वर्तमान युग में गोस्वामी तुलसीदास की प्रासंगिकता

वर्तमान युग में गोस्वामी तुलसीदास की प्रासंगिकता

                 वर्तमान युग में गोस्वामी तुलसीदास की प्रासंगिकता

तत्कालीन परिस्थितियों से उत्पन्न निराशा और व्याप्त दुर्व्यव्यवस्था से भारतीय
समाज को उबारने के लिए तुलसी ने पुरुषोत्तम राम, उनके आदर्श एवं संघर्ष पूर्ण
मर्यादित जीवन के माध्यम से जनमानस को ढाढस बँधाने और उसके आत्म गौरव को
पुनर्जीवित करने के लिए मानस की रचना की. विशेषता यह रही कि ऐसा उन्होंने
आसन्न परिस्थितियों से निरपेक्ष रहकर किया. उनकी कृतियों में कहीं भी तत्कालीन
शासन के प्रति कोई किसी प्रकार की खीझ अथवा आक्रोश नहीं है. इसी कारण उनकी
रचनाएं अमर हैं. इस युग में गोस्वामीजी की प्रासंगिकता अक्षुण्ण है.
            पौराणिक परम्परा के अन्य ग्रंथों की भाँति गोस्वामीजी के रामचरितमानस का
विरोध करने वालों का कहना है कि मानस में ‘सामाजिक दृष्टि’ का सर्वथा अभाव है.
समाजवादियों का भी यही कहना है कि ‘मानस’ में ‘समाजवाद’ नहीं है अतः यह
ग्रंथ भविष्य के लिए प्रासंगिक नहीं है. उनका तर्क है- ‘तुलसी एक प्रतिक्रियावादी
तथा ब्राह्मणवादी कवि हैं. वर्तमान संदर्भो में उनकी प्रासंगिकता पर प्रश्न चिह्न लग चुका
है, किन्तु ऐसा है नहीं, तुलसी जैसे महान् कवि की रचनाएं सदैव प्रासंगिक रहेंगी.
 
तुलसी और रामचरितमानस
         तुलसी का मुख्य प्रतिपाद्य ‘भक्ति’ है. उनकी भक्ति का मूलमंत्र सेवा है. उन्होंने
रामचरितमानस में बार-बार यह समझाने का प्रयत्न किया है कि समस्त दृश्यमान जगत्
परम प्रभु की व्यक्त सत्ता है. उसकी सेवा ही प्रभु की सच्ची सेवा है, भक्ति है, भगवान
राम स्वयं अपने श्रीमुख से एक से अधिक बार कहते हुए देखे-सुने जाते हैं―
‘सो अनन्य जाके असि, मति न टरइ हनुमन्त ।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवन्त ।।
      x   x    x   x
‘सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम ।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह के द्विज पद प्रेम ।।
           और अन्त में समस्त धर्म का सार इस प्रकार प्रस्तुत कर देते हैं―
                ‘परहित सरिस धर्म नहिं भाई।
                पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ।।
 
इतना ही नहीं सेवा-धर्म के सन्मुख वह मोक्ष को भी त्याज्य मानते हैं―
‘सगुन उपासक संग तह रहहिं मोच्छ सब त्याग,
          “सगुनोपासक मोच्छ न लेहीं ।
        तिन्ह कह राम भगति निज देहीं ।।”
आदि उक्तियाँ मानस में यथा-स्थान प्राप्त होती हैं. इस प्रकार तुलसी ‘ब्रह्मणवाद’
का प्रतिपादन नहीं करते हैं. उनका प्रतिपाद्य है―’भक्ति’ तथा ‘जाति-धर्म निरपेक्ष आस्तिक
मानववाद’ यथा–
        “सब मम प्रिय सब मम उपजाए ।
         सबतें अधिक मनुज मोहि भाए ।।
               x     x     x     x
        तिन्हतें पुनि मोहि प्रिय निज दासा ।
          जेहि गति मोरि न दूसर आसा ।।
             x       x      x      x
          भगतिवंत अति नाचइ प्रानी।
         मोहि प्रान प्रिय अस मम बानी।”
 
