वर्तमान युग में मानवीय मूल्यों एवं नैतिकता की प्रासंगिकता

वर्तमान युग में मानवीय मूल्यों एवं नैतिकता की प्रासंगिकता

                  वर्तमान युग में मानवीय मूल्यों एवं नैतिकता की प्रासंगिकता

“न हवा की है गलती न दोष नाविक का, जो लेकर डूबा तुझे वो तेरा आचरण होगा।
घृणा का प्रेम से जिस दिन अलंकरण होगा, धरा पर स्वर्ग का उस रोज अवतरण होगा।”
                                                                                               
मानवीय मूल्य एवं नैतिकता वस्तुतः अन्योन्याश्रित हैं. सर्वप्रथम ‘मूल्य’ शब्द के अर्थ को समझना आवश्यक है. ‘मूल्य’ शब्द की संरचना संस्कृत के मूल धातु से यत् प्रत्यय लगाने पर हुई है जिसका तात्पर्य कीमत या मजदूरी होता है. डॉ. राधाकुमुद
मुखर्जी ने मूल्य की परिभाषा देते हुए कहा कि “जो कुछ भी इच्छित है वही मूल्य है.” मानवीय व्यवहार में मूल्य शब्द का अर्थ सहज जीवन, शुद्ध आचरण, आत्मसंयम, इन्द्रिय निग्रह, आत्मशुद्धि से है. शील, संतोष, सत्य, प्रेम, अहिंसा, नैतिकता, लोकमंगल और लोककल्याण की भावना भी मानवीय गुणों में ही सन्निहित हैं, जोकि मानवीय आवश्यकता की इच्छा की संतुष्टि के लिए प्रयोग में आता है. मूल्य शब्द का सम्बन्ध न केवल आध्यात्मिक से है, बल्कि सत्य, अहिंसा, शुद्धता, अच्छाई एवं सौन्दर्य से भी है. तात्पर्य यह कि यथार्थवादी विचारधारा में मूल्य का सम्बन्ध सत्य, ईमान, अहिंसा,
शुद्धता, अच्छाई एवं सौन्दर्य से है, जबकि आदर्शवादी विचारधारा में मूल्य को सत्ता और ज्ञान की विशिष्टता अथवा दशा से लिया गया है. इसलिए मानवीय मूल्यों की पहचान और परख अत्यन्त विचारणीय बिन्दु है. मानवीय मूल्यों की पहचान विषयीपरक
तथा साथ ही परिस्थितिनुकूल है.
          भारत में नैतिकता की समस्या भी सबसे मौलिक एवं प्राचीनतम है, क्योंकि इसका सम्बन्ध मानव अस्तित्व से है. Ethics ग्रीक शब्द Ethica से व्युत्पन्न है जिसका अर्थ है- रीति, प्रचलन या आदत. वस्तुतः नीतिशास्त्र का सम्बन्ध ऐच्छिक क्रिया या आचरण से है. भारतीय नैतिक दर्शन या चिन्तन के विकास में तथा मूल्यों का स्थापना में संस्कृत साहित्य का योगदान किसी से छिपा नहीं है. हमारी नीतिशास्त्र की जड़ें वैदिक साहित्य में निहित हैं. भारतीय धर्मग्रन्थों में मानव मूल्यों एवं नैतिकता को जिस प्रकार, सामाजिक धरातल प्रदान किया गया है और मानव को आध्यात्मिक मूल्यों की प्राप्ति की
प्रेरणा दी गई है वह मनुष्य में पूर्णता की प्राप्ति के लिए आवश्यक है. प्राचीन भारतीय वाङ्मय में मानवीय भावना को आध्यात्मिक मूल्यों से ओतप्रोत माना है. सभी धार्मिक ग्रंथों के उपदेशों और संदेशों में शुभत्व की मानवीय भावना अन्तर्निहित है.
         भारत के प्राचीन ऋषि-मुनियों ने भी गहन तपस्या व स्वाध्याय करके एक ऐसी विचारधारा व चिन्तन को नया दृष्टिकोण दिया, जिसमें आदर्शवादी दृष्टिकोण का आचरण के क्षेत्र में क्रियान्वयन किया जा सकें जो व्यवहार और आचरण में सहयोगी हों, आज वर्तमान युग में ईमानदारी, सच्चाई, सहृदयता, सहिष्णुता, कर्मठता, न्यायशीलता शालीनता, मर्यादा, आदर्श प्रतिमान, चरित्र निर्माण, नैतिक नियम, शुद्ध आचार-विचार, पवित्र संस्कार, धार्मिक विश्वास व धारणाएं, मानसिक और बौद्धिक विचारों में पवित्रता, रहन-सहन, खानपान, रीति-रिवाज, जोकि परम्पराओं में हमें ये मानव मूल्य प्राप्त हुए
हैं. इन मानवीय मूल्यों को समाज सेवा, संगठन, सत्ता और प्रबन्धन में इस प्रकार प्रयोग करना है, ताकि वो नीति निर्धारण में सहयोगी बन सकें.
          अनौपचारिक शिक्षा के साधनों के अभाव में इन मानवीय गुणों का विकास असम्भव-सा प्रतीत होता है. इसलिए शिक्षाविदों में शिक्षा का मुख्य उद्देश्य ज्ञान-पिपासा की शान्ति के साथ-साथ मानव में समानुकूलन की भावना को विकसित करना निश्चित किया है. जिसके लिए महर्षियों ने परम्परागत व्यवहार पर आधारित आचार संहिता का निरूपण किया है. आचार्य मनु ने मानवोचित धर्म के अनुपालन में अहिंसा और सत्य को प्रमुखता प्रदान की है, किन्तु उसके साथ ही अप्रिय सत्य और प्रिय असत्य न बोलने का भी संदेश दिया है. आचरण की शुद्धता से ही सच्चरित्र का निर्माण होता है. आत्मशुद्धि द्वारा मानव विकास के सर्वोत्कृष्ट शिखर पर पहुँच जाता है. भक्त प्रहलाद, धुव, ईसा मसीह और महात्मा गांधी आदि महापुरुषों ने कठिन तपस्या और त्याग की भावना से ओतप्रोत हो दीन-दुःखियों और परतन्त्रता की बेड़ियों से जकड़े हुए राष्ट्र को मुक्त कराया मनुस्मृति में कहा गया है―
                                           “ऋषयो दीर्घसन्ध्यत्वीध मायुखारप्नुयुः।
                                             प्रज्ञा यशश्च कीर्ति च ब्रह्मवर्चसमेव च।।”
 
