राष्ट्रभाषा हिन्दी का स्वरूप एवं महत्व
राष्ट्रभाषा हिन्दी का स्वरूप एवं महत्व
राष्ट्रभाषा हिन्दी का स्वरूप एवं महत्व
‘राष्ट्र’ शब्द अंग्रेजी शब्द ‘नेशन’ का मात्र पर्याय नहीं है। यह एक सुनिश्चित
भूभाग एवं व्यवस्था के अन्तर्गत रहनेवाली आबादी की सभ्यता, संस्कृति, स्वाभिमान, चिंतन
एवं मनीषा का एक समग्र पुंज है। वैसे तो राष्ट्र की सभी भाषाए राष्ट्रभाषाए हैं किन्तु राष्ट्र की
भाषाओं में से किसी एक भाग को विशेष प्रयोजनों के लिए चुनकर उसे राष्ट्रीय अस्मिता एवं
जनता जब स्थानीय एवं तात्कालिक हितों एवं पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर अपने राष्ट्र की कह
गौरव-ग्रिमा का एक आवश्यक उपादान समझने लगती है तो वही राष्ट्रभाषा है। किसी एक
भाषा को राष्ट्रभाषा कहने में उसे सम्मान देने का एक अतिरिक्त बोध तो है, पर अन्य भाषाओं
को नीचा दिखाने का बोध निहित नहीं है। यह तथ्य सापेक्षिक दृष्टि से नहीं समझा जा सकता।
राष्ट्रभाषा राष्ट्रीय एकता एवं अन्तप्रान्तीय संवाद सम्पर्क की आवश्यकता की उपज होती है।
राष्ट्रभाषा किसी राष्ट्र की उस भाषा को कहा जाता है जो अधिसंख्यक जनता द्वारा
बोली-समझी, लिखी जाती है और उस राष्ट्र के अन्य भाषा-भाषी लोगों की मान्यता भी उसे
प्राप्त रहती है। राष्ट्रभाषा सरकारी मान्यता प्राप्त कर तथा सरकारी काम-काज का माध्यम बन
राजभाषा का रूप भी ग्रहण करती है।
राष्ट्रभाषा का मूलाधार प्रयोग करने वालों की संख्या की अधिकता, साहित्यिक समृद्धि
तथा भावनात्मक आग्रहशीलता होती है। इसके साथ राष्ट्र तथा राष्ट्रवासियों की संप्रभुताजन्य
गरिमा का भावनात्मक प्रश्न जुड़ा रहता है। यही कारण है कि इसका व्यवहार क्षेत्र व्यापक
उल्लास अवसाद की गहराई लिये होता है। राष्ट्रभाषा की विशेषता होती है कि प्रबुद्ध ही नहीं,
अनपढ़-गँवार की भी वह अपनी भाषा होती है। उसके द्वारा उस राष्ट्र की सांस्कृतिक सामाजिक
स्थितियों का आकलन किया जा सकता है।
राष्ट्रभाषा की एक महत्वपूर्ण भाषिक विशेषता होती है कि मानक रूप से लेकर बोलियों
तक इसके अनेक रूप हो सकते हैं। इसके प्रयोग-क्षेत्र का विस्तार सामान्य बातचीत से लेकर
गंभीर साहित्य-सृजन और सरकारी काम-काज तक होता है या हो सकता है।
संसार के जितने भी स्वाधीन राष्ट्र हैं, उनकी अपनी भाषा है, जैसे रूस की रूसी,
फ्रांस की फ्रेंच, जापान की जापानी, चीन का चीनी। इसलिए जब भारतवर्ष स्वाधीन हो गया
तब इसकी भी अपनी राष्ट्रभाषा आवश्यक थी। यह संयोग और सौभाग्य हिन्दी को प्राप्त हुआ।
जिस तरह जनतांत्रिक राजनीतिक दृष्टि से बहुसंख्यक पक्ष का महत्व होता है उसी प्रकार जिस
भाषा के बोलने वाले अधिक है, उसका महत्व अन्य भाषाओं की तुलना में सबसे अधिक हो
जाता है।
भारतवर्ष में हिन्दी बोलने वालों की संख्या 60 करोड़ के लगभग है जबकि अन्य
भाषाओं के बोलने वालों की संख्या चार-पाँच करोड़ से अधिक नहीं है। दूसरी बात है कि
हिन्दी बोलने वाले और समझने वाले देश के एक कोने से दूसरे कोने तक फैले हुए हैं। देश
के 98 प्रतिशत लोग हिन्दी के माध्यम से विचार-विनिमय कर रहे है। वाणिज्य व्यापार,
तीर्थाटन, इत्यादि सब हिन्दी के द्वारा सम्पन्न होते हैं।
