मुंशी प्रेमचंद की ‘मुक्तिधन’ एवं ‘संवदिया’ शीर्षक की कहानी
मुंशी प्रेमचंद की ‘मुक्तिधन’ एवं ‘संवदिया’ शीर्षक की कहानी
मुंशी प्रेमचंद की ‘मुक्तिधन’ एवं ‘संवदिया’ शीर्षक की कहानी
हिन्दी कहानी के क्षेत्र में मुंशी प्रेमचंद अपनी एक विशिष्ट पहचान रखते हैं। वे हिन्दी
कहानी के एक ऐसे सम्राट के रूप में ख्यात हैं जिनसे हिन्दी कहानी को न केवल यथार्थ का
धरातल मिला अपितु उन्होंने हिन्दी कहानी को निरुद्देश्यता से सोद्देश्यता की ओर मोड़ते हुए उसे
नवीन विषय और नवीन भाषा-शैली दी। अतः उनसे हिन्दी कहानी को नयी दिशा मिली।
मुंशी प्रेमचंद विरचित ‘मुक्तिधन’ शीर्षक कहानी उनकी एक यथार्थवादी कहानी है।
इसमें नैतिकता के धरातल पर व्यक्ति की परीक्षा के माध्यम से भावपक्ष का व्यक्तिगत स्वरूप
उभरता हुआ दृष्टिगत होता है। यहाँ पात्रों के मनोभावों के साथ घटनाओं की सृष्टि स्वतः होती
चली गयी है। आर्थिक समस्या यहाँ भले ही मुख्य लगती है पर कहानी का भावपक्ष व्यक्तिगत
नैतिकता के धरातल से गृहीत है।
भारतीय किसान की ऋणग्रस्तता सर्वविदित है। कहा जाता है कि यहाँ किसान ऋण में
जन्म लेते हैं और ऋण में ही मर जाते हैं। यद्यपि ऋणमुक्त होने के लिए वे कम परिश्रम नहीं
करते हैं तथापि वे ऋण के बोझ से दबे रहते हैं। कुछ ऐसी ही सच्चाई प्रस्तुत कहानी के पात्र
रहमान के साथ जुड़ी हुई है।
रहमान पचौली गाँव का रहने वाला एक गरीब किसान है जिसके पास अपनी जमीन
भी नहीं है। उसे खेती करने के लिए जमीदार से कुछ जमीन मिली हुई है जिसके एवज में
उसे लगान भरना पड़ता है। जमींदार द्वारा इस बार इजाफा-लगान का दावा दायर करने के
कारण रहमान को अपनी गऊ बेचने के लिए विवश होना पड़ा है। उसके सामने यह समस्या
है कि गऊ किसी हिन्दू के द्वारा ही ली जाय ताकि उसकी सेवा हो सके। इसलिए वह अपनी
गऊ स्वयं के द्वारा लगाये गये दाम में से पाँच रुपये का नुकसान सहकर अपनी गऊ महज
पैंतीस रुपये में ही लाला दाऊदयाल के हाथों बेचता है जबकि उस गऊ का दाम एक अन्य
ग्राहक ने 40 रुपये लगाया था पर उसे कसाई जानकर अपनी गऊ उसे नहीं दी।
रहमान पैंतीस रुपये पाकर जमींदार से छुटकारा तो पा लेता है पर अपनी बूढ़ी माता
को हज कराने के उद्देश्य से ऊख पर उधार लेने के लिए लालाजी के पास पहुँचने के लिए
विवश होना पड़ता है। उसे लाला जी से दौ सौ रुपये के बदले लिखाई आदि काटकर एक
सौ अस्सी रुपये प्राप्त हो जाते हैं।
मियाद पूरी होने पर लालाजी का जब तकादा होता है, तब रहमान की माँ बीमार होती
है जिसकी दवा-दारु पर लगातार होते खर्च के कारण रुपये अदा नहीं हो पाते हैं। किन्तु
रहमान की आरजू-विनती सुनकर लाला जी मियाद की अवधि सालभर के लिए बढ़ा देते हैं।
रहमान अपने घर आकर देखता है कि उसकी माँ का अंतिम समय आ पहुँचा है। वह अपने
