राम-राज्य एकांकी की कथावस्तु का विश्लेषण

राम-राज्य एकांकी की कथावस्तु का विश्लेषण

                       राम-राज्य एकांकी की कथावस्तु का विश्लेषण

‘राम-राज्य’ कलम के जादूगर, समाजवादी क्रांति के अग्रदूत, समाजशास्त्री
एवं सोसल इंजीनियर रामवृक्ष बेनीपुरी का एक सफल एकांकी है। इस सामाजिक एकांकी में
एकांकीकार ने राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के उस काल्पनिक रामराज्य की कल्पना की है, जहाँ
नागरिकों में समता, बन्धुत्व और एकता हो, जीवन के हर क्षेत्र में जहाँ अभ्युदय हो। वर्ग,
जाति, धर्म और विश्वासगत संकीर्णता नहीं, किसी तरह की विषमता की पीड़ा न हो। इस
काल्पनिक राज्य में लोगों का सत्य और अहिंसा में अटूट विश्वास होगा।
             इस एकांकी में गाँधीवादी दर्शन के बहुपक्षीय चिन्तन का प्रसार किया है। गाँधी जी
एक राजनैतिक नेता होने के साथ-साथ समाज सुधारक, अर्थशास्त्री, शिक्षाविद्, धर्मोपदेशक,
एवं आध्यात्मिक दार्शनिक भी थे। सामाजिक संरचना और प्रशासकीय संगठन के सन्दर्भ में
उनका अपना एक दृष्टिकोण था। उनकी विचारधारा में साधना एवं त्याग तथा अन्य सद्गुणों की
प्रधानता थी। ‘राम-राज्य’ एकांकी का कथानक प्रकारान्तर से गाँधीवादी दर्शनों की एक काल्पनिक
व्याख्या प्रस्तुत करता है। पूरे नाटक का निर्माण एक विदेश-यात्री को राज्य के दर्शन कराने
के साथ कथोपकथन के क्रम में किया गया है।
          कथानक का प्रारंभ दो विदेश यात्रियों के भारत आगमन से होता है। हवाई जहाज से
उतरते ही भारत का स्वागताधिकारी उन दोनों का स्वागत करता है और यात्रा का उद्देश्य
जानना चाहता है। पुरुष के साथ एक महिला यात्री भी है। उन लोगों का उद्देश्य भारतीय
सामाजिक पद्धति का अध्ययन करना है। स्वागताधिकारी कहता है कि हमने अपने देश में
बापू के आदर्शों के अनुसार रामराज्य की कल्पना कर ली है।
               परिचालक से स्वागताधिकारी कहता है कि इन दोनों अतिथियों को वह जवाहर
अतिथिशाला में ले जाय, जहाँ उन्हें सारी सुख-सुविधाएँ मुफ्त में मिलेगी, क्योंकि अतिथि
यहाँ देवतुल्य समझे जाते हैं। स्वागताधिकारी और विदेशी पुरुष में अस्त्र-शस्त्र एवं सेना के
सम्बन्ध में भी बातें होती है। स्वागताधिकारी कहता है- ‘प्रहार! हमारे देश में, बापू के रामराज्य
में, कोई किसी पर प्रहार नहीं करता। हम अब पूर्ण सभ्य हो चले हैं–आदमी जितना बर्बर
और असभ्य रहता है, उतना क्रूर और हिंसक होता है।” सेना के सम्बन्ध में भी इसी तरह
का कथन है― “नहीं, हमारे देश में सेना नाम की कोई चीज नहीं है। जब हम स्वतंत्र हुए थे,
कुछ दिनों तक हमने सेना रखी। हम लड़ाइयों में भी शामिल हुए। धीरे-धीरे उसकी व्यर्थता
सिद्ध हो गई है।
         इस एकांकी में बेनीपुरी जी ने कर्मयोगी गाँधी की अहिंसा-प्रियता की चर्चा की है। यह
अहिंसा संसार भर को भारत की देन है। गाँधी दर्शन के अनुसार यह अहिंसा भय से नहीं प्रेम
से जन्म लेती है। गाँधी की अहिंसक नीति हमारे धार्मिक ग्रंथों की देन है। स्मृतियों एवं महाभारत
