यूरोपीय भाषा-चिंतन

यूरोपीय भाषा-चिंतन

                    यूरोपीय भाषा-चिंतन

यूरोप में भाषा-चिंतन का प्रारंभ यूनान से हुआ है। अध्ययन की सुविधा के लिये इस विवेचन को दो
काल-खंडों में बाँट कर देखा जाना चाहिये- प्राचीन काल तथा आधुनिक काल । प्राचीन कालः यूरोप में भाषा चिंतन का प्रारंभ भारत की अपेक्षा बहुत देर से प्रारंभ हुआ लगता है। वेदों की तरह संभवतः कोई अपौरुषेय ग्रंथ उनके पास नहीं थे जिनका संरक्षण वे करते। इस देर का यह भी कारण हो सकता है। वैसे तो भाषा का वैज्ञानिक अनुशीलन यूनानी विद्वान प्लेटो की व्युत्पत्ति विद्या से अंकुरित होकर निरंतर बढ़ता गया है, परंतु प्लेटो से भी पूर्व इसके सुनिश्चित प्रमाण सुकरात से ही मिलते हैं । इसलिये भाषा-चिंतन का प्रारंभ यूरोप में सुकरात से माना जाना चाहिये।
 
(1) सुकरात (469 ई० पूर्व से 399 ई० पूर्व) सुकरात, शब्द और अर्थ के स्वाभाविक संबंध को लेकर बहुत जिज्ञासु थे। वह मानते थे कि वस्तु और उसके नाम या शब्द और अर्थ में स्वाभाविक संबंध न होकर माना हुआ संबंध है। तभी तो प्रत्येक भाषा में पृथक-पृथक नाम हैं। स्वाभाविक संबंध होता तो समस्त संसार में संभवत: एक ही भाषा भी होती है।
 
(2) प्लेटो (429 से 347 ई० पूर्व)-सुकरात (प्लेटो को गुरू) की ही तरह प्लेटो भी दार्शनिक थे, किंतु
यूरोप में ध्वनियों के वर्गीकरण का श्रेय प्लेटो को ही जाता है। प्लेटो ने ग्रीक ध्वनियों को घोष और अघोष दो वर्गों में बाँटा और अघोष के भी दो भेद किये । वह भाषा और विचार में थोड़ा ही अंतर मानते थे। विचार को वे आत्मा
की मूक या अध्वन्यात्मक बातचीत कहते थे, परंतु वही जब ध्वन्यात्मक होकर होठों पर प्रकट होती है तो उसे वह भाषा की संज्ञा देते हैं। उनके विचार में भाषा और विचार एक हैं पर बाह्य अंतर यह है कि एक ध्वन्यात्मक है दूसरा अध्वन्यात्मक । वाक्य के उद्देश्य-विधेय की चर्चा करते हुए उन्होंने वाक्य के विश्लेषण तथा शब्द-भेदों के संबंध में चर्चा की है। कहीं-कहीं व्युत्पत्ति के भी संकेत उन्होंने किये हैं।
 
(3) अरस्तू-(385 ई० पूर्व से 322 ई० पूर्व)-अरस्तू भी तत्त्ववेत्ता ही थे, पर आनुगिक रूप से भाषा पर भी कुछ विचार व्यक्त किया है। अपनी पुस्तक ‘पोलिटिक्स’ के द्वितीय भाग के 22वें तथा 15वें अंश में शैली के विश्लेषण के क्रम में भाषा पर भी विचार किया है। अरस्तू वर्ण को अविभाज्य ध्वनि मानते थे। उन्होंने इसके स्वर, अंतस्थ और स्पर्श-तीन भेद किये हैं। फिर दीर्घ, हस्व, अल्पप्राण तथा महाप्राण नामक भेद भी किये हैं। स्वर को वह बिना जिह्वा या ओठ के उच्चरित मानते हैं, जो वैज्ञानिक कहीं जा सकता है। मात्रा तथा सबध सूचक शब्दों पर भी संक्षिप्त विचार किया है। वाक्यों का पदों (उद्देश्य विधेय) में विभाजन करते हुए संज्ञा और क्रिया पर भी विस्तार से विचार किया है। काल पर भी ध्यान केंद्रित किया है। कारक तथा उन्हें प्रकट करने वाले शब्दों की और यूरोप में पहली बार उन्होंने संकेत दिया है। शब्द मोटे तौर पर साधारण तथा दुहरे-दो प्रकार के उन्होंने माने हैं। साधारण अर्थात् अर्थरहित और दुहरे अर्थात अर्थ सहित (सार्थक) अरस्तू ने स्त्रीलिंग और नपुंसक लिंग तथा उनके लक्षणों पर भी विचार किया है।
 