बेटे रहमान को आशीर्वाद देकर सदा-सदा के लिए परलोक सिधार जाती है। अब दफन कफन
का प्रबंध करना था। घर में एक पैसा नहीं था सो बहुत सोचने-विचारने के बाद वह पुनः
लालाजी के पास पहुँचा। पहले तो डाँट सुनते वह उल्टे पाँव लौटने लगा पर लाला जी ने
उस पर दया कर उसे रोक लिया। पूछने पर भी रहमान से सीधे मुँह पैसे की माँग नहीं की
गई पर लाला जी ने अटकल लगाकर सारी बात समझ ली। फिर बाद में रहमान द्वारा मांगने
पर लाला जी ने कहने-सुनने के बाद दो सौ रुपये दे दिये।
रहमान ने काफी परिश्रम कर ऊख की खेती की जिसे देखकर उसे ऋणमुक्त होने की
पूरी आशा थी। पर भाग्य में कुछ और ही लिखा था। अगहन के महीने में अपने खेत की
रखवाली करते हुए जब एक चादर से ठंढ नहीं गयी तो उसने ऊख के पत्तों को इकट्ठा कर
जलाया। अचानक हवा का एक झोका जलते हुए पत्तों को रहमान के खेत की और उड़ाकर
ले गया जिससे रहमान का सारा खेत कुछ देर में ही जलने लगा। जिसे बुझाने के लिए गाँव
से लोग दौड़े भी पर आग बुझाने की सारी मेहनत व्यर्थ साबित हुई।
अगली सुबह लाला जी का नपरासी लठ्ठ लिये खेत पर पहुँचा जहाँ रहमान अपनी
बर्बादी का दृश्य खुली आँखों से देख रहा था। पर चपरासी कब माननेवाला था, उसे तो
लाला जी के हुक्म को पूरा करना था सो वह रहमान के हाथ को पकड़कर घसीटता हुआ
लालाजी के पास ले गया।
पहले तो अपने सामने पहुँचे रहमान को देखकर लालाजी ने नालिश करने की बात
कहकर धमकाया, पर वह सब नाटक था। वे तो रहमान को आजमा रहे थे, जाँच रहे थे।
लालाजी द्वारा ली जाने वाली परीक्षा में रहमान को खरा उतरा पाया गया। लालाजी ने अंत
में स्पष्टतया कहा कि, “तुमने भले ही जानकर मेरे ऊपर कोई एहसान न किया हो, पर असल
में वह मेरे धर्म पर एहसान था। मैने भी तुम्हे धर्म के काम ही के लिए रुपये दिये थे। बस
हम तुम दोनो बराबर हो गये। तुम्हारे दोनों बछड़े मेरे यहाँ है, जी चाहे लेते जाओ, तुम्हारी
खेती में काम आयेंगे। तुम सच्चे और शरीफ आदमी हो, मैं तुम्हारी मदद करने को हमेशा
तैयार रहूँगा। इस वक्त भी तुम्हें रुपयों की जरूरत हो, तो जितने चाहो ले सकते हो ।”
प्रस्तुत कहानी में पात्रों के मनोभावों के साथ स्वतः स्फूर्त होती घटनाओं से कथानक
का ताना-बाना बुना गया है। इसमें मुख्यतया दो पात्र हैं-रहमान और लाला दाऊदयाल अन्य
पात्रों से कथा को गति भर मिलती है। दोनों पात्रों पारस्परिक बातचीत से दोनों के सरित्रोद्घाटन
तो होता ही है उनके संवाद क्रिया व्यापार को भी आगे बढ़ाने में सहायक सिद्ध होते हैं। ये
संवाद पात्रानुकूल, भावानुकूल और परिस्थिति के अनुरूप होने के साथ-साथ चुस्त और व्यंजक
भी हैं। इस दृष्टि से एक उदाहरण यहाँ द्रष्टव्य है―
दाऊदयाल ने मुस्कराकर कहा- तुम्हारे में इस वक्त सबसे बड़ी कौन-सी आरजू है?
