न आगा-पीछा
किया, उनका यह कथन हमारे युवा पाठकों का मार्गदर्शक होना चाहिए “प्रत्येक मनुष्य
का यह पावन कर्तव्य है कि वह अपने भीतर पूरी सावधानी से झाँक कर देखे- आत्म-
निरीक्षण करे और अपने को उस रूप में देखे, जैसाकि वह वास्तव में है और फिर
अपनी कमियों को दूर करने में कोई बात उठा न रखे. वह अपने द्वारा किए जाने वाले
अन्याय दुष्टतापूर्ण एवं मिथ्या अहंकार आदि के कृत्यों के परिप्रेक्ष्य में अपना आकलन करे
और उनके निवारणार्थ संघर्ष करें.” विश्वास कीजिए मानव की जय यात्रा इसी मार्ग से
आगे बढ़ी है. आप तैयार हो जाइए.

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