लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में लोकलुभावन नीतियों की सार्थकता

लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में लोकलुभावन नीतियों की सार्थकता

       लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में लोकलुभावन नीतियों की सार्थकता

“मैं लोकतंत्र में विश्वास करता हूँ, क्योंकि मेरा विश्वास है कि मानव-खुशहाली के निमित्त, समाज को किस प्रकार संगठित किया जाए. इसके निर्धारण में प्रत्येक व्यक्ति को निर्णय का अधिकार लोकतंत्र में ही प्राप्त होता है.”
                                                             
अब्राहम लिंकन का लोकतंत्र के सम्बन्ध में यह मत है कि “जनता के लिए, जनता के द्वारा, जनता का शासन प्रजातंत्र है.” लोकतांत्रिक शासन प्रणाली शासन की अति उत्तम व्यवस्था है, जिसमें शासन संचालन की बागडोर जन प्रतिनिधियों के माध्यम से mअप्रत्यक्ष तौर पर जनता के ही हाथों में निहित रहती है इस प्रकार जनता अपने भविष्य की दशा-दिशा का निर्धारण व चयन करने में सक्षम होती है सम्भवत इन्हीं कारणों के दृष्टिगत स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् संविधान सभा द्वारा भारत के लिए लोकतन्त्रात्मक शासन प्रणाली को चुना गया हमारे संविधान की प्रस्तावना में भारत को एक लोकतात्रिक राज्य घोषित किया गया है प्रस्तावना में उल्लेखित ‘लोकतंत्रात्मक गणराज्य से तात्पर्य राजनीतिक और सामाजिक दोनों ही दृष्टिकोण से है अर्थात न केवल शासन में लोकतंत्र होगा, बल्कि समाज भी लोकतंत्रात्मक होगा, जिसमें न्याय, स्वतंत्रता, समता और बधुता की भावना विद्यमान होगी राजशक्ति पर किसी एक वर्ग विशेष का एकाधिकार नहीं होगा और शासन का संचालन बहुमत के सिद्धान्त के आधार पर होगा संविधान की प्रस्तावना में निहित आशय से स्पष्ट है कि केवल वे
ही कानून लागू किए जाएगे, जिनको जनता का समर्थन प्राप्त होगा.
           भारत सम्पूर्ण विश्व में सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है, जहाँ विभिन्न संस्कृति और समुदाय के लोग आपस में मिल-जुलकर साथ रहते हैं अर्थात् भारत बहु- संस्कृति और अनेक विविधताओं से समन्वित देश है वर्तमान भारतीय लोकतात्रिक प्रणाली. भारतीय सामाजिक संरचना के सबसे ज्यादा करीब है, क्योंकि वर्तमान व्यवस्था के माध्यम से ही समाज के विभिन्न जाति-वर्गों की लोकतंत्र में समुचित भागीदारी सुनिश्चित हो सकी है, जो प्रत्यक्ष लोकतांत्रिक व्यवस्था में कतई सम्भव नहीं है. अनेकता में एकता भारत की विशेषता है, यहाँ भिन्न-भिन्न जाति, धर्म, समुदाय, भाषा के लोग निवास करते हैं इन्हीं विविधताओं का फायदा उठाते हुए अधिकतर राजनेताओं ने वर्ग विशेष के वोट हथियाने के उद्देश्य से राजनीति को साम्प्रदायिक रूपी चश्मे से देखना शुरू कर दिया है और वोट के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाते हैं व जनता को कई तरह का प्रलोभन देकर वोट हथियाने का कार्य करते हैं. इसमें कोई सदेह नहीं कि वोट के कारण ये नेता वास्तविकता से भी मुँह मोड़ने से नहीं चूकते वोट की राजनीति के बारे में राजनीतिक पार्टियों द्वारा चाहे कितनी भी
दलीलें पेश की जाए. परन्तु यह सच है कि हमारे देश में लगभग सभी राजनीतिक दल चाहे वह राष्ट्रीय स्तर के हों या क्षेत्रीय स्तर के, सब के सब धर्म, जाति, साम्प्रदायिकता आदि के नाम पर अपने वोट बैंक को मजबूत करने में लगे हुए है.
