रूप-विज्ञान

रूप-विज्ञान

             रूप-विज्ञान

जिस प्रकार वाक्य-विज्ञान में वाक्य का विभिन्न दृष्टियों से अध्ययन किया जाता है उसी प्रकार ‘रूप-विज्ञान’
या ‘पद-विज्ञान’ में ‘रूप’ या ‘पद’ का विभिन्न दृष्टियों से अध्ययन किया जाता है। वर्णनात्मक रूप-विज्ञान में किसी
भाषा या बोली के किसी एक समय के रूप या पद का अध्ययन होता है जबकि ऐतिहासिक रूप-विज्ञान में उसके
विभिन्न कालों के रूपों का अध्ययन कर उसमें रूप-रचना का इतिहास या विकास प्रस्तुत किया जाता है और तुलनात्मक
रूप-विज्ञान में दो या अधिक भाषाओं के रूपों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है।
 
                रूप-विज्ञान : बोध और स्वरूप :
 
रूप-विज्ञान के संबंध में जानने के पूर्व यह जानना अत्यंत आवश्यक है कि ‘रूप’ या ‘पद’ है क्या? हम
यह जानते हैं भाषा की इकाई वाक्य है। कई-कई इकाइयों को मिलाकर ही भाषा बनती है। स्पष्ट है भाषा को
इकाईबद्ध करें तो उसे क्रमशः खंड-खंड किया जा सकता है। उसी प्रकार वाक्य भी कई-कई शब्दों को मिलाकर
बनता है। वाक्य की ही तरह शब्द भी कई-कई ध्वनियों को मिलाकर बनता है अर्थात् शब्द को भी कई-कई
ध्वनि-खंडों में विभक्त किया जा सकता है। शब्द कभी तो एक ही ध्वनि से या फिर कभी अनेक ध्वनियों के मेल
से बनता है। वाक्य का निर्माण भी कई-कई शब्दों के मेल से होता है। एक वाक्य कभी तो एक ही शब्द से और
कभी अनेक शब्दों से बनता है।
 
यहाँ ‘शब्द’ शब्द का प्रयोग सामान्य रूप में किया गया है। हमें यह पता है शब्दों के कोश में दिये गये
सामान्य ‘शब्द’ और वाक्य में प्रयुक्त ‘शब्द’ निश्चित रूपेण भिन्न होते हैं । वाक्य में प्रयुक्त शब्द में कुछ ऐसा भी
होता है, जिसके आधार पर वह अन्य शब्दों से अपना संबंध दिखला सके या अपने को बाँध सके। परंतु ‘कोशों’
में दिये गये ‘शब्द’ में ऐसा कुछ भी नहीं होता है। यदि वाक्य के शब्द एक-दूसरे से अपना संबंध न दिखला सकें
तो वाक्य ही अस्तित्व में नहीं आ सकता । इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि शब्दों के दो रूप होते हैं। एक तो वह
रूप, जो मूल रूप होता है और इसलिये उसे शुद्ध रूप भी कहा जाता है । यही शुद्ध या मूल रूप शब्दकोशों में मिलता
है। दूसरा रूप वह होता है जो किसी प्रकार के ‘संबंध तत्व’ से युक्त होता है। संबंध-तत्व से युक्त शब्द ही वाक्य
में प्रयोग के अनुरूप होता है। वाक्य में प्रयोग के योग्य शब्द का यह रूप ही ‘रूप’ या पद कहलाता है। संस्कृत
में शब्द या इसके मूल रूप को ‘प्रकृति’ या ‘प्रतिपादिक’ कहा गया है। शब्दों का संबंध दिखलाने का जो जोड़ने
वाला तत्व होता है, उसे प्रत्यय नाम से अभिहित किया गया है।
 
महाभाष्यकार पतंजलि ने स्पष्ट किया है-“नापि केवला प्रकृतिः प्रयोक्तव्या नापि केवल प्रत्ययः।” अर्थात
वाक्य में न तो केवल ‘प्रकृति’ का प्रयोग हो सकता है, न केवल ‘प्रत्यय’ का। दोनों मिलकर प्रयुक्त होते हैं। दोनों
के मिलने से जो बनता है, वही ‘रूप’ या ‘पद’ है। पाणिनि ने ‘रूप’ या ‘पद’ की यों परिभाषा की है-सुप्तिङन्तं
पदं अर्थात् ‘सुप’ और तिङ् जिसके अंत में हो, वे पद हैं। इस प्रकार ‘रूप’ या ‘पद’ का बोध पाणिनि ने यों स्पष्ट
किया है। यही ‘रूप’ की परिभाषा है। यहाँ प्रत्यय या विभक्ति को ‘सुप’ और तिङ् (सुप तिङौ विभक्ति संज्ञो
स्तः) कहा गया है। उदाहरण के लिये ‘पत्र’ शब्द पर ध्यान दें। ‘पत्र’ मात्र एक शब्द है । संस्कृत के किसी वाक्य
में इसका प्रयोग करना चाहें तो हूबहू इसी रूप में हम इसका प्रयोग नहीं कर सकते । प्रयोग करने के लिये इसमें
कोई-न-कोई संबंधसूचक विभक्ति जोड़नी ही होगी। उदाहरणार्थ-‘पत्रं पतति’ अर्थात पत्ता गिरता है। हम यहाँ
स्पष्टरूपेण देख रहे हैं कि शुद्ध शब्द तो ‘पत्र’ है और वाक्य में उसका प्रयोग करने के लिये उसे पत्र रूप धारण
करना पड़ा है। जाहिर है यहाँ शब्द का पदांतरण हो गया है अर्थात् ‘पत्र’ शब्द है और ‘पत्र’ उसका पदांतरित रूप
(पद) है।
 