(4) डियोनीमियस थैक्स (दूसरी सदी ई० पू०) ग्रीक भाषा के ये पहले वैयाकरण थे। इनका प्रधान कार्य
पुरूष, काल, लिंग तथा वचन पर प्रकाश डालना है। यूरोप में स्वर के स्वयं उच्चरित होने तथा व्यंजन के स्वर की सहायता से उच्चरित होने की बात पहली बार उन्होंने ही की थी। कर्ता-क्रिया के संबंध पर भी उन्होंने प्रकाश डाला है।
 
(5) यह यूरोप में भाषा के प्राचीन अध्ययन का प्रायः अंतिम युग है। ग्रीस और रोम में संपर्क बढ़ने पर
रोमवालों ने ग्रीस की भाषा-अध्ययन-प्रणाली अपनाई । फलस्वरूप लैटिन के भी व्याकरण लिखे गये। पहला व्याकरण 15वीं शती में ‘लौरेन्सस’ वाल ने लिखा । इन्हीं दिनों ग्रीक, लैटिन और हिब्रू भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन का भी सिलसिला चला । धार्मिक भाषा होने के कारण हिब्रू को स्वर्ग में बोली जाने वाली भाषा तथा अन्य सभी भाषाओं की जननी मानने लगे। फिर मिलते-जुलते शब्दों के कोश भी बनने लगे और यूरोपीय भाषाओं के अनेक शब्दों को हिब्रू के शब्दों से व्युत्पति की दृष्टि से संबंधित माना । इसका आधार ध्वनि-साम्य तथा अर्थ-ध्वनि साम्य था।
 
इन्हीं दिनों प्राचीन धार्मिक एवं नवीन सामाजिक आंदोलनों से भाषा के अध्ययन में कुछ महत्त्वपूर्ण स्थितियाँ आई। लोगों का ध्यान तुलनात्मक अध्ययन की ओर गया; इन्हीं दिनों शब्दों को धातुओं पर आद्धृत माना गया; तथा लैटिन एवं ग्रीक के मूलतः किसी एक भाषा से निकले होने का आभास मिला। यहीं से भाषा-परिवारों के ज्ञान का मूल प्राप्त होने लगा।
 
दार्शनिक लिबनिज भी भाषा के अध्ययन का प्रेमी था। पीटर महान ने भी शब्दों का संग्रह करवाया । पल्लस, हर्ब्स तथा एडलंग ने भी शब्दों के संग्रह किये। 18वीं सदी में इस दिशा में कार्य करने वालों में हर्डर और जेनिस के नाम महत्त्वपूर्ण हैं । रूसो ने ‘भाषा की उत्पत्ति’ के सिद्धांत के विषय में निर्णय-सिद्धांत को ठीक माना था। हर्डर ने 1772 में बर्लिन एकेडमी के लिये भाषा की उत्पत्ति नामक निबंध लिखा जिसमें दैवी सिद्धांत का खंडन किया।
वह मानते थे कि भाषा मनुष्य ने खुद बनाई है और आवश्यकता के कारण भाषा का स्वाभाविक विकास हुआ है। यहीं तक यूरोप का भाषा संबंधी प्राचीन अध्ययन-सिलसिला खत्मप्राय माना जाना चाहिये । इसमें कोई संदेह नहीं कि प्राचीन भारतीय अध्ययन की तुलना में यह अध्ययन अत्यंत पिछड़ा हुआ है।
 