रहमान― यही हजूर, कि आपके रुपये अदा हो जायें। सच कहता हूँ हजूर, अल्लाह
जानता है।
दाऊ०―अच्छा तो समझ लो कि मेरे रुपये अदा हो गये।
रहमान―अरे हजूर, यह कैसे समझ लें? यहाँ न दूँगा, तो वहाँ तो देने पड़ेंगे।
दाऊ०― नहीं रहमान, अब इसकी फिक्र मत करो। मैं तुम्हें आजमाता था।
रहमान―सरकार, ऐसा न कहें। इतना बोझ सिर पर लेकर न मरूँगा।’
जहाँ तक देशकाल एवं वातावरण का प्रश्न है प्रस्तुत कहानी का आरंभ ही
वातावरण-चित्रण द्वारा हुआ है जिसमें स्थानीय विशेषताओ का समावेश पूरी तरह होता हुआ
देखा जा सकता है। इस दृष्टि से कथारंभ यहाँ द्रष्टव्य है―
“भारतवर्ष में जितने व्यवसाय है, उन सबमें लेन-देन का व्यवसाय सबसे लाभदायक है।”
प्रस्तुत कहानी में भारतीय किसान से जुड़ी हुई अनेक समस्याओं का स्पष्ट चित्रण हुआ
है, यथा- जमीदार और महाजन के अन्याय एवं शोषण के साथ ही अन्य समस्याएँ चित्रित
हुई है।
प्रस्तुत कथान्तर्गत कथाकार का उद्देश्य नैतिकता के धरातल पर व्यक्ति की परीक्षा के
माध्यम से प्रेम की अलग कोटि का निरूपण करना रहा है।
प्रस्तुत कहानी का शीर्षक ‘मुक्तिधन’ छोटा, आकर्षक, सारगर्भित और कौतूहलवर्द्धक
होने के कारण उपयुक्त और सार्थक है। निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि कहानी-कला
की दृष्टि से प्रस्तुत कहानी एक उत्कृष्ट कहानी है जिसमें कहानी-कला के तत्वों का सम्यक्
निर्वाह हुआ है।
‘संवदिया’ शीर्षक की कहानी
फणीश्वर नाथ रेणु लिखित ‘संवदिया’ एक भावपूर्ण, करूण कहानी है जिसमें एक संभ्रान्त
कुल की विधवा, बेसहारा स्त्री के अभावग्रस्त जीवन की दयनीय स्थिति का चित्रण यथार्थ
के धरातल पर भावना के रंगों से किया गया है। यह मुख्यतः एक भाव-प्रधान कहानी है।
एक अभावग्रस्त असहाय नारी के जीवन के कड़वे यथार्थ की कहानी होकर भी कहानी में
आदि से अन्त तक तरल भावुकता का प्रवाह गतिशील है। कहानी का मुख्य भाव मानवीय
संवेदना से संस्पृष्ट है।
सारांश : कहानी के मुख्य पात्र है संवदिया और हरगोबिन कथागत घटनाओं के मूल
में है बड़ी बहुरिया। बड़ी बहुरिया बड़ी हवेली की बड़ी बहुरिया है। एक समय बड़ी हवेली
की गाँव में अपनी शान थी। अब वह शान नहीं रही। घंटे भर की बीमारी में बड़ी बहुरिया
के पति काल के गाल में चले गये। तब शेष तीन भाइयों ने आपस में बँटवारा कर लिया।
इस बँटवारे में असहाय बड़ी बहुरिया के साथ बड़ा अत्याचार हुआ। उसके बदन पर से जेवर
उतारकर बाँट लिए गए। उसकी बनारसी साड़ी को तीन टुकड़ों में फाड़कर बाँट लिया गया।
भाइयों की आपस की लड़ाई का फायदा उठाते हुए रैयतों ने जमीन पर दावे करके दखल