स्थान-प्रधान या अयोगात्मक भाषाओं में जैसे चीनी भाषा में शब्द और पद का यह भेद दिखाई नहीं पड़ता।
इसका कारण यह है कि वहाँ शब्दों में संबंध दिखाने के लिये किसी संबंध तत्व (विभक्ति आदि) को जोड़ने की
आवश्यकता ही नहीं पड़ती। शब्द के स्थान से ही शब्द का संबंध अन्य शब्दों से स्पष्टतया स्थापित हो जाता है या
फिर दूसरे शब्दों में बिना विभक्ति वगैरह जोड़े, किसी वाक्य में अपने विशिष्ट स्थान पर रखे जाने के कारण ही शब्द
पद बन जाता है। हिन्दी तथा अंग्रेजी आदि भारोपीय कुल को आधुनिक भाषाएँ भी कुछ अंशों में इसी प्रकार की
गयी हैं। उदाहरण के लिये ‘लड्डू’ हिन्दी का एक शब्द है। इस शब्द को यदि वाक्य में कहीं रखना होगा तो
बिना किसी तरह परिवर्तन किये ही, या कोई विभक्ति लगाये बिना ही (पद बनाए बिना ही) उसे रख दिया जाता
है, जैसे-‘लड्डू गिरता है।’ यहाँ ‘लड्डू’ ने वाक्य में आते ही अपने स्थान के कारण अपने को पद बना लिया है।
 
यहाँ कर्ता के स्थान पर वह है । पद बना लेने के उपरांत उसका अन्य शब्दों से संबंध स्पष्ट हो जाता है। दूसरी ओर
‘राम लड्डू खाता है’ में भी वही लड्डू है, लेकिन स्थान विशेष के कारण यहाँ उसके संबंध और तरह के हो गये
हैं। यहाँ वह कर्त्ता न होकर कर्म हो गया है। अंग्रेजी में इस प्रकार के अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं। जैसे–’राम
किल्ड मोहन’ तथा मोहन किल्ड राम’। इन दोनों वाक्यों में स्थान परिवर्तन के कारण ही निर्मित पद अर्थ बदल देते हैं।
 
‘पद’ शब्द पर ही आधारित होते हैं। तभी पद-विज्ञान या रूप-विज्ञान के तहत शब्द-रचना की रचना
अपरिहार्य है। एकाक्षर परिवार की भाषाओं में शब्द की रचना की कोई समस्या नहीं होती क्योंकि वहाँ एकाक्षरीय
स्थिति होती है। उनमें तो केवल एक ही इकाई होती है। इसमें विकार कभी नहीं होता है। तभी इन्हें धातु, शब्द
या पद सब कुछ कह सकते हैं। कुछ प्रश्लिष्ट योगात्मक (पूर्ण) भाषाओं में पूरे वाक्य का ही शब्द बन जाता है,
जैसे ‘नाधोलिनिन’ वाक्य में पूरा एक शब्द ही है। ऐसे शब्दों का रूप मात्र ही शब्द के समान होता है। हमारे लिये
ऐसे शब्द विचारणीय नहीं होते । ऐसे शब्द असल में वाक्य ही होते हैं। ये वाक्य जिन शब्दों से बनते हैं वे भी एक
प्रकार से बने-बनाए शब्द ही हैं। ऐसे शब्दों पर विचार करने का कोई अर्थ नहीं है। शेष अधिकतर भाषाओं में शब्द
की रचना धातुओं में पूर्व, मध्य या पर (आरंभ, बीच या अंत में) प्रत्यय जोड़कर होती है। भारोपीय परिवार की
भाषाओं में शब्द की रचना बहुत ही महत्त्वपूर्ण होती है। इसमें प्रत्येक शब्द का विश्लेषण धातुओं तक किया जा
सकता है । सेमेटिक परिवार की भाषाओं में यही होता है। धातुएँ ही वस्तुतः विचारों की वाहिका होती हैं । शब्द बनाने
के लिये उपसर्ग (पूर्व प्रत्यय) और प्रत्यय दोनों ही जरूरत के मुताबिक जोड़ने होते हैं। उपसर्ग जोड़ने से मूलार्थ में
परिवर्तन हो जाता है, जैसे बिहार, संहार, परिहार आदि शब्दों में प्रत्यय जोड़कर उसी अर्थ के ‘शब्द’ या ‘पद’ बनाए
जाते हैं, जैसे ‘कृ’ धातु में ‘तृच’ प्रत्यय जोड़ने से क शब्द बना है। प्रत्यय भी दो प्रकार के होते हैं: एक, जो सीधे
धातु में जोड़ दिये जाते हैं, उन्हें ‘कृत’ कहते हैं। दूसरे को तद्धित कहते हैं । तद्धित की धातु में ‘कृत’ प्रत्यय जोड़ने
के बाद जोड़ा जाता है।
 
हम यह जान चुके हैं कि शब्द को वाक्य में प्रयुक्त होने के योग्य बना लेने पर उसे पद की संज्ञा ही जाती
है। अयोगात्मक भाषाओं में पद नाम की शब्द से अलग कोई वस्तु नहीं होती । वहाँ शब्द स्थान के कारण ही पद
बन जाता है। योगात्मक भाषाओं में पद बनाने के लिये शब्द में संबंध तत्व के जोड़ने की आवश्यकता होती है। संबंध
तत्व और उसके जोड़ने की विधि सहित अन्य अनेक प्रकार रूप-स्थितियों के रूप-विज्ञान में अर्थ-परिवर्तन,
संबंध-तत्व के कार्य, और संबंधतत्व व अर्थ-तत्व का संबंध-ये सभी प्रकरण रूप-विज्ञान के अंतर्गत अध्येय होते हैं।

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