           आधुनिक अध्ययन कालः
 
ऐसा लगता है कि जिस तरह भारत में भाषासंबंधी आधुनिक अध्ययन यूरोपीय विद्वानों के संसर्ग से शुरू हुआ वैसे ही यूरोप में वैज्ञानिक अध्ययन का सिलसिला भारतीय मेधा के संसर्ग से हुआ। इस संबंध में प्रथम प्रयास फ्रांसीसी पादरी कोदों ने सन् 1767 में ग्रीक, लैटिन और फ्रैंच के कुछ शब्दों से संस्कृत-शब्दों की तुलना करने का प्रयास किया था।
 
(1) सर विलियम जोंस (1746-1796)-कलकत्ता उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश सर जॉस ने संस्कृत का अध्ययन करते हुए यूरोपीय भाषाओं में कई दृष्टियों से साम्य पाया । रोयाल एशियाटिक सोसाइटी की नींव डालते हुए संस्कृत के महत्त्व की घोषणा की और कई बातों में उसे ग्रीक और लैटिन से भी श्रेष्ठ बताया। उन्होंने शब्द, धातु तथा व्याकरण की दृष्टि से ग्रीक, संस्कृत, लैटिन, गॉथिक तथा पुरानी फारसी को एक ही मूल से निकली होने का अनुमान लगाया।
 
(2) फ्रेडरिख वान श्लेगल 1772-1829-संस्कृत के विद्वान फ्रेडरिख का भाषा और ज्ञान के संबंध में प्रसिद्ध ग्रंथ 1808 में प्रकाशित हुआ । श्लेगल ने ही तुलनात्मक व्याकरण का पहला बोध दिया । जर्मन ध्वनि-नियम का मूल श्लेगल की व्याख्या में ही उपलब्ध होता है।
 
संसार की भाषाओं को वर्गीकृत करनेवाले प्रथम विद्वान श्लेगल ही हैं जिन्होंने भाषाओं को दो वर्गों में रखा;
(1) संस्कृत तथा सगोत्रीय भाषाएँ तथा (2) अन्य भाषाएँ । इसके अलावा भी चीनी वगैरह को मिलाकर वे तीन वर्ग मानते हैं । श्लेगल का विश्वास था कि भारत के दर्शन एवं काव्य का नाम विज्ञान संबंधी सिद्धांतों से घनिष्ठ था।
 
(3) अडोल्फ डब्ल्यू० श्लेगल् (1767-1885) ये संस्कृत को सर्वश्रेष्ठ भाषा मानते थे। इन्होंने संस्कृत और उसकी सगोत्रीय भाषाओं (श्लिष्ट वर्ग) को दो उपवगों (संयोगात्मक एवं वियोगात्मक) में बाँटा और दोनों का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन किया
 
(4) बिल्हेम फॉन हम्बोल्डर (1767-1835)-इनके ही विचारों से प्रभावित होकर ग्रिम जैसे भाषा-वैज्ञानिक को अपने कुछ सिद्धांतों को बदलना पड़ा था। वह भाषा को एक अबाध कार्य मानते थे। वह भाषा के ऐतिहासिक अध्ययन के पक्ष में थे। जंगली भाषाओं को भी वे कम महत्त्वपूर्ण नहीं मानते थे। वह बोलने वाले के मानसिक स्तर में परिवर्तन का भाषा पर पर्याप्त प्रभाव मानते थे। प्रत्ययों को वह पूर्व के शब्द ही मानते थे। भाषा-विज्ञान को इनकी देन भाषा-अध्ययन का ऐतिहासिक और तुलनात्मक दृष्किोण है, बल्कि वह तुलनात्मक भाषा-विज्ञान के जनक भी माने जाते हैं।
 