वस्तुतः भारतीय नीतिशास्त्र एवं मानवीय मूल्यों की जड़ें वैदिक साहित्य में हैं, जो संसार का प्राचीनतम दार्शनिक साहित्य है. वेद में एक सरल नीति सहिता की रचना मिलती है. इसमें ऋत की अवधारणा का मुख्य स्थान है. सत्य सर्वोच्च सद्गुण है और असत्य एक दुर्गुण. सत्य शब्द ब्रह्म सूचक है जिसकी अनुभूति सत्यम् शिवम् सुन्दरम् अर्थात् असत्य सत्य ही शिव है, शिव ही सुन्दर है और सुन्दर कल्याण का वाचक है. ईशावस्योपनिषद् में कहा गया है―
                            “हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्,
                             तत्वं पूषन्नपावृणु सत्य धर्माय दृष्टये।”
 
यह अनुभव हमें व्यवहारिक जीवन में भी दिखाई पड़ता है. अपराध करने पर भी अधिकारियों को रिश्वत देकर अपराध वृत्ति को छुपाया जा सकता है, असत्य बोलकर स्वार्थ सिद्धि की जा सकती है, किन्तु असत्य का फल क्षणिक सुखदायक होता है तथा कालान्तर में उसके दुष्परिणाम परिलक्षित होने लगते हैं।
 