यह सही है कि गोस्वामीजी वर्णाश्रम धर्म को स्वीकार करते हैं, परन्तु वह चरम
स्थान देते हैं एक जाति वर्ण-धर्म निरपेक्ष आस्तिक मानववाद को. यह भी द्रष्टव्य है
कि-थीम में कथा की मूल थीसिस एवं दार्शनिक पृष्ठभूमि में कहीं भी वर्णाश्रम से
सीधा कोई सम्बन्ध नहीं है. ब्राह्मण-महिमागान, शूद्र-नारी निन्दा आदि यदि आए हैं,
तो केवल प्रसंग वंश गौण रूप में, क्योंकि वह उनका परिवेश था, परन्तु फिर भी वह
वस्तुस्थिति के प्रति जागरूक बने रहते हैं. पेट पालन के लिए किए जाने वाले
देव-पूजन-अर्जन आदि को उन्होंने स्पष्टतम शब्दों में हेय बताया है. कुलगुरु
वशिष्ठजी कहते हैं―
                    ‘उपरोहित्य कर्म अति मंदा।
                    वेद पुरान स्मृति कर निंदा ।।
 
व्यक्ति महिमा का गान
      भावना के साथ व्यक्ति का महत्व बढ़ता गया है और आज लोकतंत्र के युग में व्यक्ति
का महत्व सर्वोपरि है- वह व्यक्तिवाद की सीमा तक पहुँच गया है. गोस्वामीजी ने
व्यक्ति की महिमा का ज्ञान अब से लगभग चार सौ वर्ष पूर्व किया था, जो युगीन सत्य है.
तुलसी ने बार-बार लोक मंगल की बात कही है―
          ‘मंगल करनि कलिमल हरनि
             तुलसी कथा रघुनाथ की।
उनके राम के जन्म का हेतु भी लोक मंगल ही है, परन्तु हमें यह समझ लेना
चाहिए कि लोक-मंगल का यह रूप लोक के प्रति समर्पित होते हुए भी लोक के मातहत
नहीं है, व्यक्तिदर-व्यक्ति ‘स्व’ की अनिवार्य भूमिका द्वारा साधित होता है. मानस में
व्यक्ति की अस्मिता को (उसके स्व को) तृप्त और परिष्कृत करके लोकोदय को साधित
करने की बात कही गई है. इसी से इसके प्रारम्भ में ‘स्वान्तः सुखाय’ और अन्त में
‘स्वान्तः तमः शान्तयें’ की बात कही गई है, आधुनिकतम मनोविश्लेषण और काव्य शास्त्र
के अध्येता यह स्वीकार करते हैं. कि साहित्य आदि विशेष के और व्यक्ति परक
बोध पर आश्रित है. साहित्य, संस्कृति, शिक्षा, धर्म आदि की अपील समूह से नहीं,
व्यक्ति से की जाती है.
 
आदर्श कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना
         गोस्वामीजी ने राम कथा के माध्यम से हमारे सम्मुख आदर्श परिवार की संकल्पना
प्रस्तुत करते हुए हमें एक आदर्श समाज का प्रारूप भेंट किया है. उनके राम का राज्य
वस्तुतः आधुनिक कालीन कल्याणकारी राज्य है. यह कल्याणकारी राज्य शासनतन्त्र
की अन्तिम परिणति के रूप में स्वीकृत है जिसमें व्यक्ति का महत्व है और उसकी
स्वतंत्रता पूर्णतः सुरक्षित है. स्वराज्य के इसी आदर्श रूप को पूज्य महात्मा गांधी ने
‘रामराज्य’ कहा है जिसकी परिकल्पना गोस्वामीजी ने आज से चार शताब्दियों पूर्व
ही कर ली थी. ऐसे रामराज्य से किसे विरोध हो सकता है―
          बयरू न कर काहु सन कोई।
           राम प्रताप विषमता खोई॥
बरना श्रम निज-निज धरम निरत वेद पथ लोग।
चलहिं सदा पावहिं सुखहिं नहिं भय सोक न रोग।
            दैहिक दैविक भौतिक तापा।
          राम राज्य काहुहि महिं व्यापा।।
            x       x        x        x
           अल्प मृत्यु नहिं कवनिउ पीरा।
           सब सुन्दर सब विरुज सरीरा।।
             नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना।
          नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना ॥
            सब गुणज्ञ पडित सब ज्ञानी।
           सब कृतज्ञ नहिं कपट सयानी।।
    इस तरह तुलसी द्वारा परिकल्पित शासन व्यवस्था में मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षियों
के भी पारस्परिक सौमनस्य की परिकल्पना समाहित है―
            ‘खग मृग सहज वयक्रू विसराई।
              सबहि परस्पर प्रीति बढ़ाई।।
तथा―
          ‘रहहिं एक संग गज पंचानन,
 