में भी अहिंसक व्यवहार को श्रेष्ठ माना गया है। भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा था-
                         अहिंसा परमोधर्मः, अहिंसा परमं तपः
                         अहिंसा परम सत्यं, ततो धर्मः प्रवर्तते ।
 
          इसी भाव की अभिव्यक्ति गाँधी जी ने ‘हरिजन’ में करते हुए कहा था- “सत्य की तरह
अहिंसा भी सर्वशक्तिमान है और असीम है और ईश्वर के समानार्थक है। अहिंसा सर्व व्यापक
सर्वकालीन नियम है। इस एकांकी में स्वागताधिकारी ने गाँधीजी की अहिंसक नीतियों को श्रेष्ठ
माना है। इसके समक्ष पाशविकता ठहर नहीं पाती। गाँधी जी की इस अहिंसा चेतना का सम्पोषण
इस एकांकी में किया गया है।” किन्तु बापू की अहिंसा के सामने उनकी कोई शक्ति काम आई
और उस समय तक अहिंसा पर हमें ऐसी आस्था भी नहीं थी। बस, देश में सिर्फ एक मुट्ठी
लोग अहिंसक थे। उन्हीं को लेकर बापू ने उस समय संसार के सबसे बड़े शक्तिशाली राष्ट्र
को भगा दिया। आज तो हमारा बच्चा-बच्चा अहिंसा का मर्म समझ चुका है।
               इस एकांकी के दूसरे खण्ड में अतिथिशाला के प्रबंधक के माध्यम से राम राज्य की
कल्पना पर एकांकीकार ने प्रकाश डाला है, तथा आतिथ्य धर्म की श्रेष्ठता को बताया है। भारत
की सांस्कृतिक परम्परा अत्यन्त ही गरिमामयी रही है, लौकिक भोग प्रधान जीवन दर्शन की जड़ें
यहाँ कभी भी जम नहीं पायी । बापू के राम-राज्य में सबको समान रूप से भोजन एवं आवास
पाने का अधिकार प्राप्त है। बापू के राम-राज्य में पुरुषों के हिस्से उद्योग धंधे और खेतीबारी,
स्त्रियों के जिम्मे पारिवारिक जीवन और भावी नागरिकों की शिक्षा-दीक्षा का दायित्व रहता है।
           बापू की औद्योगिक नीतियों की चर्चा भी इस एकांकी में की गई है। बापू उद्योग शक्ति
को संहारक मानते थे। उनका कथन था-कारखाना कुछ सौ लोगों को जीविका देता है। तेल
की मिल खड़ी करके रोज सैकड़ों मन तेल आप निकाल सकते हैं, पर हजारों तेल वालों कों
बेकार करके। इस शक्ति को मैं संहारक शक्ति कहता हूँ। रचनात्मक शक्ति तो करोड़ों हाथों
से की जानेवाली श्रम की शक्ति है- सर्वोदय । सर्व कल्याण इसी रचनात्मक शक्ति से हो
सकता है। यंत्रों शक्ति से ढेरो माल तैयार किया जाए और कल-कारखाने सरकारी अधिकार
में हों, तब भी उसमें कुछ हासिल होने को नहीं।’
                  इस एकांकी में लेखक ने ऐसे ही कारखाने की चर्चा की है, जो कई दृष्टियों से
अलौकिक है-जो पाठशाला, उद्योगशाला और प्रयोगशाला तीनों एक ही साथ है। यह एक
मौलिक-शिक्षा पद्धति है। गाँधी जी ने शिक्षा के सन्दर्भ में कहा था- “सच्ची शिक्षा वही होती
है, जो आध्यात्मिक, बौद्धिक तथा आर्थिक तीनों शक्तियों का एक साथ विकास करे।” गाँधी
जी अक्षर ज्ञान को शिक्षा नहीं मानते थे। वे बच्चों की शिक्षा का प्रारम्भ दस्तकारी की तालीम
से करना चाहते थे। ‘राम-राज्य’ एकांकी में इसी व्यावहारिक शिक्षा पर बेनीपुरी ने प्रकाश
डाला है।
          बापू के ‘राम-राज्य’ में कोई हरिजन नहीं, सभी एक साथ रहते हैं। समाज में किसी