                               मानव सेवा सबसे बड़ा मानव धर्म
 
पुरुष सूक्त में पहली बार हिन्दू समाज के चार वर्गों में विभाजन का संकेत मिलता है. परिवार को इकाई माना गया है और व्यक्ति का कर्तव्य यह भी बतलाया गया है कि वह अपने परिवार के प्रत्येक सदस्य के प्रति कर्तव्य का पालन करे. इससे स्पष्ट है कि वैदिक नीति संहिता धार्मिक के साथ-साथ सामाजिक भी है. महर्षियों ने सदाचार के अनुपालन के लिए त्रिविध (कायिक-वाचिक और मानसिक) तप की परिगणना की है. ये तप मानव को सदाचार सम्पन्न बनाते हुए इष्टप्राप्ति में सहायक सिद्ध होते हैं. क्यों कि इन्द्रियों का संयम और देवाराधान ही मनुष्य को देवतुल्य बना देती है अर्थात् मानव में मानवीय गुणों को विकसित करती है. इसमें ‘सर्वभूतहिते रताः’ की भावना विशेष रूप से निहित रहती है। मानवीय सेवा मनुष्य का सबसे बड़ा मानव धर्म है और देवी प्रकाश के उत्पादन का साधन है. अतः मानव के लिए आवश्यक है कि वह बलवान्, विद्वान् और अर्थवान के साथ-साथ आचारवान् भी हो.
         वेद न केवल यज्ञादि अनुष्ठानों के माध्यम से इष्टप्राप्ति और अनिष्ठ परिहार का मार्ग प्रशस्त कर पारलौकिक सत्ता की प्राप्ति में सहायक होता है, अपितु जन-सामान्य के विकास को सामने रखते हुए मानव में मानवीय गुणों की अभिवृद्धार्थ साधना और ज्ञान पक्ष की अनिवार्यता सिद्ध करते हुए अनासक्ति कर्मयोग का उपदेश भी देता है. वेद चतुष्टय नाम से प्रसिद्ध ये अपौरुषेय ग्रंथ ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद भाग से मानव जाति को आध्यात्मिक, आधिदैनिक और आधिभौतिक दुःखो से निवृत्त करता हुआ अभ्युदय के मार्ग को प्रशस्त करता है. ऋग्वेद उत्तम विचारों का संग्रह है. यजुर्वेद, उत्तम कर्मों में प्रवृत्त करने वाला ग्रंथ है, सामवेद, सदुपासनावृत्ति द्वारा मानवीय मार्ग प्रशस्तीकरण का साधन है तथा अथर्ववेद, योगसाधना की प्रक्रिया द्वारा समता या स्थितप्रज्ञत्व प्रदान करने वाला ग्रंथ है.
            गृहस्थाश्रम, भारतीय समाज का मेरुदण्ड कहा जाता है. अन्य आश्रमों की स्थिति गृहस्थाश्रम पर ही निर्भर करती है. अतः गृहस्थाश्रम भारतीय संस्कृति और सभ्यता का आधार बिन्दु कहलाता है, नैतिकता, सदाचार व सद्व्यवहार, संस्कृति
और सभ्यता का प्राणाधार, जो मानव में मानवीय गुणों की अभिवृद्धि प्रदान कर उसे समाजोचित कृत्यों को सम्पादित करने की योग्यता प्रदान करता है जैसाकि यजुर्वेदीय मंत्र में कहा गया है-“तू पृथ्वी पर रहने वाली प्रजा की सुसेवा, मानव जाति के अभ्युत्थान तथा संस्कृति और सभ्यता की रक्षा के लिए कटिबद्ध रहे.” इससे यह स्पष्ट होता है कि परिवार ही व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का आधार है. उसकी सुव्यवस्था, शान्ति और उन्नति पर ही व्यक्ति समाज और राष्ट्र की उन्नति निर्भर करती है. दूसरे शब्दों में, पारिवारिक जीवन का मूलाधार पारस्परिक आत्मीयता और सबके लिए कर्म- निष्ठा है जिसके पारस्परिक हित, चिन्ता और सबके लिए कर्म करते रहने की उदार भावना विद्यमान है.
