यशस्वी बनना

यशस्वी बनना

              यशस्वी बनना

यश का मोती त्याग की सीपी में पलता है. यशोलिप्सा सर्वाधिक प्रबल
वासना है, वह मानव की सहज दुर्बलता है. वह सद्कार्यों की प्रेरक है.
यश का परनिंदा एवं परहित के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है.
 
यश मानव को अमरत्व प्रदान करता है और अपयश मृत्यु से भी अधिक बुरी वस्तु है.
युवाजन वे कार्य करें जो उन्हें यशस्वी बनाएं.
 
  एक समय की बात है, इन्द्र ब्राह्मण का रूप धारण करके दानशूर कर्ण के पास
कवच और कुंडल माँगने आया. कर्ण इन कवच कुंडलों को पहने हुए ही जन्मा था.
जब सूर्य ने जाना कि इन्द्र कर्ण से कवच-कुंडल माँगने जा रहा है, तो उसको चिन्ता
हुई, क्योंकि कर्ण उसका पुत्र था और वह कर्ण को इस प्रकार वंचित होते हुए नहीं
देखना चाहता था. निदान सूर्य ने कर्ण को पहले ही से तय सूचना देते हुए कहा, “इसमें
संदेह नहीं कि तू बड़ा दानी है, परन्तु यदि अपने कवच-कुंडल दान में दे देगा, तो तेरे
जीवन की हानि हो जाएगी. इसीलिए तू इन्हें किसी को मत देना, क्योंकि मर जाने पर
कीर्ति का क्या उपयोग-मृतस्य कीर्त्या किं कार्यम् ?” सूर्य के वचन सुनकर कर्ण ने
उत्तर दिया-  “जीवितेनामि मे रक्ष्या कीर्तितस्तद्विद्धि मे व्रतम-अर्थात् जान भले
ही चली जाए, तो भी कुछ परवाह नहीं, परन्तु अपनी कीर्ति की रक्षा करना ही मेरा व्रत है.
 
      यद्यपि मनुष्य देह दुर्लभ है और इसे मोक्ष प्राप्ति का साधन माना गया है तथापि
यदि कीर्ति, यश, धर्म आदि किसी शाश्वत वस्तु की प्राप्ति करनी हो, तो अनेक सुधी
एवं सिद्ध जनों के मतानुसार कर्तव्यपालन में प्राणों की भी आहुति आनंदपूर्वक दे देनी
चाहिए. अपने महाकाव्य रघुवंश में महाकवि कालिदास ने लिखा है कि जब राजा दिलीप
अपने गुरु वसिष्ठ की गाय की सिंह से रक्षा करने के लिए सिंह को अपना शरीर
देने को तैयार होकर बोले- “हमारे समान पुरुषों की इस पंच भौतिक शरीर के प्रति
अनास्था रहती है. अतएव तू मेरे इस जड़ शरीर के बदले मेरे यश- स्वरूपी शरीर की
ओर ध्यान दे (रघुवंश 2157) यानी गाय को छोड़ दे- मेरे शरीर को खाले कथा-
सरित्सागर और नागानंद नाटक में यह वर्णन है कि सर्पों की रक्षा करने के लिए जीमूत-
वाहन ने गरुड़ को स्वयं अपना शरीर अर्पण कर दिया था. मृच्छकटक नाटक में चारुदत्त
कहता है-
 
            न भीतो मरणादस्मि केवल दूषितं यशः ।
            विशुद्धस्य हि मे मृत्युः पुत्रजन्मसमः किल ।
 
      राजा शिवि और ऋषि दधीचि की कथाओं का वर्णन किया गया है. राजा शिवि
ने शरण गत कबूतर की प्राण रक्षा हेतु अपने शरीर का मांस श्येन पक्षी रूप यम
(धर्म) राज को दिया और ऋषि दधीचि ने देवताओं के कल्याणार्थ उनके शत्रु वृत्रासुर
के वध के लिए अपने शरीर की हड्डियाँ दान कर दी.
 