राजतंत्र जनमत पर आधारित है
    मानस में वर्णित शासनतंत्र अपने युग की परम्परा के अनुसार राजतंत्र कोटि का
है जिसमें राज्य वंशानुगत होता है, परन्तु तुलसी का राजतंत्र निरंकुश राजतंत्र नहीं
उस पर जनमत का अंकुश सदैव रहता है. यह सर्वोपरि है, राजा दशरथ अपने
ज्येष्ठ, योग्यतम पुत्र राम को युवराज पद पर अभिषिक्त करना चाहते हैं और ऐसा
करने का उन्हें अधिकार भी प्राप्त है, परन्तु इसके लिए लोकमत की स्वीकृति आवश्यक
है―
      जो पाँचे मत लागै नीका।
    करहु हरषि हिय रामहिटीका ।।
तुलसी के काव्य में लोकमत सदैव वेदमत के समानान्तर चलता है. उनकी
कविता रूपी सरयू के ‘वेदमत’ और ‘लोकमत’ मानो दो किनारे हैं―
            सरजू नाम सुमंगल मूला।
        लोक वेद मत मंजुल कूला ।।
तुलसी ने श्रीराम को लोकमत के वशीभूत दिखाते हुए स्पष्ट लिखा है कि―
            ‘लोक एक भाति को त्रिलोक नाथ लोक वस,
           अपनो न सोच वस, स्वामी सोच ही सुखत हों।
प्रशासक या राजा को अपढ़ या मूर्ख जनता के प्रति सम्मान प्रदान करने की बात
कभी नहीं भूलनी चाहिए. आज की अपढ़ मूर्ख जनता के क्षणिक सम्मान या निर्वाचन
द्वारा प्राप्त पद पर भूले हुए लोकहित को चेतना विरहित लोकतंत्र के आधुनिक
नेताओं, प्रशासकों के लिए तुलसीदास की मार्मिक व्यंग्य युक्त चेतावनी द्रष्टव्य है―
        तुलसी भेड़ी की धसन जड़ जनता सनमान ।
        उपजत ही अभिमान भो खोबत मूढ अपान ।।
प्रजा का रंजन शासक के अस्तित्व की आधार शिला है―
           जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी।
        सो नृप अवसि नरक अधिकारी।।
 
तुलसी के राम―
          ‘भूमि सप्त सागर मेखला।
          एक भूमि रघुपति कोसला।।
की सुदृढ़ एवं स्पृहणीय स्थिति को प्राप्त करने के उपरान्त भी जनमत का
ध्यान रखना नहीं भूलते हैं श्रीरामजी धर्मोपदेश करते समय प्रजातंत्र को स्वतन्त्र
चिन्तन एवं अपनी आलोचना का पूर्ण अधिकार स्वीकार करते हैं―
             सुनहु सकल पुरजन मम बानी।
             कहउं न कछु ममता उर आनी ।।
              नहिं अनीति नहिं का प्रभुताई।
              सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई।।
              जौ अनीति का भार्थों भाई
            तौ मोहि बरजहु भय विसराई ।।
अतः तुलसी के शासनतंत्र में ‘टाल्स्टॉय’ और ‘गांधी’ के Trusteeship सिद्धान्त की
पूर्व पीठिका व्याप्त है―
       मुखिया मुख सों चाहिए खान पान को एक ।
       पालै पोसै सकल अंग तुलसी सहित विवेक ।।
 
मार्क्सवादी शैली
तुलसी के काव्य में हमें मार्क्सवादी शैली के जनवाद की अभिव्यक्ति के दर्शन होते हैं―
                   ‘नहिं दरिद सम दुःख जग माहीं।
श्रीराम सकल मुनि जनों के आश्रमों के अतिरिक्त भीलनी शबरी की कुटिया पर भी
पहुंचते हैं. उन्हें (श्रीराम को) अपने द्वार पर देखकर शबरी अवाक एवं किंकर्तव्यविमूढ़
हो जाती है―
              ‘प्रेम मगन मुख वचन न आया ।
और वह सहसा कह उठती है―
             ‘केहि विधि अस्तुति करौं तुम्हारी।
 
