रूप-परिवर्तन के कारण :

रूप-परिवर्तन के कारण :

                           रूप-परिवर्तन के कारण :

रूप-परिवर्तन की दिशाओं को रेखांकित करने के क्रम में रूप परिवर्तन के कारणों का भी यत्र-तत्र संकेत किया।
गया है। इन कारणों की एक सरणि यों बनाई जा सकती है-
 
1. सरलता-एक नियम के आधार पर चलने वाले रूपों के साथ यदि उनके अपवादों को ध्यान में रखना पड़े
तो मस्तिष्क पर एक व्यर्थ का भार पड़ता है और इसमें स्वभावत: कुछ कठिनाई भी होती है। अतएव जन-मस्तिष्क
सरलता के अपवादों को निकालकर उनके स्थान पर नियमानुसार चलने वाले रूपों को रखना चाहता है। ऊपर अंग्रेजी
की बली-निर्बल क्रियाओं आदि के उदाहरण लिये जा चुके हैं। पुरानी अंग्रेजी की तुलना में आधुनिक अंग्रेजी तथा
संस्कृत की तुलना में हिन्दी में क्रिया और कारक के रूपों की एकरूपता इसका अच्छा उदाहरण है। ध्वनि-परिवर्तन
में प्रयत्ल-लाघव का जो स्थान है, रूप-परिवर्तन में सरलता का वही स्थान है। इस सरलता के लिये प्रायः किसी
प्रचलित रूप के सादृश्य पर नया रूप बना लेते हैं। इसके फुटकल उदाहरण भी मिलते हैं। पूर्वीय के लिये ‘पौरस्त’
शब्द था, पर वह पाश्यात्य के वजन पर नहीं था, अतएव लोगों ने उस वजन पर नया शब्द पौर्वात्य बनाया ।
 
2. एकरूप की प्रधानता-एकरूप की प्रधानता के कारण भी कभी-कभी रूप-परिवर्तन हो जाता है।
उदाहरण के लिये संबंध कारक के रूपों की प्रधानता का परिणाम यह हुआ कि बोलचाल में मेरे को, मेरे से, मेरे में,
मेरे पर, तेरे को, तेरे से, तेरे पर, जैसे रूप मुझे, मुझको, मुझसे, मुझपर आदि के स्थान पर चल पड़े हैं।
 
3. अज्ञानता-अज्ञानता के कारण कभी-कभी नये रूप भी बन जाते हैं और इनमें से कुछ प्रचलित भी हो
जाते हैं। मरना से मरा, धरना से धरा और सड़ना से सड़ा की भाँति करना से करा रूप ठीक है पर किसी ने देना
से दिया, या लेना से लिया के वजन पर करना से किया रूप चला दिया जो अशुद्ध होने पर भी चल पड़ा और आज
वही परिनिष्ठित रूप है । ‘मैंने करा’, शुद्ध होते हुए भी अशुद्ध माना जाता है। अज्ञानतावश बने रूपों में आवश्यक
नहीं है कि सभी चल ही जाय । कुछ अज्ञानी अपने संस्कृत-ज्ञान का रोब गालिब करने के लिये लावण्यता, सौदर्यता
या शुद्ध अज्ञानतावश दयालुताई, कुटिलताई, गरीबताई, सुधारताई या मित्रताई जैसे गलत रूपों का प्रयोग करते हैं । इनमें
अंतिम पाँच तो लोक भाषाओं में प्रचलित भी हो गये हैं। लोक भाषाओं में इस प्रकार के और भी अशुद्ध रूप खोजे
जा सकते हैं। अवधी में बूढ़ा के स्थान पर बुढ़ापा (बुढ़ापा मनई) कहते हैं। श्रेष्ठ, जिसका मूलार्थ सबसे अच्छा है,
के स्थान पर सर्वश्रेष्ठ या श्रेष्ठतम या कागजात के स्थान पर कागजातों का प्रयोग भी इसी प्रकार का है।
 
4. नवीनता, स्पष्टता या बल-नवीनता, स्पष्टता या बल के लिये भी नये रूपों का प्रयोग चल पड़ता है।
भोजपुरी और अवधी में ‘न’ जोड़कर रूप बनाने की चर्चा की जा चुकी है। इधर बोलचाल की हिन्दी में मैं के स्थान
पर हम का प्रयोग बढ़ रहा है और अस्पष्टता मिटाने के लिये लोग बहुवचन में हम के स्थान पर हमलोग का प्रयोग
कर रहे हैं। इसी तरह तुम के स्थान पर तुमलोग, श्रेष्ठ के स्थान पर सर्वश्रेष्ठ आदि के पीछे भी स्पष्टता काम कर रही है।
 
बल के लिये भी नये रूप बना लिये जाते हैं। इनमें बहुत से अशुद्ध भी होते हैं। ‘अनेक’ का अर्थ ही है
‘एक नहीं’, अर्थात् एक से अधिक और इस प्रकार वह बहुवचन है, पर इधर अनेक के स्थान पर अनेकों का प्रयोग
चल पड़ा है। यहाँ ‘ओं’ बल देने के लिये हैं । भोजपुरी में अब बल प्रदान करने के लिये ‘बेफजूल’ का प्रयोग करने
लगे हैं। यह पूर्णतया अशुद्ध है और ‘बे’ लगा देने से तो इसका अर्थ ही उलटा हो जाना चाहिये ।
 
इस प्रकार रूप के क्षेत्र में एकरूपता और अनेकरूपता की दौड़ साथ-साथ चलती है और उनके बीच में
रूप-परिवर्तन चलता रहता है। स्पष्ट हुआ है कि शब्दों में जो विकार भाषा के गठन के संबंध में होते हैं, उन्हें ही
रूप परिवर्तन कहते हैं। यह परिवर्तन ध्वनि, रूप और अर्थ तीनों में होते रहते हैं। प्रत्यय और विभक्तियाँ
रूप-परिवर्तन की भूमिका बनाते हैं। तात्पर्य यह है कि रूप परिवर्तन या रूप-विकार का संबंध शब्दों के
व्याकरणात्मक रूपों से है। व्याकरणात्मक रूपों के प्रत्ययादि के जो परिवर्तन हैं, वे ही रूप-विकार के अंतर्गत हैं
इसलिये इन्हें ‘रूपमात्र’ भी कहा जाता है।

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