कर लिया। सम्पत्ति बिखर गई। बड़ी बहुरिया के तीनों देवर शहर में रहने लगे। गाँव में बच
गई सिर्फ बड़ी बहुरिया- अकेली, असहाय शहर वाले उसके देवर धान की कटाई के समय
गाँव आते और कर्ज-उधार की ढेरी लगाकर चावल-नुड़ा हिस्सा लगाकर शहर लिए चले
जाते। वे आम के मौसम में गाँव आते, कच्चे पके आम बोरियों में कसकर शहर लिए चले
जाते। घाटे में सदा रहती बेचारी बड़ी बहुरिया। धीरे-धीरे उसकी स्थिति इतनी दयनीय हो चुकी
थी कि खाने को घर में अन्न भी नहीं रह जाता था। एक नौकर था, वह भी भाग गया। दरवाजे
पर एक गाय थी जो खूँट से बँधी हुई चारे-पानी को तरसती रहती थी। उसे देखने को कोई
न था। बड़ी बहुरिया को जीवन निर्वाह के लिए मोदिआइन से खाद्य सामग्री उधार लेनी पड़ती
थी। कितनी ही बार उसे बथुआ का साग उबालकर उसी से पेट भरना पड़ता था। जिस बड़ी
बहुरिया के हाथों में केवल मेंहदी लगाकर कभी गाँव की नाइन अपने परिवार-भर का भरन-पोषण
करती थी, वही बड़ी बहुरिया अब अपने हाथों में सूप लेकर अनाज साफ करती थी। वह हर
तरह से बेसहारा और दीन-हीन हो चुकी थी।
एक दिन बड़ी बहुरिया अपनी दुःखद स्थिति देखकर अधीर हो उठी। उसने हरगोबिन
संवदिया को बुलवाया और उसे एक संवाद लेकर अपनी माँ के पास जाने को कहा। जिस
समय हरगोबिन बड़ी बहुरिया के पास पहुँचा, उस समय गाँव की एक मोदिआइन उधार चुकता
न होने के कारण बड़ी बहुरिया पर विष-वाक्यों की वर्षा कर रही थी। मोदिआइन के चले जाने
पर बड़ी बहुरिया ने हरगोबिन को अपनी माँ के नाम संवाद दिया― “माँ से कहना, मै
भाई-भाभियो की नौकरी करके पेट पालूँगी। बच्चों के जूठन खाकर एक कोने में पड़ी रहूंगी,
लेकिन यहाँ अब नही…अब नहीं रह सकूँगी। कहना, यदि माँ मुझे यहाँ से नहीं ले जायेगी
तो मैं किसी दिन गेले में घड़ा बाँधकर पोखरे में डूब मरूँगी। बथुआ साग को खाकर कब
तक जीऊं? किसलिए…. किसके लिए ?”
हरगोबिन संवदिया बड़ी बहुरिया की करुण स्थिति को भापकर करुण-करुण हो उठा।
उसने बड़ी बहुरिया से राह खर्च भी नहीं लिया। उसी दिन दस बजे की गाड़ी से वह बड़ी
बहुरिया के मायके के लिए नल पड़ा। जब धानाबिहपुर स्टेशन पर गाड़ी से उतरकर बड़ी
बहुरिया के मायके के घर पहुँचने के लिए उसने पगडण्डी का रास्ता पकड़ा तो उसके पाँवो
में गति नहीं रह गयी। उसका मन भारी होने लगा। वह सोचने लगा-बड़ी बहुरिया की माँ को
वह बड़ी बहुरिया का दुःखं-भरा संवाद कैसे सुना पाएगा! लोग उसके गाँव को कितना कोसेंगे!
बड़ी बहुरिया की दारुण स्थिति के बारे में सुनकर बड़ी बहुरिया के गाँव-घर वाले क्या कहेंगे!