(5) रैज्पस रैस्क (1787-1832)-डेनिश विद्वान रैस्क की पहली पुस्तक आइसलैंडिक व्याकरण’ 1811 में प्रकाशित हुई थी। बहुत लोग उन्हें आधुनिक भाषा-विज्ञान के जनक मानते हैं। वह किसी देश के इतिहास को वहाँ की भाषा की गठन एवं शब्द-समूह से जानने की बात कहते हैं। उन्होंने सगोत्रीय भाषाओं पर भी विचार किया है। “अवेस्ता’ को आर्य-परिवार में उचित स्थान दिलाने का श्रेय उन्हीं को है। पहली बार द्रविड़ भाषा, जिन्हें वह ‘मालाबारिक’ कहते हैं, को संस्कृत से एकदम भिन्न बतलाया था। उन्होंने बहुत-सी भाषाओं के व्याकरण लिखे जिनमें प्रमुखतया रूप-विचार संबंधी विचार हैं।
 
(6) याकोब ग्रिम (1785-1863)-“फेयरी टेल्स” के लेखक यही ग्रिम हैं। प्राचीन जर्मन और सगोत्रीय भाषाओं का इन्होंने गंभीर अध्ययन किया था। उनकी महत्त्वपूर्ण पुस्तक हैं ‘देवभाषा व्याकरण’ । जर्मन भाषा का यह व्याकरण 1819 में प्रकाशित हुआ था। इसका पूरा दृष्टिकोण ऐतिहासिक है। फिर उन्होंने वर्ण-परिवर्तन का विवेचन किया जिसे हो मैक्समूलर के बाद से पिम नियम कहा जाने लगा। प्रिम के गढ़े हुए बहुत से पारिभाषिक शब्द आज भी भाषा-विज्ञान में प्रचलित है।
 
(7) फ्रान्स बॉप-बॉप को भी तुलनात्मक अध्ययन का जनक कहा जाता है। इनकी पुस्तक ‘धातु प्रक्रिया 1816 में प्रकाशितई थी जिसमें जर्मन ग्रीक, लैटिन, अवेस्ता तथा संस्कृत के रूप तुलनात्मक ढंग से दिये गए है।
1833 और 1849 में इनकी पुस्तक ‘तुलनात्मक व्याकरण’ प्रकाशित हुई। तुलनात्मक व्याकरण की सभवत: पहली पुस्तक यही है। वर संस्कृत, ग्रीक और लैटिन आदि के विकास को किसी एक भाषा से हुआ मानते हैं । उस मूल भाषा की विशेषता संस्कृत में सबसे अधिक सुरक्षित वह मानते थे। इसलिये ‘धातु प्रक्रिया’ नामक अपनी पुस्तक में संस्कृत को ही आधार बनाया था। फिर संस्कृत और ग्रीक भाषाओं के स्वराधात पर भी लिखा । इन्होंने भाषाओं के तीन वर्ग बताए (i) चीनी आदि बिना व्याकरण की भाषाएँ, (ii) भारोपीय आदि एकाक्षरीय धातु की भाषाएँ तथा (iii) तीनवर्गीय या दो अक्षर को धातु की सभी भाषाएँ।
 
कई लोग अबतक के युग को यूरोप का यह सामग्री-संग्रह युग’ कहते हैं। गंभीर कार्य अबतक प्रायः नहीं के बराबर हुआ।
 
(8) आगस्ट एफ० पॉट- ये वैज्ञानिक व्युत्पत्तिशास्त्र के जनक कहे जाते हैं।
 
(9) के एम० रैप-ग्रिम के समकालीन रैप के ध्वनि-शास्त्र पर पुस्तक चार खंडों में क्रमशः 1836, 39, 40, और 1841 में प्रकाशित हुए। वह प्राचीन के साथ जीवित भाषा का अध्ययन भी अनिवार्य मानते थे। ध्वनि के संबंध में उनका अध्ययन प्रशंसनीय है। ध्वनि और लिपि में विशुद्ध संबंध को स्थापना करके उन्होंने जो ध्वन्यात्मक अनुलेखन-मृत और जीवित दोनों भाषाओं का किया, वह श्लाघ्य है।
 
(10) जे० एच० बेडस्डार्फ-डेनिश विद्वान ब्रेडस्डार्फ ने भाषा के सामान्य परिवर्तन के कारणों पर विचार किया और उन्हें उदाहरणों से स्पष्ट किया है।
 