           वैदिक महर्षियों ने कर्तव्य और निष्ठा से अनुप्राणित पारिवारिक जीवन को सुसभ्य समाज का मापदण्ड निश्चित किया है उनके मतानुसार जनमानस पर पारस्परिक ऐक्य सौहार्द और सद्भावना के भाव अंकुरित किए बिना सुख और समृद्धि से परिपूर्ण पारिवारिक जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती है. अतः प्राणीमात्र में कौटुम्बिक भावना की अभिवृद्धि ही व्यक्ति के सामाजिकीकरण का मूलाधार है. आधुनिक परिप्रेक्ष्य में ब्रिटिश संसद और भारतीय संसद तथा विधान सभाओं ने शासन और न्याय सम्बन्धी व्यवहार में स्मृति प्रतिपादित व्यवहार पद और आचार संहिता को महता प्रदान की है. अतः नवीन कानून व्यवस्था के अन्तर्गत निर्धारित उत्तराधिकार, विवाह, रिक्तजाति तथा धार्मिक संस्थाओं से सम्बन्धित नियमों में प्राचीन आचार-व्यवहार सम्बन्धों को प्रतिष्ठा मिलती चली आई है. धर्मशास्त्र के ग्रंथों में सामाजिक अपराधों की रोकथाम के लिए आत्मदण्ड या आत्मबुद्धि जैसी प्रायश्चित की विधि बतलाई गई है. इस विधि व्यवस्था का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इसमें पातक करने वाला व्यक्ति स्वयं को अपराधी मानकर अपने पाप के प्रक्षालन के लिए प्रायश्चितस्वरूप दण्ड को स्वयं स्वीकार कर लेता है, जबकि आज के कानून में एक व्यक्ति के अपराध करने पर उसकी सूचना दर्ज हो जाने पर भी शासन को अभियोग चलाकर पहले अपराध सिद्ध करना होता है और यदि किसी भी कारणवश शासन न्यायालय में अभियोग सिद्ध न कर पाए अथवा अभियोजन पक्ष में कहीं छोटी-मोटी भूल-चूक रह जाए, तो इस संदेह का लाभ अपराधी को मिलता है और वह अपराध करने के बाद भी दोष और दण्ड से मुक्त हो जाता है. इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि धर्मशास्त्र में प्रायश्चित की व्यवस्था समाज में अपराधों की रोकथाम और सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने में बहुत बड़ी भूमिका निभा रही है.
          भारतीय आचार नीति एवं मानवीय मूल्यों का स्पष्ट रूप महाकाव्यों रामायण एवं महाभारत में भी दृष्टिगोचर होता है. इन दोनों ही महाकाव्यों ने भारतीय जनजीवन को प्रभावित किया है. दोनों ही ग्रंथों के पात्रों ने चरित्र-चित्रण द्वारा नैतिक आदर्शों की शिक्षा दी है. महाभारत की तो मान्यता इतनी है कि उसे पाँचवाँ वेद कहा गया है. यह ऐसा युग था जिसमें नए विचारों का पुराने विचारों से समन्वय हो रहा था. महाभारत में नैतिक आदर्श एवं मानवीय मूल्यों का आधार मनोवैज्ञानिक था, इनके अनुसार सभी को सुख की चाह है और दुःख से घृणा, परन्तु यह संसार सुख-दुःख मिश्रित है यद्यपि दोनों अनित्य है. अतः लक्ष्य होना चाहिए उस स्थिति को प्राप्त करना जिसमें हर्ष-विषाद से हम प्रभावित न हों. रामायण अपने काल के विश्वासों और रिवाजों का चित्रण करता है. यह अपने विभिन्न पात्रों के द्वारा उस युग के आदर्शों को व्यक्त करता है, रामायण के अनुसार भी मोक्ष सर्वोच्च आदर्श है और यह है ईश्वर प्राप्ति, अन्य सभी उसी के साधन हैं, रामायण में ज्ञान और कर्म के अतिरिक्त भक्ति को भी मोक्ष का साधन माना गया है. संस्कृत साहित्य में अमूल्य रल कवि कुलगुरु कालिदास ने अभिज्ञान शाकुन्तलम नामक नाटक के अन्तर्गत महर्षि कण्व ने पति गृह प्रस्थान काल के समय आशीर्वचन स्वरूप वेद प्रतिपादित मानवीय मूल्यों एवं आचार संहिता की शिक्षा दी है―
                “शुश्रूषस्व गुरून् कुरू प्रियसखीवृत्ति सपत्नीजने,
                 भर्तुविप्रकृतापि रोषणतया मा स्म प्रतीपं गमः।
                 भूपिष्ठं भव दक्षिणा परिजने भोगेष्वनुत्सेकिनी,
                 यान्त्येवं गृहिणीपदं युवतयो वामाः कुलस्याधयः।।”
 