हरगोबिन किसी तरह बड़ी बहुरिया के मायके पहुँचा। हवेली के भीतर बुलाहट हुई। बड़ी
बहुरिया की माँ ने जब पूछा कि कोई संवाद भी है तो हरगोबिन सकते में पड़ गया। वह झूठ बोल
गया कि कोई संवाद नहीं है। वह तो सिरसिया गाँव आया था, वहीं से इन लोगों के दर्शन करने
आ गया। कुशल-क्षेम पूछे जाने पर उसने बड़ी बहुरिया के अच्छी स्थिति में होने की बात कही।
उसने बड़ी बहुरिया को गाँव की लक्ष्मी बताया। हरगोबिन के सामने जब जलपान की थाली आयी
तो उसे भूखी-प्यासी बड़ी बहुरिया की याद आ गयी। रात में जब भोजन के विविध खाद्य पदार्थों
से भरी थाल हरगोबिन के सामने पड़ी तो उस समय भी उसकी आँखों के सामने बथुआ का साग
उबालकर खा रही बड़ी बहुरिया का चित्र नाचने लगा। उसका जी भारी हो गया। उससे खाया न
गया। वह रात-भर स्वयं को कोसता रहा कि उसने बड़ी बहुरिया की माँ को उसका संवाद अक्षरशः
क्यों न सुना दिया। अगले दिन बड़ी बहुरिया का संवाद उसकी माताजी को वह निश्चय ही सुना
देगा- उसने निश्चय किया। किन्तु, अगले दिन भी वह चूक गया। बड़ी बहुरिया का संवाद उससे
कहा न गया। उसने घर लौटने की इच्छा प्रकट की। बड़ी बहुरिया की माँ ने उसे एकाध दिन रहने
को कहा, पर वह रहने को तैयार नहीं हुआ। उसने बड़ी बहुरिया की माँ को दिलासा दी कि वह
दशहरे में बड़ी बहुरिया के साथ फिर आएगा। बड़ी बहुरिया की माँ ने बेटी के लिए सौगात के
रूप में बासमती धान का थोड़ा-सा चूड़ा दिया। राह खर्च के बारें में पूछे जाने पर उसने कहा कि
उसे किसी बात की कमी नहीं है।
लौटने के क्रम में स्टेशन पर पहुँचकर हरगोबिन थोड़ा चिन्तित हुआ। उसके पास
रेलगाड़ी के टिकट के लिए पूरे पैसे न थे। अपनी जेब के पैसे से वह केवल कटिहार तक
जा सकता था। कटिहार स्टेशन पर उतरकर उसने बीस कोस की दूरी पैदल ही चलकर तय
करने का निश्चय किया। वह पैदल ही चलने लगा। दस कोस की दूरी उसने लगातार चलते
हुए तय की। भूख लगी तो बासमती धान के चूड़ा की सगुन्ध नाक में समाने लगी, किन्तु वह
तो सौगात थी बड़ी बहुरिया के लिए। उसने पेट-भर पानी पी लिया और फिर चलने लगा।
उसके पैर लड़खड़ाते रहे, पर चलता रहा। अठारह कोस की दूरी तय कर लेने पर उसे अपने
गाँव जलालगढ़ के स्टेशन का सिंगनल दिखाई पड़ने लगा। उसके दृष्टि-पथ में बड़ी बहुरिया
की डबडबायी आँखें पसरी हुई थी। उसे चिन्ता थी कि वह बड़ी बहुरिया को उसके संवाद के
बारे में क्या कहेगा, फिर भी वह गाँव जल्दी ही पहुँचने को उद्यत था। चलते-चलते, भूखा-प्यासा
हरगोबिन, बड़ी बहुरिया की यातना की अनुभूति से क्लान्त होकर बेहोश हो गया। जब उसे
होश हुआ तो उसने पाया कि बड़ी बहुरिया उसे घूँट-घूँटकर दूध पिला रही है। होश आते ही
उसने बड़ी बहुरिया के पैर पकड़ लिए और क्षमा याचना करने लगा। वह बड़ी बहुरिया का
संवाद उसकी माँ तक नहीं पहुँचा सका। उसने स्वयं को बड़ी बहुरिया का बेटा कह उसे वचन
दिया कि अब वह उसे कोई कष्ट नहीं होने देगा। अब बड़ी बहुरिया का सारा काम वह करेगा।
बड़ी बहुरिया सारे गाँव की माँ है। उसने बड़ी बहुरिया से अनुनय किया कि वह गाँव छोड़कर
नहीं जाय। बड़ी बहुरिया हरगोबिन के लिए दूध में एक मुट्ठी बासमती चूड़ा डालकर उसे
मसलने लगी। वह स्वयं ही पश्चाताप कर रही थी कि उसने अपनी माँ को अपने बारे में वैसा
दुःखद संवाद क्यों भेज दिया था !
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