          वोट की राजनीति की खींचतान, क्षेत्रीय भावना, जातीय वैमनस्य, साम्प्रदायिकता इत्यादि ने हमारे पवित्र समाज में उथल-पुथल मचाकर भारतीय राजनीति को नैतिक पतन के दरवाजे पर लाकर खड़ा कर दिया है, जोकि प्रजातत्र के लिए अत्यत घातक है वोट की राजनीति के कारण ही हमारा समाज भ्रष्टाचार जैसे खतरनाक राक्षस के चंगुल में फंसा हुआ है, जिसका दुष्प्रभाव समस्त क्षेत्रों में आसानी से देखा जा सकता है वास्तव में वोट की राजनीति लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के लिए अत्यत खतरनाक है वोट के लिए जनता को धन व अन्य प्रलोभन दिखाया जाता है. इसी के चलते चुनाव में
उम्मीदवारों का अधिक धन खर्च हो जाता है, जिसकी भरपाई चुनाव के बाद की जाती है और भष्टाचार को बढ़ावा मिलता है यही वजह है कि धीरे-धीरे लोकतात्रिक शासन प्रणाली दूषित होती जा रही है सम्भवत लोकलुभावन नीति निर्माण के परिप्रेक्ष्य में वर्तमान दौर में वास्तविक नेताओं और शिखर पुरुषों की कमी देश को खल रही है लोकतात्रिक शासन प्रणाली में सरकार व प्रशासन जनता के प्रति उत्तरदायी होता है इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि आम जनता सरकारी क्रियाकलापों  के बारे में बहुत अधिक ध्यान नहीं देती. क्योंकि जनसामान्य रोजमर्रा के अपने कार्या
में व्यस्त रहता है एक ओर जन नियंत्रण के चलते लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली में लोकलुभावन नीतियों को प्राथमिकता दी जाती है, तो दूसरी ओर जनता को प्रसन्न करने के लिए भी लोकलुभावन नीतियों को अपनाया जाता है लोकतात्रिक शासन
प्रणाली में जनता के पास मतदान का सबसे बड़ा अधिकार होता हे राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री का निर्वाचन प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जनता द्वारा ही होता है संसदीय शासन प्रणाली के चलते जनता द्वारा निर्वाचित बहुमत दल का नेता ही प्रधानमंत्री बनता है तथा अन्य मंत्रियों को भी सासद सदस्य के रूप में जनता द्वारा ही चुना जाता है इसके अतिरिक्त विधान सभा सदस्यों सहित पंचायत श्रृंखला के अन्य पदाधिकारियों को भी जनता द्वारा ही दुना जाता है शासन प्रशासन में तैनात अधिकारी व कर्मचारी भी इन्हीं जन-प्रतिनिधियों के प्रति उत्तरदायी होते हैं अत अप्रत्यक्ष रूप से समस्त शक्ति
जनता के हाथों में ही होती है अब तो जनता की शक्ति को मजबूत करने के लिए अन्य देशों में प्रचलित “राइट टू रीकॉल” की प्रक्रिया को भी भारत में लागू की जाने सम्बन्धी चर्चा भी की जाने लगी है सम्भवत कई लोकलुभावन नीतियों को भी चुनावी तर्ज पर वोट बैंक की राजनीति के चलते धरातल पर उतारा जाता है.
          लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि सरकार का हिस्सा होते हैं. अत उन्हें सदैव जनता के प्रति जवाबदेह होना होता है यह भी सच है कि कई नेता व मत्री को विभागीय मामलों की जानकारी कम होती है, परन्तु फिर भी नौकरशाही द्वारा काम काज उदित ढग संभाल लिया जाता है अत नौकरशाही द्वारा नीतियों के निर्धारण से लेकर क्रियान्वयन तक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जाती है किसी भी पार्टी की सरकार में बात-बात पर आए दिन मत्रालयों में फेर
बदल होते रहते हैं मत्रालय का बँटवारा व फेरबदल में भी अप्रत्यक्ष रूप से लोकलुभावन की नीति विद्यमान रहती है कई बार तो जिस नेता के पास अधिक लोकप्रियता का वर्चस्व होता है, उसे मंत्री बनाकर जनता के भारी समूह को खुश करने का प्रयास किया जाता है और सरकार को भी इसका भरपूर फायदा युनायों में मिलता है. लोकलुभावन नीतियों के चलते सरकार द्वारा कई बार किन्ही महत्वपूर्ण मामलों पर उचित व कठोर निर्णय लेने से बचा जाता है, जिससे वर्तमान एवं भविष्य दोनों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है उदाहरण के तौर पर रेलगाड़ी का किराया कई वर्ग से नहीं बढ़ाया गया था, जिसके कारण रेलवे का विकास जस का तस रुका हुआ था. वह तो भला हो मौजूदा सरकार का, जिसने रेल किराया में बढ़ोत्तरी करने का कठोर कदम उठाकर रेलवे के राजस्व को बढ़ाया और रेलवे का विकास पटरी पर आ सका है
इसमें तो माननीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदीजी का डायलॉग- “बीमारी को ठीक करने के लिए कड़वी दवा का सेवन करना होता है” की सार्थकता सफल होते नजर आती है.
          लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में लोक नुभावन नीति के तहत् ही सत्ता विकेन्द्रीकरण अवस्था का सूत्रपात हुआ. विकेन्द्रीकृत व्यवस्था में क्षेत्रीय या स्थानीय अधिकारियों को केन्द्रीय सत्ता से पूर्व अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं रहती, इसलिए वे लोकहित शीघ्र निर्णय ले सकते हैं और इससे कार्यों में अनावश्यक विलम्ब नहीं होता,  लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण से शासन-प्रशासन में लचीलापन भी आता है जिससे स्थानीय कर्मचारियों को प्रशासनिक कार्यों के सम्बन्ध में निर्णय लेने की काफी सीमा तक स्वतन्त्रता रहती है, स्थानीय संस्थाए और अधिकारी जिन लोगों के लिए कार्य करते हैं
है उनके अत्यन्त निकट होते हैं, इसलिए उनको पूरी सुविधा रहती है कि वे अपनी आवश्यकताओं के अनुसार प्रशासनिक कार्यक्रम के अनुकूल उनको परिवर्तित कर सके सत्ता के विकेन्द्रित होने से प्रशासन के अनेक दोष मिट जाते हैं, कार्य की देरी, लालफीताशाही इत्यादि से छुटकारा मिलता है और त्वरित कार्यवाही को प्रोत्साहन मिलता है. प्रजातांत्रिक विकेन्द्रीकरण के कारण स्थानीय समस्याओं का समाधान सरलता से हो जाता है, क्योंकि इस सम्बन्ध में तुरन्त विचार एवं कार्यवाही की जाती है एवं स्थानीय निकायों को केन्द्रीय इच्छा पर अवलम्बित नहीं रहना पड़ता है. अत सत्ता
विकेन्द्रीकरण में जन-कल्याण जैसी नीयत विद्यमान है और यह किसी-न-किसी रूप में लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में लोकलुभावन नीति से भी जुड़ा हुआ है.
       “सूचना का अधिकार-2005” भी लोकलुभावन नीति की सार्थकता की ही देन है. इस अधिकार ने प्रभाव में आने के बाद से शासन के कार्यों में होने वाली गड़बड़ियों व लोकहित के खिलाफ होने वाले कार्यो का काफी मात्रा में पर्दाफाश होना शुरू हो गया है. जब भी जनता को कुछ संदेह होता है तो सूचना का अधिकार नियम के तहत जानकारी माँग ली जाती है. इस अधिनियम के शुरुआती शब्दों में इसका स्पष्ट लक्ष्य निहित है . सूचना का अधिकार अधिनियम के उद्देश्य में कहा गया है कि लोक प्रशासन में खुलापन, पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए इस विधि को पारित किया जा रहा है. सूचना का अधिकार, विचार एवं अभिव्यक्ति की असीमित स्वतंत्रता से ही सुशासन रूपी व्यवस्था को मजबूती मिलती है, “सुशासन वह व्यवस्था है, जिसके अन्तर्गत प्रत्येक मनुष्य बिना किसी जाति, लिंग, वर्ग, क्षेत्र, भाषा, समुदाय
इत्यादि सम्बन्धी भेदभाव के जन्म से ही उसके जीवन व्यतीत करने के लिए आवश्यक व मौलिक अधिकारों का उपभोग करता हो.”