भारत के उत्तरी क्षेत्र का व्यक्ति जब सुदूर दक्षिण में रामेश्वरम् पहुँचता है तो वह
अंग्रेजी की शरण नहीं लेता। उसका सारा काम हिन्दी में चल जाता है। वहाँ के पढ़े लोग
हिन्दी अच्छा बोल लेते हैं। वहाँ के कुलीन भी तमिल में बातें न कर हिन्दी में बातें करते हैं।
भारत के जिस कोने में जाना हो, हिन्दी जानने से काम चल सकता है, किन्तु केवल बंगला,
तमिल या तेलगू जानकर काम चलाना संभव नहीं है। भारतवर्ष के बाहर भी लंका, अंडमान
निकोबार, वेस्ट इंडीज, वर्मा, ब्रिटिश घाना, अफ्रीका, मारीशस इत्यादि देशों में हिन्दी की
सहायता से काम चल सकता है। भारतवर्ष की एकमात्र भाषा हिन्दी ही है, जिसका प्रचार
भारत की सीमा के बाहर भी है।
हिन्दी भाषा अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में सरल है। इसकी लिपि वैज्ञानिक तथा
सुगम है। हिन्दी की देवनागरी लिपि जानकर हम मराठी और नेपाली भी पढ़ ले सकते हैं।
संस्कृत की सारी परम्परा और विरासत को इसने अपने से आयात किया है। सारे भारत की
हिन्दी भाषा है, किसी स्थान विशेष की नहीं। ‘हिन्द’ से हिन्दी बनी है- बंगाल से बंगला या
असम से असमिया की तरह इसमें स्थानीय रंग नहीं है।
हिन्दी जब भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा मान ली गयी तब मुट्ठीभर राजनीतिक स्वार्थियों ने
कहना आरंभ किया कि हिन्दी को महत्व देने से अन्य भारतीय भाषाएँ उपेक्षित हो जाती हैं,
हिन्दी को राष्ट्रभाषा मानने से ‘हिन्दी साम्राज्यवाद’ का बोलबाला हो जायेगा।
किन्तु उन्हें यह समझना चाहिए कि हमारे राष्ट्र-निर्माताओं ने बहुत सोच-समझकर हिन्दी
को राष्ट्रभाषा स्वीकार किया था। महात्मा गाँधी ने कहा था-“अगर हम भारत को राष्ट्र बनाना
चाहते हैं तो हिन्दी ही हमारी राष्ट्रभाषां हो सकती है। अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है, लेकिन वह
हमारी राष्ट्रभाषा नहीं हो सकती।” नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का कहना था- “प्रांतीय ईर्ष्या-द्वेष
दूर करने में जितनी सहायता हिन्दी के प्रचार से मिलेगी उतनी दूसरी किसी चीज से नहीं मिल
सकती। यदि हम लोगों ने तन-मन-धन से प्रयत्न किया तो वह दिन दूर नहीं, जब भारत
स्वाधीन होगा और उसकी राष्ट्रभाषा होगी हिन्दी ।”
राष्ट्रभाषा हिन्दी का महत्व
सन् 1918 में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने राष्ट्रभाषा के स्वरूप का विवेचन करते हुए
कहा था कि राष्ट्रभाषा की भूमिका वह भाषा निभा सकती है-
― जो सांस्कृतिक, राजनैतिक और आर्थिक क्षेत्रों में माध्यम बनने की क्षमता रखती हो।
― जो बहुत बड़ी संख्या में लोगों द्वारा प्रयुक्त की जाती हो।
― जिसे सीखने में आसानी हो।
― जो सरकारी कर्मचारियों के लिए सहज और सुगम हो ।
― जिसे चुनते समय अस्थायी अथवा क्षणिक हितों पर ध्यान न दिया जाए।
महात्मा गाँधी के अनुसार बहुभाषी भारत में हिन्दी ही एक ऐसी भाषा है जिसमें ये
सभी गुण पाये जाते हैं। यही कारण है कि यह भाषा सांस्कृतिक पुनर्जागरण और राष्ट्रीय
आंदोलन की माध्यम बनी।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हमारे राजनेताओं और मनीषियों ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा की