(11) रूडल्फ राथ (1821-1895) तथा ओटो बाटलिंक (1815-1904) संस्कृत के इन दोनों विद्वानों ने मिलकर नामक संस्कृत का एक बहुत बड़ा कोश तैयार किया। इसमें प्रत्येक शब्द
की व्युत्पति धातु के आधार पर दी गई है।
 
(12) आगस्ट श्लाइखर (1821-68)-ये शुद्ध भाषा विज्ञानी थे। कई भाषाओं के ज्ञाता कुछ दिनों तक लोकभाषा के अध्ययन में लगे रहे थे। डार्विन की ही तरह श्लाइखर भाषा को भी भौतिक वस्तु मानते थे। वे मनुष्यों का वर्गीकरण खोपड़ी या बालों से नहीं, भाषा के आधार पर करना ठीक मानते थे।
 
उन्होंने भाषा के तीन वर्ग बनाएः (क) अयोगात्मक, जिनमें ध्वनि से अर्थ का बोध होता है (ख) अश्लिष्ट
योगात्मक, जिनमें ध्वनि से अर्थ और संबंध दोनों का बोध होता है। (ग) श्लिष्ट योगात्मक, जिनमें अर्ध और संबंध प्रकट करने वाले अंग आपस में मिले रहते हैं। श्लाइसर को सबसे बड़ी देन मूल भारोपीय भाषा का पुननिर्माण है।
अपनी पुस्तक ‘कमोडियम’ में उन्होंने मूल भाषा के स्वर, व्यंजन, धातु तथा रूप-रचना पर स्वतंत्र अध्यायों में विचार किया है।
 
(13) गेओर्ग कुटियंस (1820-1885)-ग्रीक क्रिया तथा ग्रीक शब्दों की व्युत्पत्ति संबंधी इनकी पुस्तक बहुत महत्त्वपूर्ण है।
 
(14) निकोलई मैडविग-ग्रीक और लैटिन के विद्वान मैडविग तर्कवादी थे और व्युत्पति या ध्वनि संबंधी अध्ययन को वे बहुत महत्त्व नहीं देते थे।
 
(15) फ्रेडरिख मैक्समूलर (1823-1990) ‘भाषा-विज्ञान का प्रचार करने के साथ ही उन्होंने उसका संग्रह कार्य भी किया है। भाषा के उद्गम, भाषा की प्रकृति, भाषा के विकास, विकास के कारण तथा भाषाओं के वर्गीकरण पर हुए कार्यों को उन्होंने एकत्र किया।
सायण-भाषा के साथ उनका जो ऋग्वेद का संस्करण है, अब तक प्रामाणिक माना जाता है। उन्होंने नागरी लिपि के प्रचार का भी कार्य किया था ।
 
(16) विलियम ड्वाइट बिटनी-(1827-1894)-प्रथम अमेरिकी भाषावैज्ञानिक ह्विटनी ने 1867 में भाषा और भाषा का अध्ययन, नामक पुस्तक लिखी । दूसरा ग्रंथ 1875 में, ‘भाषा का जीवन और विकास’ लिखा । संस्कृत भाषा का इनका प्रसिद्ध व्याकरण 1879 में प्रकाशित हुआ था। वह भाषा को भौतिक वस्तु नहीं मानवीय उद्योग का फल मानते थे। वह भाषा को किसी देश के मस्तिष्क की छाया मानते थे।
 
                      यूरोपीय अध्ययन का नवयुग-
 
इसका आरंभ 19वीं सदी के तृतीय चरण से मान सकते हैं। (1) हेमैन स्टाइन्थाल (1825-1899)
भाषा विज्ञान के इस नये युग का प्रमुख व्यक्ति इन्हें कहा जाता है। यह मानते थे कि भाषा का वैज्ञानिक अध्ययन मनोविज्ञान के बिना असम्भव है। अपने प्रथम ग्रंथ (1855) में उन्होंने मनोविज्ञान, तर्कशास्त्र और व्याकरण के पारस्परिक संबंध का विवेचन किया है।
 