आज के युग में भी आदिवासी, जनजाति, कोल, भील आदि जंगलों में रहते हुए भी
जंगली जीवन व्यतीत कर रहे हैं और अज्ञान के अंधकार में भटक रहे हैं श्रीराम
और भरत उन्हें गले लगाते हैं तथा सब प्रकार उनका सम्मान करते हैं. निषाद को
तुलसी ने राम का सखा कहा है. रघुनाथजी उसे अपने बराबर स्थान देते हैं. पूछते हैं―
                सहज सनेह बिबस रघुराई।
                पूँछी कुसल निकट बैठाई।।
भरत जैसे ही यह सुनते हैं कि निषादराज श्रीरामजी के साथ रह चुके हैं,
वैसे ही वह रथ से नीचे उतर पड़ते हैं और उसे अपने गले लगा लेते हैं―
               करत दण्डवत देखि तेहि भरत लीन्ह उर लाइ।
तुलसी का जनवाद जाति, सम्प्रदाय आदि के नाम पर आरक्षण और विशेषाधिकारों
की व्यवस्था नहीं करता है, वह तो केवल व्यक्ति के गुणों एवं उसकी उपलब्धियों को
मान्यता प्रदान करने वाला जनवाद है―
                कह रघुपति सुनु भामिन बाता।
                 मानहुँ एक भगति कर नाता ।।
                   जाति-पाति कुल धर्म बड़ाई।
                  धन-बल परिजन गुन चतुराई।।
                  भगतिहीन नर सोहइ ऐसा।
                बिनु जल बारिद देखिय जैसा ।।
 
रामकथा में अयोध्या नरेश दशरथ एवं लंकाधिपति रावण की कहानी के माध्यम से
सामंती व्यवस्था को पूरे आयाम में प्रस्तुत किया गया है, उसके अन्तर्गत भारत का
मध्य युग के लोक-जीवन अथवा जन-जीवन की सच्ची मार्मिक गाथा की धारा भी समान्तर
बहती है. ‘कवितावली में वे तत्कालीन युग की विसंगतियों का चित्रण करते हुए कहते हैं―
            खेती न किसान को भिखारी को न भीख बलि,
            बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी
            जीविका विहीन लोग सीधमान सोच बस,
            कहँ एक एकन सो कहाँ जाइ का करी ।
 
विद्रोही कवि
तुलसी एक विद्रोही कवि हैं. यहाँ तक कि वर्णाश्रम धर्म की रूढ़िवादिता के विरुद्ध
उन्होंने अपना मत स्पष्ट करते हुए यह कह दिया है कि मेरी कोई जाति-पाति नहीं है।
यदि वर्णाश्रम धर्म का अर्थ रूढ़िवादिता है, तो मुझे ब्राह्मण कहा जाना अस्वीकार है―
            धूत कही, अवधूत कही, रजपूत कही,
            जुलहा कही कोऊ।
            काहू की बेटी सों बेटा न स्याहब,
            काहू की जाति बिगारि म सोऊ।
पुष्पवाटिका में श्रीराम जानकी के मिलन एवं उनके पूर्वराग का सहृदयतापूर्ण निरूपण
करके तुलसी ने सगाई-विवाह की संस्थाओं पर गहरी चोट की है. पीढ़ियों के द्वन्द्व का
चित्रण रूसी कथाकार ‘तुर्गनेव ने अपने उपन्यास ‘फादर एण्ड सन्स’ में किया है।
इसे आधुनिक काल में महती मान्यता प्राप्त है, तुलसी के काव्य के फलक पर यह संघर्ष
आज से कई शताब्दी पूर्व अंकित हुआ था. राम वनवास के सन्दर्भ में भरत अपनी माता
कैकेयी के विरुद्ध संघर्ष करते हैं.
       राक्षसी शक्तियों के विरुद्ध मानवीय-दैवीय शक्तियों का संघर्ष ही राम कथा का
प्राण-तत्व है- सीता हरण के पूर्व राक्षसों के विनाश के लिए राम द्वारा किए जाने वाला
यह प्रण कितना स्पृहणीय है-
            निसिचर हीन करहुँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह ।
इसी संघर्ष का आधुनिक संस्करण है―’वर्ग-संघर्ष’ और ‘सर्वहारा की क्रान्ति’ जो
व्यक्ति इस संघर्ष और संगठन की अगुआई करता है. वही तो है आज के युग का राम
‘लेनिन’ और ‘गांधी’ को क्या आधुनिक युग के ‘राम’ नहीं कह सकते हैं?
 