तरह का वर्णवाद, वर्गवाद नहीं है, न कोई धनी है और न गरीब, न कोई कुलीन न कोई
अन्त्यज। भारत के प्राचीन आदर्शों का नया संस्करण है ‘राम-राज्य’। गाँव के सभी घर ही
नहीं, सबों का हृदय भी एक ही समान है। दोनों विदेशी ‘बापू’ के ‘राम-राज्य के दर्शन
करके धन्य हो उठते हैं। पथ प्रदर्शक से उसकी बातें शासन पद्धति पर भी होती हैं। पथ
प्रदर्शक ‘राम-राज्य’ की शासन पद्धति के सन्दर्भ में स्पष्ट करता है कि इस राम-राज्य में
शासन का दबाव नहीं है। यहाँ सेना नहीं, सेनापति भी नहीं है। राष्ट्रपति की जगह राष्ट्र सेवक
है, जो एक किसान का बेटा है। यहाँ चुनाव में कोई उम्मीदवार नहीं होता। इस राम-राज्य में
कोई धार्मिक भेद-भाव नहीं होता। हाँ विश्वासों एवं विचारों की भिन्नता है, लेकिन सबों का
हृदय एक है। अलग-अलग चेहरे रख कर भी हम सभी मानव हैं, एक कुटुम्बी है। विदेशी
स्वीकार करता है कि बापू का राम-राज्य अनुकरणीय है। विदेशी स्त्री भी स्वीकार करती है कि
बापू का पथ ही विश्व कल्याण का पथ है-हमे उसी ओर बढ़ना चाहिए।
        इस तरह हम देखते हैं कि एकांकीकार ने इस एकांकी में प्रकारान्तर से गाँधीवादी दर्शन
की ही व्याख्या की है। इस दर्शन में उपवास, आस्वाद, अपरिग्रह, साम्प्रदायिक एकता,
अस्पृश्यता निवारण, मद्य-निषेध, ग्रामोद्योग, गाँव की सफाई, बुनियादी शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा,
प्राकृतिक चिकित्सा, नैतिकता आदि पर बल दिया गया है। इस एकांकी के जो भी पात्र है,
इन्हीं तत्वों की व्याख्या विदेशी स्त्री-पुरुष से करते है। पूरे एकांकी का कथोपकथन गाँधीवाद
का प्रचार-प्रसार एवं उसकी व्याख्या करता है। इस एकांकी का कथोपकथन कथावस्तु के विकास
में सहायक है। विदेशी स्त्री-पुरुष और स्वागतधिकारी, पथ प्रदर्शक शिक्षक, बच्चा एवं राष्ट्र
सेवक में जो बातें होती हैं वे सारगर्भित एवं व्यावहारिक है।
            एकांकी की संवाद-योजना संक्षिप्त, सप्रयोजन एवं सरल है। देशकाल चित्रण की दृष्टि
से इसमें राम-राज्य की कल्पना की गई है, जो सांप्रतिक राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, और
सांस्कृतिक यथार्थ का सही चित्रण नहीं करती है। इस एकांकी का उद्देश्य काफी स्पष्ट है, जो
एक ही है, और वह है गाँधीवादी दर्शन का दिग्दर्शन कराना।
         ‘राम-राज्य’ एकांकी का मुख्य प्रतिपाद्य गाँधी-दर्शन की व्याख्या है। इसमें
लेखक ने राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की कल्पना के आधार पर एक नये समुन्नत समाज की
कल्पना की है। महात्मा गाँधी संसार के महानतम क्रांतिकारी नेताओं में से एक थे। उनकी
तुलना हम गौतम बुद्ध और ईसा मसीह से कर सकते हैं। गाँधी जी भारत ही नहीं विदेशों में
भी शांति-सत्य एवं अहिंसा के प्रतीक माने जाते हैं। आज का भारत गाँधी जी की ही देन है।
जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में गाँधी के शाश्वत व्यक्तित्व की अमिट छाप है। आधुनिक राजनैतिक
दर्शनों में गाँधीवादी विचारधारा अपनी आध्यात्मिक परिणति के कारण विशिष्टता रखती है।