      वस्तुतः हमारा सम्पूर्ण साहित्य ही नैतिक एवं मानवीय मूल्यों से परिपूरित है. व्यक्ति की जीवन पद्धति, आचरण, गुणकर्म, अनुभवजन्य, विकसित मूल प्रवृत्तियाँ गुण- दोष, व्यक्तियों के प्रति व्यवहार, उनके प्रति किया गया क्रियाकलाप, अंग-प्रत्यंगों की पूर्णता, रूप सौन्दर्य, स्मरणशक्ति, कल्पनाशक्ति, ज्ञान, तर्क-वितर्क, चिन्तनशक्ति, बौद्धिक और भावनात्मक प्रवृत्तियों मनुष्य के आन्तरिक जीवन के प्रकाशक है. इन्ही मूल्यों के आधार पर सामाजिक संरचना का निर्माण होता है. जिस प्रकार की सामाजिक एवं मानवीय संरचना होती है वैसा ही समाज, साहित्य व दर्शन निर्मित होता है.
 
मानवीय मूल्यों में आत्मचेतना
        मनुष्य के जीवन का उद्देश्य पुरुषार्थ चतुष्टय अर्थात् धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष की प्राप्ति है, यही मानव जीवन का सर्वस्व है. यही प्रेरणा नवजीवन के नए मूल्यों का संचार करती है. ऐसे दिव्य मानवीय मूल्यों में आत्मचेतना और सनातन सत्य की भावना बलवती होती है, जैनधर्म के पाँच महाव्रत, महात्मा बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग, वैदिक धर्म के दस नियमों में ऐसे मानवीय मूल्यों की प्रेरणा दी है जिसका आचरण में क्रियान्वयन करने से मानव का जीवन सुसंस्कृत एवं कल्याणकारी बन सकता है. ये नियम मानवोचित और लोकमंगल से युक्त हैं. जिसका मूल आधार शुद्ध आचरण, आत्म- परिष्कार और आत्मशुद्धि है. इन मूल्यों से समस्त मानसिक व शारीरिक चित्तवृत्तियों को अहंकार रहित होकर जीवन जीना इस आचार संहिता का अभीष्ट गुण है. परोपकार, त्याग, कल्याण और मानवतावाद से ओतप्रोत इन नियमों में विश्व के सभी धर्मो, दर्शनों की मूल मान्यताओं तथा सिद्धान्तों का समावेश है. संस्कृत साहित्य में मानवीय मूल्यों की पूर्व पीठिका में वेदों, उपनिषदों, गीता. पुराणों, रामायण, रामचरित- मानस, बौद्ध धर्म, जैनधर्म, स्मृतियाँ, दर्शन, नीतिशास्त्र आदि धार्मिक ग्रंथों का अहम् स्थान है. भारतीय धर्म परम्परा व साधना उत्तरोत्तर प्रगति के साथ अग्रसर हुई है. इनका प्रभाव अठारहवीं तथा उन्नीसवीं शताब्दी के विचारकों तथा मनीषियों पर पड़ा है.
       नैतिक एवं मानवीय मूल्य हमारी शिक्षा नीति के प्रमुख आयाम होने चाहिए, जो मानव व परिवार में समन्वय, समाज में एकता, नवीन मूल्य तथा नई नीति तय कर सके. यदि इन मूल्यों का सार्वजनिक जीवन में अवमूल्यन होता है, तो परिणामतः सरकारी संगठन, सेवा तथा प्रबन्धन व्यवस्था में असन्तुलन उत्पन्न होना स्वाभाविक है जिसके कारण भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, अराजकता, अव्यवस्था, अनाचार, वैमनस्य, घृणा, द्वेष, अनैतिकता, मानसिककुंठा, क्रोध, अहंकार, स्वार्थ, नारी अपमान, अलगाववाद, आतंक- वाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद आदि घटनाओं को बढ़ावा मिलता है, जिसके कारण भारतीय जनमानस अत्यन्त प्रभावित हुआ है. परिणामस्वरूप मानव हृदयहीन और मूक- दर्शक हो गया है.
        वर्तमान समय में आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षा में संस्कारों, नैतिकता एवं मानवीय मूल्यों को समाविष्ट किया जाए.
 