         भारत को आजादी मिलने के बाद से ही लोकतांत्रिक शासन प्रणाली का संचालन सहजतापूर्वक चल रहा है, जैसे-जैसे शिक्षा का संचार होता रहा वैसे-वैसे जनता में जागरूकता बढ़ती रही और लोग लोकतांत्रिक शासन प्रणाली से अच्छी तरह परिचित होते रहे हैं. एक समय ऐसा था जब लोग न तो अपने अधिकार के बारे में जानकारी रखते थे और न ही उनको मतदान के बारे में अधिक जानकारी हुआ करती थी, परन्तु अब अधिकांश लोग जागरूक हो चुके हैं और अपने मताधिकार की कीमत अच्छी तरह जान चुके हैं. चुनाव के समय सही प्रतिनिधि चुनने में अपनी भूमिका निभा रहे हैं, परन्तु दूसरी ओर विडम्बना यह भी है कि कई बार चुनाव मैदान में उतरे हुए प्रत्याशियों में से कोई भी योग्य उम्मीदवार नहीं लगता है, अतः जनता को विकल्प के अभाव में मजबूरी में किसी न किसी उम्मीदवार को चुनना पड़ता है. अब तो वोट डालने के लिए नोटा की व्यवस्था भी है, परन्तु यह व्यवस्था भी महत्वहीन व मन को समझाने वाली है, जिसका प्रत्याशियों पर कोई असर नहीं पड़ता. जनता की समझदारी व जागरूकता का अंदाजा लगाने के लिए राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में हुए विधान सभा चुनाव में लगाया जा सकता है, जब जनता को मौका मिला तो आम आदमी पार्टी को भारी बहुमत से विजयी बनाकर बड़ी-बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों को हार का स्वाद चखाने पीछे नहीं हटी.
          लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के अन्तर्गत कई लचीली व्यवस्थाओं के कारण भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी हो रही हैं और अपराधियों से निपटने की प्रक्रिया लम्बी और जटिल होती है. इस लोकतांत्रिक शासन प्रणाली लोग अपने अधिकारों की बातों को तो प्राथमिकता देते हैं, परन्तु अपने कर्तव्यों से मुँह मोड़ते नजर आते हैं. दिन-प्रतिदिन भ्रष्टाचार, अपराध, लूट, हत्या, बलात्कार, हिंसा और अन्य बुराइयों के मामलों में अनावश्यक बढ़ोत्तरी होती जा रही है. आए दिन विचार व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर बात-बात पर हडताल, जुलूस, पत्थरबाजी, प्रदर्शन जैसी वारदातों को अंजाम दिया जाता है और सरकार के काम-काज में बाधा पहुंचायी जाती है. लोकतांत्रिक व्यवस्था के अन्तर्गत कई समस्याएं भी हैं, जिनके कारण लोकतंत्र की निन्दा भी होती है. चुनाव के समय जनता को समझाने की अपेक्षा उसके संवेगों और पक्षपातों को उत्तेजित करने की ओर ज्यादा ध्यान दिया जाता है, धन व अन्य प्रलोभन के बलबूते तटस्थ वोटों को खरीद लिया जाता है. कई पूँजीपतियों द्वारा राजनीतिक पार्टियों को चंदा दिया जाता है. अतः स्पष्ट है कि इस तरह से निर्मित होने वाली सरकार पूँजीपतियों व भ्रष्ट तंत्र के हाथ की कठपुतली बन जाती है. ऐसी परिस्थिति में जनकल्याण तो दूर की बात है उल्टे जनता का शोषण होता है.
        कुल मिलाकर यदि विश्लेषण किया जाए, तो स्पष्ट होता है कि लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में अन्य शासन तन्त्रों की तुलना में जन सहभागिता अधिक होती है. राजनीतिक दलों के अस्तित्व से राजनीतिक समाजीकरण की व्यवस्था होती है. दबाव समूहों के माध्यम से जनता सरकार से अर्थात् जन प्रतिनिधियों से सीधे सम्पर्क में होती है. लोकतंत्र में जनता को यह ज्ञात होता है कि सत्ता निर्माण की कुन्जी ‘मतदान’ सदैव उनके हाथों में होती है. लोकतंत्र का आधार समानता होने के कारण जनता की भागीदारी बनी रहती है, संविधान अनुरूप शासन का व्यवहार नहीं होने पर जनता क्रान्ति के द्वारा सत्ता को समाप्त भी कर सकती है. व्यक्ति अपने मतदान की शक्ति को भली-भाँति समझता है. कुल मिलाकर यह कहना बिल्कुल तर्कसंगत होगा कि एक लोकतंत्रात्मक समाज में नागरिक ही उसका वास्तविक सम्राट् है.
         निष्कर्षतः लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में लोकलुभावन नीतियों को वरीयता दी जाती है, क्योंकि अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता का केन्द्र जनता ही होती है. सरकार में सम्मिलित होने वाले जन-प्रतिनिधि जनता द्वारा ही चुने जाते हैं और ये प्रतिनिधि लोकलुभावन नीतियों की सार्थकता के लिए जनता के प्रति जवाबदेही होते हैं. 

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