तुलसी और महात्मा बुद्ध
        वर्तमान सन्दर्भ में रामचरितमानस के अध्ययन की आवश्यकता का सीधा-सा उत्तर
इस प्रकार हो सकता है-“जो बात शिल्प कला या प्रत्येक प्रकार के सांस्कृतिक कार्य-
कलाप आदि समस्त मानविकी विद्या के लिए सत्य है, वही मानस के लिए भी सत्य है. ये समस्त मानसिक प्रक्रियाएं और साधनाएं हैं.
इस उपलब्धि को हम मानसिक निरूजता और मानसिक समृद्धि कह सकते हैं.”
 यह उपलब्धि उसी प्रकार की है, जिसकी ओर महात्मा बुद्ध ने श्रामण्य के फल के
निरूपण की ओर संकेत करते हुए कहा था- “वह फल है- एक सुख, एक तृप्ति
एवं एक निरूजता, वह फल है, भय से मुक्त हो जाने का सुख, रोग से मुक्त हो जाने का
सुख, तृप्त काम हो जाने का सुख, वेदना की पहुँच से परे हो जाने का सुख !”
       रामचरितमानस की फल श्रुति भी ठीक इसी श्रेणी की है- परम विश्राम की प्राप्ति-
            ‘जाकी कृपा लवलेस तें मतिमन्द तुलसी दास हूँ
               पायो परम विश्राम राम समान प्रभु नाहीं कहूँ।’
वर्तमान कालीन ही नहीं, तुलसी की युग-युगीन प्रासंगिकता निश्चय ही असंदिग्ध है.
 
युग कालीन कवि
        तुलसी ने तीन ऐसे कार्य किए जिनके कारण वह युग द्रष्टा, युग स्रष्टा कवि के
रूप में तो जाने ही जाएंगे, बल्कि वे अजर-अमर भी बने रहेंगे. उन्होंने आदर्श गार्हस्थ
काव्य का सृजन करके आदर्श सनातन सामाजिक भूमिका का निर्माण, जाति, वर्ण, निरपेक्ष, 
आस्तिक मानववाद की अभिव्यक्ति तथा रामचरितमानस के माध्यम से भक्ति का प्रशिक्षण करना और समूह मन एवं व्यक्ति मन को कुंठारहित और निरुज करना.
        तुलसी का काव्य सच्चे अर्थों में मानव जीवन की गाथा है. उसमें मानव जीवन अपनी
सम्पूर्ण विविधता और विराटता के साथ अंकित हुआ है. उसका मुख्य सन्देश है―
लोक- -उद्धारक राम बनो, लोक-शोषक-उत्पीड़क रावण को मारो. तुलसी काव्य के
प्रति श्रद्धा या अनुराग का अर्थ, धर्म या इतिहास की अंधभक्ति नहीं है, अपितु मानव
के प्रति अटूट अनुराग और आस्था का प्रतीक है. तुलसी के मानस की भूमिका किसी भी
सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था में परिवार और गार्हस्थ जीवन के सन्दर्भ में सदैव
मूल्यवान रहेगी.
         अन्त में कहा जा सकता है कि तुलसी जो व्यवस्था देना चाहते हैं उसमें साधुमत,
लोकमत, नृपनय तथा वेद ज्ञान का सम्यक सामंजस्य है.
               भरत विनय सादर सुनिय करिय विचारू बहोरि ।
              करब साधुमत, लोकमत, नृपनय निगम निचोरि ।।
साधु मतानुसार लोकमत का सृजन हो, उसी परिप्रेक्ष्य में राजनीति के स्वरूप का
निर्धारण-संविधान का पालन करते हुए होना चाहिए. निश्चित रूप से तुलसी का मानस
और उनकी प्रासंगिकता ही उनके सन्देश को सत्यम्-शिवम् तथा सुन्दरम् बनाती है.

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