मेरा प्रिय कवि (मैथिलीशरण गुप्त)

मेरा प्रिय कवि (मैथिलीशरण गुप्त)

                            मेरा प्रिय कवि (मैथिलीशरण गुप्त)

आधुनिक हिन्दी काव्य-धारा में लोकप्रियता की दृष्टि से गुप्तजी का स्थान सर्वोपरि है।
भारतीय जनता का जितना स्नेह, जितनी श्रद्धा गुप्तजी को मिली है वह अन्य किसी कवि को
नहीं। इसका स्पष्ट कारण यही है कि गुप्तजी जनता के कवि हैं। जन-जीवन की भावनाओं को
उन्होंने अपने काव्य में वाणी प्रदान की है। जनमानस की चेतना को उन्होंने व्यक्त किया है।
उन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा हमारे युग की समस्त समस्याओं और मान्यताओं का सच्चाई के
साथ प्रतिनिधित्व किया है, उनके काव्यों में राष्ट्रीय जागरण का महान उद्घोष है, हमारे सामाजिक
जीवन के आदर्शों का निरूपण है, देश-प्रेम के सौन्दर्य की झलक है। परिवर्तन की पुकार और
राष्ट्र जीवन को ऊँचा उठाने की प्रेरणा है। प्राचीन आदर्शों की पृष्ठभूमि में गुप्तजी ने नवीन
आदर्शों के महल खड़े किये हैं। उनकी रचनाओं में प्राचीन आर्य सभ्यता और संस्कृति की मधुर
झन्कार है। मानवता के संगीत का पुंज है। उनका साहित्य, जीवन का साहित्य है, उनकी कला,
कला के लिए न होकर जीवन के लिए है, देश के लिए है। इसीलिए तो गुप्तजी हमारे प्रिय
कवि हैं।
          हिन्दी के इस युगप्रवर्तक कवि का जन्म सन् 1943 को चिरगाँव जिला झाँसी में हुआ
था। बचपन से ही मैथिलीशरण जी की प्रकृति काव्य की ओर उन्मुख हुई और टूटी-फूटी रचनाएँ
बनाने लगे। आगे चलकर पं० महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पर्क में आये और उनकी कविताएँ
सरस्वती पत्रिका में छपने लगी। द्विवेदी जी की छत्रछाया में उनकी काव्य प्रतिभा निरन्तर
विकसित होती गयी। तब से लेकर अन्त तक गुप्तजी साहित्य साधना रत रहे। चिरगाँव में
साहित्य-सदन नाम से उनकी अपनी प्रकाशन संस्था है। साहित्य-साधना के साथ-साथ गुप्तजी
ने आन्दोलनों में सक्रिय भाग लिया था। अनेक बार उन्हें जेल की यात्रा भी करनी पड़ी थी।
महात्मा गाँधी गुप्त जी का बड़ा आदर करते थे।
          गुप्तजी आचार-विचार, व्यवहार, वेषभूषा सभी से पूर्णतः स्वेदशी थे। अपने देश से, देश
की संस्कृति से, उसकी गौरवमयी परम्पराओं और आदर्शों से गुप्तजी को बड़ा प्रेम था। भारतीय
आर्य संस्कृति में गुप्त जी की बड़ी निष्ठा थी। गुप्त जी का स्वभाव भी बड़ा मधुर, सरल और
शांत था। विनय और श्रद्धा तो उनके व्यक्तित्व में जैसे साकार हो उठी। उनका यही व्यक्तित्व
उनके काव्य में दिप्तीमान हुआ है। उनके निश्छल निरीह, स्वच्छ व्यक्तित्व की ही भाँति उनका
काव्य किसी भी रहस्य से शून्य, बड़ा स्पष्ट और स्वच्छ है।
       गुप्त जी का काव्य-क्षेत्र बहुत व्यापक है। राष्ट्रप्रेम, समाज-सेवा, राम-कृष्ण, बुद्ध सम्बन्धी
पौराणिक आख्यानों एवं राजपूत, सिक्ख और मुस्लिम प्रधान ऐतिहासिक कथाओं को लेकर
गुप्तजी ने लगभग चालीस काव्य ग्रन्थों की रचना की है। इनमें से साकेत, पंचवटी, द्वापर,
जयद्रथ वध, यशोधरा, सिद्धराज आदि उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। साकेत द्विवेदी युग का
सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है। मंगला प्रसाद पारितोषिक द्वारा यह महाकाव्य सम्मानित हो चुका है।
     काव्य कृतियों की भाँति गुप्तजी के काव्य का भावना क्षेत्र बड़ा विराट है। विधवाओं की
करुण दशा, ग्राम सुधार, जाति बहिष्कार, अछूतोद्धार, हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य, जनतंत्रवाद,
सत्य-अहिंसा की गाँधीवादी नीति आदि सभी विषयों पर गुप्तजी ने सुव्यवस्थित और गम्भीर
विचार प्रकट किये है। सत्य तो यह है कि गुप्तजी से युग की कोई प्रवृत्ति अछूती नहीं रही।
राष्ट्रीयता की दृष्टि से गुप्तजी ने सभी संस्कृतियों के प्रतीक काव्य लिखें हैं। इसी रूप में गुप्तजी
हमारे राष्ट्रीय कवि हैं।
        गुप्तजी का प्रबन्ध सौष्ठव श्लाघनीय है। उनके सभी पात्र मानव जीवन की किसी न किसी
समस्या का प्रतिनिधित्व अवश्य करते हैं। उनके आदर्श पात्रों पर राष्ट्रीयता, समाज-सेवा,
विश्व-बन्धुत्व और लोक-कल्याण की भावना का स्पष्ट प्रभाव है। अपनी पैनी दृष्टि से गुप्तजी
ने पात्रों के हृदय का सूक्ष्म निरीक्षण किया है। उन्होंने मानव हृदय की उन अनुभूतियों को अपनी
रचनाओं में स्थान दिया है जो मानव कल्याण के लिए प्रेरणादायक हैं।
       गुप्तजी की रचनाओं में श्रृंगार, करुण, शान्त, वात्सल्य तथा वीर रस का अच्छा परिपाक
हुआ है। गुप्तजी का श्रृंगार रस सरस होते हुए भी मर्यादित है। वियोग वर्णन में तो गुप्त जी
ने अपनी सारी कोमलता, भावुकता और सरस कल्पनाएँ उड़ेल कर रख दी। अलंकारों के सहज
सौन्दर्य से तो गुप्तजी की कविता कामिनी का सौन्दर्य द्विगुणित हो गया है। छन्द योजना पर
भी गुप्तजी का व्यापक प्रभाव है। भाषा की दृष्टि से गुप्तजी के काव्य का अनन्य महत्व है।
इनका काव्य खड़ी बोली भाषा के विकास की कहानी है। गुप्तजी के काव्य की प्रारम्भिक भाषा
का रूप इतिवृत्तात्मक और कलाशून्य है। परन्तु ज्यों-ज्यों गुप्तजी की काव्य साधना विकास को
प्राप्त होती गयी है, त्यों-त्यों उनकी भाषा भी मजती गयी है। सब कुछ मिलाकर गुप्तजी का
साहित्य निश्चय ही महान है। उन्होंने अबतक जो कुछ लिखा है, यह भारती का अभिनव श्रृंगार
है, उनकी शेष साहित्य-सृजन का मूल्यांकन भविष्य करेगा।
     अतः हमारे इस प्रिय कवि ने अपनी साहित्य-साधना द्वारा राष्ट्र के नव-निर्माण की सांस्कृतिक
चेतना को उज्जवल बनाया है।

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