पदवी दी क्योंकि यह अनुभव किया गया कि हिन्दी ने नवजागरण और राष्ट्रीय आंदोलन के
संदेश को जनसामान्य तक पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वस्तुतः राष्ट्रभाषा में देश की
सूची संस्कृति और साहित्य-संपदा का समाहार होता है। इससे ज्ञान-विज्ञान का साहित्य तो
प्रतिबिंबित होता ही है, साथ में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ज्ञान-विज्ञान के विकास में आधुनिकतम
चिंतन भी होता है। राष्ट्रभाषा का सम्बन्ध राष्ट्रीय चेतना से जुड़ा होता है। राष्ट्रीय चेतना के
मूल में सांस्कृतिक चेतना होती है। इसका संबंध भूत और वर्तमान के साथ होता है और यह
भाषा महान परंपरा के साथ जुड़ी होती है। राष्ट्र के लिए सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता की
भाषा की अभिव्यक्ति के रूप में यह भाषा कार्य करती है। इस दृष्टि से हिन्दी के अतिरिक्त
भारत की अन्य भाषाएँ भी यह कार्य कर रही है
आर्य समाज के संस्थापक दयानंद सरस्वती संस्कृत में ही वाद-विवाद करते थे। गुजराती
उनकी मातृभाषा थी और हिन्दी का उन्हें सिर्फ कामचलाऊ ज्ञान था, पर अपनी बात
अधिक-से-अधिक लोगों तक पहुँचाने के लिए तथा देश की एकता का ख्याल कर उन्होंने
अपना ‘सत्यार्थ प्रकाश’ हिन्दी में लिखा। अरविंद दर्शन के प्रणेता महर्षि अरविंद की सलाह
थी कि लोग अपनी-अपनी मातृभाषा की रक्षा करते हुए सामान्य भाषा के रूप में हिन्दी को
ग्रहण करें। थियोसोफिकल सोसायटी की संचालिका ऐनी बेसेंट कहती थीं- “हिन्दी जाननेवाला
आदमी सम्पूर्ण भारतवर्ष में यात्रा कर सकता है और उसे हर जगह हिन्दी बोलनेवाले मिल
सकते हैं।….. भारत के सभी स्कूलों में हिन्दी की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।”
इससे लगता है कि राष्ट्रीय समाज सुधारकों की यह सोच बन चुकी थी कि राष्ट्रीय स्तर
पर संवाद कायम करने के लिए हिन्दी आवश्यक है। वे जानते थे कि हिन्दी बहुसंख्यक जन
की भाषा है, एक प्रांत के लोग दूसरे प्रांत के लोगों से सिर्फ इसी भाषा में विचारों का
आदान-प्रदान कर सकते हैं। भावी राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को बढ़ाने का गुरूतर कार्य इन्हीं
समाज-सुधारकों ने किया। हिन्दी की व्यापकता देखकर ईसाई मिशनरियों तक ने अपने धर्म- प्रचार
के लिए हिन्दी को चुना। उनके कई धर्म ग्रंथ हिन्दी में छपे। मतलब यह कि धर्म प्रचारकों एवं
समाज-सुधारकों का मुख्य उद्देश्य तो धर्म प्रचार था या सामाजिक कुरीतियों का ध्वंस, पर
माध्यम के रूप में अपनाए जाने के कारण फायदा हिन्दी को मिला।
बंकिमचन्द्र चटर्जी कहते थे कि जो हिन्दी भाषा के जरिए राष्ट्रीय एकता कायम करने
में सफल होगा- वही भारतबंधु कहलाएगा।
1927 में सी० राजगोपालाचारी ने दक्षिणवालों को हिन्दी सीखने की सलाह दी थी। उन्हीं
के शब्द हैं- “हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा तो है ही, यही जनतंत्रात्मक भारत में राजभाषा भी
होगी।”रंगनाथ रामचंद्र दिवाकर ने कहा था-“जो राष्ट्रप्रेमी हैं, उन्हें राष्ट्रभाषा प्रेमी होना ही
चाहिए।”
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