      अर्जुन परम ज्ञानी एवं पंडित था. मोह ने तात्कालिक रूप से उसके ज्ञान को आवृत
कर लिया था. उसके मोहावरण को हटाने के लिए भागवान अर्जुन से कहते हैं-
        यदि तू युद्ध से विमुख होगा तो सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली
अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर
है “इसके आगे भगवान इस प्रकार की बातें भी कहते हैं. जो लोग अभी तक तेरी प्रशंसा
करते रहे हैं, वे तेरे बारे में अनेक न कहने योग्य बातें कहेंगे, जो तेरी शूरता के सामने
नतमस्तक थे, वे अब तुझे कायर, क्षत्र-धर्म से च्युत आदि समझने लगेंगे आदि कहने
का तात्पर्य यह है कि भगवान श्रीकृष्ण कीर्ति अथवा यश को सर्वाधिक महत्वपूर्ण वस्तु-
जीवन से भी अधिक महत्वपूर्ण एवं मूल्यवान वस्तु बताते हैं. अपने विराट रूप का दर्शन
कराने के उपरान्त वह अर्जुन से यही कहते हैं कि तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व-“अतएव
उठ यश को प्राप्त कर.”
            बात ऐसी ही है. मनुष्य की सर्वोपरि ऐष्णा लोकष्णा है. वह धन, सम्पत्ति, गृह
परिवार सब कुछ त्याग सकता है, परन्तु यश की लालसा नहीं, वह बड़े से बड़े
दानवीर सब कुछ दान करने के उपरान्त चाहते यही हैं कि उनके नाम को यथा
स्थान अंकित अवश्य कर दिया जाए. ज्ञान सम्बन्धी सूक्तियों में भी यश की महिमा गाई
जाती है, यथा- सब कुछ नष्ट हो जाता है, यश बना रहता है. मरणोपरांत यही कह कर
श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है कि उनका यशः शरीर अमर रहेगा, यश शरीर हमें प्रेरणा
प्रदान करता रहेगा, आदि.
       वृद्धावस्था में यदि किसी कारणवश कोई अपयशकारी घटना घटित हो जाती है,
तो यही कहा जाता है कि बुढ़ापा बिगड़ गया अथवा बुढ़ापे में मिट्टी खराब हो गई.
नौकरी चाकरी में बाइज्जत बिना अपयश का कलंक लगे- अवकाश प्राप्त करना
सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जाती है. कीर्ति वस्तुतः मानव स्वभाव की प्रथम और अन्तिम
दुर्बलता है. कुछ लोगों के मतानुसार वह वीरोचित कार्यों की सुगंध है. वीरोचित कार्यों
में केवल युद्ध सम्बन्धी कार्य ही नहीं वे सभी कार्य आ जाते हैं, जो पूरे उत्साह के साथ
लिए जाते हैं और जिनमें कुछ विशिष्टता होती है. ऋग्वेद में यश की महिमा का वर्णन
करते हुए कहा गया है- “यश मित्र का काम करता है. वह सभा समाज में प्रधानता
प्राप्त कराता है. यश को प्राप्त करके सभी प्रसन्न होते हैं, क्योंकि “यश को लक्ष्य करके
स्टेनकी बाल्डविन ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण कथन किया है, “यश के कपाट सदैव खुले
रहते हैं और उन पर भीड़ भी सदा बनी रहती है.”
            बस एक बात का ध्यान रखिए कि यश अपने सुकर्मों के फलस्वरूप मिलता है.
अन्य की टाँग खींच कर निंदा करके अथवा हानि करके नहीं.
          हमने अन्यत्र कीर्ति यथा यश अर्जन एवं रक्षा के जितने भी उदाहरणों की चर्चा
की, उन सबमें एक तत्व सामान्य रूप में निहित है- त्याग नीति का वचन है कि बुद्धि
कर्मानुसारिणी होती है. लक्ष्मी भाग्यानुसारिणी होती है और कीर्ति व्याधानुसारिणी होती है.
याद रखिए यश का मोती त्याग की सीपी में पलता है, हमारे युवाजन यशस्वी व्यक्तियों के
कार्य-कलापों का अध्ययन करें और उनके जीवन से आवश्यक प्रेरणा ग्रहण करें और
यशस्वी बनने के मार्ग का अवलम्बन करें. मानव जीवन की सार्थकता यही है कि हम
वे काम करें जिनके कारण हम सदैव स्मरण किए जाएं. अंग्रेजी के प्रसिद्ध लेखक
हैजलिट का कथन यश की गाथा को सर्वथा अभिनव रूप में प्रस्तुत करता है-“कब्र पर
यश का चिराग जलता है और मृत की राख पर यश का देवालय खड़ा होता है.”
स्मरण रखिए-
1. यश का मार्ग स्वर्ग के मार्ग की भाँति अत्यन्त कष्टमय है. (स्टर्न)
2. प्रसिद्धि की भावना महान आत्माओं की मौलिक वृत्ति होती है. (एडमण्ड बर्क)
3. वह यश के रूप में जीवित रहता है, जो किसी नेक कार्य के लिए प्राणों का उत्सर्ग करता है.

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