महात्मा गाँधी के बहुपक्षीय व्यक्तित्व में चिन्तन परिवेश का व्यापक प्रसार मिलता है। ‘राम-राज्य’
एकांकी प्रकारान्तर से गाँधीवादी चिन्तन की ही व्याख्या करता है।
         सैद्धांतिक रूप से गाँधीवाद आत्मशक्ति की द्योतक विचारधारा है। वैचारिक स्वातंत्र्य
इसके मौलिक तत्व हैं। गाँधीवाद के मुख्य तत्वों की ही व्याख्या ‘राम-राज्य’ शीर्षक एकांकी
में की गई है। इन तत्वों में मुख्य हैं-अहिंसा, सत्य, सत्याग्रह, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, गृह उद्योग,
साम्प्रदायिक एकता, मद्य-निषेध, अस्पृश्यता निवारण, बुनियादी शिक्षा, आदि।
          ‘राम-राज्य’ एकांकी में अहिंसा पर बल दिया गया है। अहिंसा संसार को भारतवर्ष की
एक अनुपम देन है। गाँधी जी की दृष्टि में अहिंसा के बिना सत्य की लब्धि नहीं हो सकती।
गाँधीजी ने कहा था- “अहिंसा परम श्रेष्ठ मानव धर्म है, और पशुबल से वह अनन्त गुना
महान् और उच्च है।” अहिंसा एक प्रचण्ड शस्त्र है। इसमें परम पुरुषार्थ है। इसका वर्णन परम
धर्म के रूप में किया गया है। विदेशी यात्री से इस एकांकी का स्वागताधिकारी अहिंसा की
सर्वोच्चता का वर्णन करते हुए कहता है- “प्रहार! हमारे देश में। बापू के इस राम-राज्य में
कोई किसी पर प्रहार नहीं करता। हम अब पूर्ण सभ्य हो चले हैं-आदमी जितना बर्बर और
असभ्य रहता है, उतना क्रूर और हिंसक होता है। ज्यों-ज्यों सभ्यता आती जाती है, त्यों-त्यों
वह दयालु और अहिंसक होता जाता है। सभ्यता की पहचान ही है अहिंसा।” गाँधी जी के
अनुसार अहिंसा आवश्यक रूप से विधायक और गत्यात्मक शक्ति है। अहिंसा के तीन प्रकार
हैं- एक वीरों की अहिंसा, जो सर्वश्रेष्ठ है, दूसरी व्यावहारिक काम चलाऊ और तीसरी
कायरों की, जो निष्क्रिय प्रतिरोध मात्र है। अहिंसा में आत्मबल का भाव होता है। गाँधी दर्शन
की अहिंसक नीति हिन्दू धर्म से अनुप्राणित है। हिन्दू शास्त्र में अहिंसा को परम धर्म माना गया
है। छान्दोग्य उपनिषद में कहा गया है कि यज्ञों में नैतिक गुणों की ही बलि दी जानी चाहिए।
         ‘राम-राज्य’ का बच्चा-बच्चा अहिंसक है। स्वागताधिकारी को पिस्तौल देखते ही हृदय
में घृणा उभरने लगती है।
            गाँधी जी औद्योगिक नीति को स्वीकार नहीं करते थे। मशीन की जगह श्रम शक्ति की
प्रतिष्ठा करना चाहते थे। यूरोप में रूसी विचारक वांडारिफ ने प्रथमतः शारीरिक श्रम के आदर्श
पर बल दिया था। इसके बाद टालस्टाय, रस्किन और गाँधी जी ने श्रमशक्ति की महत्ता पर
बल दिया। शारीरिक श्रम का अर्थ है-हाथ-पांव के श्रम से रोजी-रोटी का उपार्जन। उनका
विचार था कि शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति शरीर द्वारा ही होनी चाहिए। ‘राम-राज्य’
एकांकी में बेनीपुरी ने गाँधीवादी नीतियों का प्रचार करते हुए लिखा है- “बापू बड़े-बड़े कारखाने
के विरुद्ध रहे हैं। बड़े-बड़े कारखानों में मशीन ऊपर रहती है, आदमी उसके नीचे कुचलता
रहता है। इससे मनुष्यता विकास नहीं कर पाती। फलत: मनुष्य और मशीन में द्वन्द्व रहता है,