(2) काल ब्रुगमान-नव युग के प्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक थे। इनका सबसे बड़ा कार्य भारोपीय भाषा में
व्याकरण के संबंध में है। यह पाँच भागों में बँटा है। ‘बुगमान का अनुनासिक सिद्धांत’ बड़ा प्रसिद्ध सिद्धांत प्रमाणित हुआ है। इसकी खोज से ग्रिम-नियम की अनेक शंकाओं और अपवादों का समाधान हो गया है।
 
(3) ग्रेस मैन, बर्नर, अस्कोली तथा येस्पर्सन-इनमें प्रथम तीनों के कार्य ध्वनि के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण है।
1887 में कार्ल बर्नर ने बर्नर नियम की खोज की। 1870 में अस्कोली ने मूल भारोपीय भाषा की ‘क’ ध्वनि आगे चलकर कुछ भाषाओं में तो ‘क’ ही रही और कुछ में ‘स’ या ‘श’ हो गई । येस्पर्सन ने व्याकरण के दार्शनिक आधार, वाक्य विज्ञान, अंग्रेजी व्याकरण तथा भाषा की उत्पत्ति और विकास पर अत्यंत महत्त्वपूर्ण काम किया।
 
                आधुनिक भाषा-विज्ञान तथा प्रमुख स्कूल-
 
अन्य विज्ञानों की अपेक्षा भाषा-विज्ञान बहुत पुराना नहीं है किंतु पिछले सत्तर-अस्सी वर्षों में इसने स्पृहणीय उन्नति की है। इस विज्ञान के मूल बीज ईस्वी पूर्व से व्याकरणशास्त्र में मिलते हैं किंतु इसका अपेक्षाकृत अधिक स्पष्ट रूप 18वीं सदी में भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन में मिलता है। 19वीं सदी में भाषाशास्त्रज्ञों का ध्यान जीवित भाषा की ओर गया। 20वीं सदी के आरंभ में समकालिक भाषा-विज्ञान का बीज बोया गया । वे यह सोचने लगे कि यदि किसी भाषा का एक काल का अध्ययन नहीं होगा तो सही अर्थ में न तो उसका ऐतिहासिक अध्ययन हो सकता है।
और न दूसरी भाषाओं के साथ तुलनात्मक अध्ययन ही। इस तरह समकालिक और सांकालिक भाषा-विज्ञान की नींव पड़ी। इसका संकेत कुर्तने सस्यूर तथा बोआस नामक भाषा वैज्ञानिक ने किया।
 
किसी भाषा के समकालिक या एककालिक अध्ययन को वर्णनात्मक कहा गया। अमेरिका में बोआस के बाद सपीर तथा ब्लूमफील्ड ने वर्णनात्मक भाषा-विज्ञान को आगे बढ़ाया। फिर 1928 ई० में हेग में प्रथम अंतर्राष्ट्रीय भाषा-विज्ञान परिषद् में ऐसे अध्ययन को मान्यता दी गई। उस सदी के पाँचवें दशक में भाषा के वर्णन की एक नया पद्धति सामने आई, जिसे संरचनात्मक या संघटनात्मक कहा गया। इसकी स्पष्ट रूपरेखा हैरिस ने भाषा-विज्ञान संस के समक्ष रखा। इस काल में अमेरिका में अर्थविज्ञान को भाषा विज्ञान से प्रायः अलग रखा गया और मानव-शास्त्र भौतिक-शास्त्र, मनोविज्ञान एवं यंत्रों आदि से सहायता ली गई।
 
प्रमुख स्कूल
(1) रूसी स्कूल-यह स्कूल बाद में कजान, लेनिन ग्राद तथा मास्को स्कूलों में बँटा । यह
स्कूल मानता था कि भाषा किसी समाज की होती है। उसका एक वास्तविक रूप होता है जिसका प्रयोग उस समाज
का व्यक्ति करता है।
 