सर्वधर्म समभाव
        आज हम आर्थिक उदारीकरण, आरक्षण, गरीबी, उन्मूलन, रोजगार वितरण, मुफ्त अनाज बाँटकर या साक्षरता का नारा देकर सामाजिक व्यवस्था को बदल नहीं सकते हैं. सत्ता और सम्पन्नता की दौड़ में निरन्तर भाग लेने वाले शायद ऐसा ही मान रहे हैं, लेकिन प्रायः वे भूल जाते हैं कि हर अच्छे-बुरे कार्य के पीछे मनुष्य की मानसिकता है. जब तक निरन्तर वृद्धिगामी विकृतियों को रोका नहीं जा सकता तब तक हमारी मानसिकता को उन्नयन की दिशा नहीं मिल सकती है. आज हमारे पास केवल एक ही मार्ग शेष है, जो सार्थक सिद्ध हो सकता है वह है शिक्षा में सम्यक् जीवन मूल्यों का समायोजन समाज को बदलने में जो भूमिका हमारे जीवन मूल्य निभा सकते हैं वह अन्य कोई शक्ति नहीं निभा सकती है. हमें अपनी समस्त शिक्षा पद्धति को जीवन मूल्यों से जोड़ना होगा. इसका प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से मानवीय मूल्यों से अनुप्रेरित है. मानवीय मूल्यों का अवमूल्यन या उनका स्वरूप विकृत होने के साथ मानव जीवन के सभी आयामों, पद्धतियों के साथ-साथ शिक्षा, साहित्य, इतिहास, दर्शन, परम्पराएं, ज्ञान-विज्ञान, राजनीति, सामाजिक संरचना सांस्कृतिक परिवेश, आर्थिक परिवर्तन और सम्पूर्ण जीवन व्यवहार से सम्बन्धित सभी पहलू प्रभावित होते हैं. एक समय था जब धर्म और साहित्य मिलकर मूल्यपरक स्वस्थ मानसिकता की रचना करते थे. अब यह स्थिति नहीं रही. अब विभिन्न धर्मों का पारस्परिक संघर्ष प्रत्येक देश में बढ़ रहा है, इसके पीछे धार्मिक कट्टरता, मजहबी उन्माद, मठाधीशों की गलत नीतियों, धर्म और राजनीति का परस्पर द्वन्द्व आदि ऐसे अनेक कारण हैं, जो सर्वधर्म समभाव की भावना स्थापित नहीं होने दे रहे हैं. सर्वधर्म समभाव व विश्वबन्धुत्व की भावना के अभाव में स्वस्थ मानसिकता पर आधारित धार्मिक विचारधारा का आदान-प्रदान निरन्तर अवरुद्ध होता जा रहा है. ईश्वर और धर्मग्रंथों का स्थान विकृत अहंकार ने ले लिया है.
      विकृत धार्मिक मानसिकता के प्रभाव से मानव मूल्यों एवं नैतिक आचरण में लगातार गिरावट आ रही है. पुरातन साहित्य और संस्कृति भी अब मूल्यपरक सच्ची धार्मिक व सामाजिक मानसिकता के निर्माण और विकास में उतना योगदान नहीं दे पा रही है जितना उसने अतीत में दिया था.

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