उत्पादन में त्रुटि होती है। फिर एक बड़े कारखाने के बंद होने से देशभर में हाहाकार मच
जाता है। अतः हमने छोटी-छोटी कर्मशालाएँ ही लगाई हैं-जहाँ हर आदमी हर आदमी को
पहचान सके, अपना सके, अपना भाई बना सके। एकांकीकार के इन कथनों से यह स्पष्ट होता
है कि गाँधीजी ट्रस्टीशिप के अन्तर्गत वैयक्तिक स्वरूप के स्थान पर जनसामान्य के प्रति
आत्मविश्वास की ज्योति जलाना चाहते थे। वे विकेन्द्रीकरण के सिद्धांत के भी पक्षपांती थे।
गाँधीवादी विचारधारा से अनुप्राणित इन सिद्धांतों के अतिरिक्त बेनीपुरी ने वर्णवादी व्यवस्था
की हेयता पर भी प्रकाश डाला है। एकांकी का पात्र पथ-प्रदर्शक विदेशी नागरिक से कहता
है–”हः हः हः आप सुदूर भूत की बात कर रहे हैं। बापू ने कहा था-हमे एक वर्गहीन- वर्णहीन
समाज बनाना है। हमने वैसा ही समाज बना लिया है-हमारे यहाँ न कोई धनी है, न कोड
गरीब, न कोई कुलीन है, न कोई अंत्यज।” जांति-पांति को गाँधीजी समाज के लिए हानिकारक
मानते थे। उनका कथन था- “आधुनिक अर्थ में मैं जाति-पांति नहीं मानता। यह विजातीय चीज
है, और प्रकृति में विघ्न रूप हैं। इसी तरह मैं मनुष्य के बीच की असमानताओं को भी नहीं
मानता। हम सब सम्पूर्णतया सामान्य है, पर सामान्यता आत्माओं की है, शरीर की नहीं।”
           ‘राम-राज्य ‘ एकांकी में गाँधी जी की नारी-विषयक धारणा की भी अभिव्यक्ति हुई है।
वे मानते थे कि स्त्रियाँ त्याग और दया की, सत्य की मूर्ति है। स्त्रियों को अबला जाति कहना
उनका अपमान है। बेनीपुरी ने इस एकांकी में गाँधी जी की नारी-विषयक इन धारणाओं की
व्याख्या की है। उन्होंने कहा है- पुरुष प्रतिस्पर्द्धा होता है, नारी आत्म समर्पिणी। किन्तु हम
कहेंगे, आप जाइए और अपने देश में बापू के इस राम-राज्य का सन्देश दीजिए।”
          इस एकांकी में धार्मिक सहिष्णुता की चर्चा की गई है। गाँधी जी सभी धर्मो का समान
आदर करते थे। वे धर्म का सम्बन्ध आत्मा से मानते थे। धर्म का कभी भी उच्छेद नहीं होता।
उन्होंने कहा था— “अमृतमय हिन्दुस्तान वह है जो केवल हिन्दू का नहीं है, पर साथ में
मुसलमान, पारसी, ईसाई और सिख का भी उतना ही है, जितना हिन्दुओ का।” बेनीपुरी ने
इस एकांकी के माध्यम से गाँधी जी की धार्मिक सहिष्णुता की ही व्याख्या की है– “अब हमारे
यहाँ विश्वासों की विभिन्नता, विचारों की विभिन्नता उसी तरह स्वाभाविक मानी जाती है, जैसी
मुखाकृति की विभिन्नता।” वस्तुत: भारत के लोगों का चेहरा अलग-अलग अवश्य है, लेकिन
आत्मा एक ही साँचे में ढली हुई है।
          इस तरह हम देखते हैं कि ‘राम-राज्य’ एकांकी का मुख्य प्रतिपाद्य-गाँधीवादी चिन्तन
है, जो भारतीय समाज के लिए भागवत अवदान जैसा है। जो किसी भी शिलीभूत प्राण में
प्रभा एवं संचेतना की उष्मा भर सकता है। अनास्था, अनिश्चय, खण्डन-विखण्डन से विघटित
हो रहे वर्त्तमान भारतीय समाज को यह एकांकी राम राज्य का सन्देश देता है। इसी सन्देश
को अपनाकर आज के भारत का कल्याण संभव है।

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