(2) लेनिनग्राद स्कूल-यह स्कूल मुख्यतः ध्वनि-विषयक अध्ययन का केंद्र है।
 
(3) मास्को स्कूल-यह स्कूल भाषा की संरचना में परिवर्तन को समाज की संरचना में परिवर्तन से संबंद्ध मानता है। भाषा उनके लिये सामाजिक और आर्थिक बाह्यारोपित संरचना थी। इस स्कूल का ध्यान मुख्यतः रूप-विज्ञान, वाक्यविज्ञान एवं रूप-ध्वनिग्राम विज्ञान पर केंद्रित रहा है।
 
(4) जेनेवा स्कूल-संरचनात्मक भाषा-विज्ञान के जनक सस्यूर (1857-1913) के कारण यह स्कूल
मुख्यतः संरचनात्मक अध्ययन पर केंद्रित रहा । सस्यूर को पाणिनि व ब्लूमफील्ड की मेधा के समान माना गया । सस्यूर के अनुसार भाषा प्रतीकों की एक व्यवस्था है जिसके आधार पर समाज विचारों का आदान-प्रदान करता है। इन प्रतीकों का प्रयोग सर्वदा केवल अर्थ के आधार पर नहीं किया जा सकता बल्कि वह भाषा की व्यवस्था के आधार पर होता है।
 
(5) फ्रांसीसी स्कूल-यह स्कूल मूलतः ध्वनि-विज्ञान से संबंधित था। रूसेलो विश्व का प्रथम ध्वनि-शास्त्री
है जिसने ‘काइमोग्राफ’ एवं ‘पैलटोग्राम’ के सहारे ध्वनियों का अध्ययन किया। यहीं पर बाद में भाषा के विकास का मनोविज्ञान एवं शरीर विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में अध्ययन किया । अर्थविज्ञान के प्रसिद्ध एवं एक प्रकार से प्रथम व्यवस्थित अध्येता बील भी इसी स्कूल के थे। यहीं ब्लाख ने भारतीय आर्यभाषा एवं मराठी पर कार्य किया। यह स्कूल मुख्यतः मनोवैज्ञानिक, सामाजिक एवं शरीर वैज्ञानिक दृष्टि से भाषा के अध्ययन के लिये अधिक प्रसिद्ध है।
 
(6) ब्रिटिश स्कूल-इसमें (क) इंगलिश स्कूल-जिसका प्रारंभ स्वीट ने किया था और डेनियल जोंस ने
जिसे आगे बढ़ाया । जोंस ने ध्वनि के औच्चारणिक पक्ष पर ही अधिक बल दिया।
 
(ख) लंदन स्कूल-1941 में ‘फर्थ’ ने इस स्कूल की स्थापना की। इन्होंने ‘रागात्मक तत्व’ पर
विशेष कार्य किया है।
 
(ग) सिस्टिमिक ग्रामर स्कूल-हैलिडे ने इस स्कूल का विकास किया। इस स्कूल ने अफ्रीका और एशिया की अनेक भाषाओं की ध्वनियों पर कार्य किया है।
 
(7) प्राहा या प्राग स्कूल-सस्यूर, कुर्तने तथा फर्तुनातफ नामक तीन भाषा शास्त्रियों से प्रभावित होकर कुछ लोगों ने 1926 में प्राग में यह केंद्र बनाया । यहाँ विशेष उल्लेख्य कार्य ध्वनि के क्षेत्र में हुआ। बाद में शैली तथा वाक्य-रचना पर भी कुछ कार्य हुए।
 
(8) कोपनहेगन स्कूल-डेनिस विद्वान ब्रन्दल तथा येम्स्लेव ने इसकी स्थापना की । यह स्कूल भाषा-विज्ञान में तर्कशास्त्र एवं गणित के प्रयोग के लिये ख्यात है ।
 
(9) अमेरिकी स्कूल-अमेरिका के प्रथम भाषा शास्त्री हिटनी (1827-1894) थे परंतु इस स्कूल की नींव फ्रांज बोआस ने रखी। इसमें मानव-विज्ञान एवं जीवित भाषाओं के अध्ययन के लिये दिशा दी गयी। उन्होंने भारतीय भाषाओं के अध्ययन के माध्यम से समकालिक भाषा-विज्ञान की वर्णनात्मक पद्धति की नींव रखी। भाषिक पैटर्न का सिद्धांत’ इन्होंने ने ही बनाया था। अमरीकी स्कूल की बोआस और सपीर की परंपरा ब्लूमफील्ड ने आगे बढ़ाई। ब्लूमफील्ड के परवर्ती भाषाशास्त्रियों ने ध्वनिग्राम-विज्ञान, रूपग्राम-विज्ञान, वाक्यविज्ञान, गणितीय भाषाविज्ञान, प्रायोगिक ध्वनि-विज्ञान, भाषा-भूगोल तथा कोश-विज्ञान के क्षेत्रों में पर्याप्त कार्य किये।
 
उसके बाद तो यहाँ कई स्कूल बन गये: सपीर स्कूल ‘ऐन आर्बर स्कूल’, ‘ब्लूमफील्ड स्कूल (‘अल स्कूल), हर्बर्ड स्कूल, तथा ‘रूपान्तर स्कूल’ रूपान्तर स्कूल के जन्मदाता नोअस चॉम्स्की हैं। गणितीय भाषा-विज्ञान एवं सूचना सिद्धांत में निष्णात चॉम्स्की मूलत: ब्लूमफील्ड स्कूल के ही है। उन्होंने भाषा-विश्लेषण एवं भाषा के व्याकरण बनाने की एक नयी पद्धति बनाई। ऐसे व्याकरण को रूपान्तरण व्याकरण या उत्पादक व्याकरण कहते हैं। मशीन-अनुवाद तथा दूसरी भाषा के शिक्षण में इस प्रकार
के विश्लेषण से बहुत सहायता मिल रही है।
 
आधुनिक भाषा-विज्ञान की मूल प्रवृत्ति वर्णनात्मक या संरचनात्मक है। जीवित और मृत दोनों प्रकार की
भाषाओं पर इन दृष्टियों से काम हो रहा है। आज तो एक्सरे, स्पेक्टो ग्राफ, ‘आसिलोग्राफ’, काइमोग्राफ’ पिचमीटर, इकराइटर, पैटर्न-प्लेबैक, स्पीच स्ट्रेचर, फार्मेट ग्राफिक मशीन, लैरिंगोस्कोप, उडोस्कोप, ब्रीदिंग फलास्क, ऑटोफोनोस्कोप, आदि यंत्रों की सहायता से ध्वनि आदि के अध्ययन हो रहे हैं।
 
प्रकारात्मक एवं व्याकरणिक कोटियों की दृष्टि से भाषाओं का अध्ययन हो रहा है। अब चॉम्स्की के रूपान्तरण, फिल्मोर के ‘कारकीय व्याकरण’ तथा हैलिडे के के आधार भी काम हो रहा है। भाषा-भूगोल तथा बोली विज्ञान में भी काम चल रहे हैं। कोश-विज्ञान, भाषा-काल-क्रम-विज्ञान, व्यक्ति-भाषा-विज्ञान तथा नाम-विज्ञान आदि क्षेत्रों में भी काम हो रहे हैं। शैली-विज्ञान, भू-भाषा विज्ञान में भी काम हुए हैं। प्रायोगिक भाषा-विज्ञान (applied) में दूसरी भाषा की शिक्षा, अनुवाद, लिपि-सुधार, तथा उच्चारण-सुधार की ओर लोगों का ध्यान गया है। सूचना सिद्धांत तथा सांख्यिकी भाषा-विज्ञान के लिये गणित का उपयोग किया जा रहा है। शैलीविज्ञान में सहित्यिक अभिव्यंजना का भाषा-विज्ञान के स्तर पर विश्लेषण हो रहा है। मनोभाषा-विज्ञान में विचार एवं अभिव्यक्ति के संबंध पर कार्य हो
रहा है जो मनोविज्ञान से संबंद्ध है। समाज-भाषा-विज्ञान में समाज को पृष्ठभूमि में रखकर भाषा को देखा तथा सामाजिक स्तर से संबंद्ध किया जा रहा है। इस तरह आधुनिक भाषा विज्ञान बहुआयामी पेटे को अपने में समेटे जा रहा है।

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