वाक्य की परिभाषा

वाक्य की परिभाषा

                         वाक्य की परिभाषा

वाक्य की अत्यंत सहज और सरल परिभाषा यह है कि सार्थक शब्दों का यह वह समूह होता है, जो भाव
को व्यक्त करने की दृष्टि से अपने-आपमें पूर्ण हो । लगभग सभी कोशों तथा व्याकरणों में भी वाक्य की ऐसी ही
परिभाषा दी गयी है। यूरोप में पहली शताब्दी ईसवी पूर्व में थैक्स ने वाक्य की परिभाषा देने का पहला प्रयास किया
था। भारतवर्ष में पहली बार यह कार्य सन् इसवी के लगभग एक सौ पचास ईसवी पूर्व में पतंजलि ने किया था।
इन दोनों आचार्यों के वाक्य संबंधी विचारों का भावन करें तो पता चलेगा कि ये दोनों ही आचार्य पूर्ण अर्थ की प्रतीति
कराने वाले शब्द समूह को ही वाक्य मानते हैं।
 
विचार करने पर यह ज्ञात होता है कि समझने-समझाने के लिये तो ये परिभाषाएँ ठीक प्रतीत होती हैं परंतु
तात्त्विक दृष्टि से विश्लेषण करें तो इन्हें सर्वतोभावेन ठीक कहने और मानने में कठिनाई होती है। विचार करने पर
यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि भाषा में या बोलने में वाक्य ही प्रधान होता है। वाक्य ही भाषा की इकाई है।
व्याकरणवेत्ताओं ने संभवतः कृत्रिम रूप से वाक्य को तोड़कर प्रयुक्त शब्दों को अलग-अलग कर दिया है। हमारा
सोचना, समझना, बोलना या किसी भाव को हृदयंगम करना सबकुछ ‘वाक्य’ में ही होता है। ऐसी स्थिति में ‘वाक्य
शब्दों का समूह हैं’ कहने की अपेक्षा ‘शब्द वाक्यों के कृत्रिम खंड’ है कहना अधिक युक्तियुक्त और समीचीन है।
 
‘पद’ और ‘वाक्य’ को लेकर भारतवर्ष में मीमांसकों में प्रायः ही विवाद रहा है। अन्विताभिधानवाद सिद्धांत
के अनुसार वाक्य की ही सत्ता मूल है और ‘पद’ उसके तोड़े गए अंश हैं, किंतु अभिहितान्वयवाद के अनुसार पद
की ही सत्ता है, और वाक्य पदों का जोड़ा हुआ रूप है। भर्तृहरि ने भी अपने ‘वाक्यपदीय (ब्रह्मखंड, 73) में वाक्य
की सत्ता को ही वास्तविक कहा है। स्पष्ट ही अन्विताभिधानवाद या भर्तृहरि का मत ही आज के भाषा-विज्ञान जगत
को लगभग पूरी तरह मान्य है और वाक्य ही भाषा की न्यूनतम पूर्ण सार्थक सहज इकाई है। भारत में पतंजलि के
बाद अन्य कई आचार्यों ने भी वाक्य की परिभाषाएँ दी हैं। आचार्य विश्वनाथ की बड़ी प्रसिद्ध परिभाषा है-“वाक्ये
स्यात् योग्यताकांक्षासत्तियुक्तिः पदोच्ययः” । ऋषि जैमिनी भी कहते हैं: “अर्थकत्वादेकं वाक्यं साकांक्ष चेद्विभागे स्यात् ।”
 
इस प्रकार उपर्युक्त परिभाषाओं को देखने से उनमें मूलतः दो बातें स्पष्टता से दिखाई पड़ती हैं :
 
1. वाक्य शब्दों का समूह है।
 
2. वाक्य पूर्ण होता है।
 
‘वाक्य शब्दों का समूह है’ बोध के अंतर्गत यह स्पष्ट है कि वाक्य का शब्द-रूप में विभाजन स्वाभाविक
नहीं है। आज भी संसार में ऐसी भाषाएँ हैं जिनमें वाक्य का शब्द-रूप में कृत्रिम विभाजन नहीं हुआ है । एसी
भाषाओं में वाक्य तो हैं, पर शब्द नहीं। इस बोध पर एक और दृष्टि से विचार किया जाना चाहिये। ‘वाक्य शब्दों
का समूह है’ का अर्थ है कि वाक्य एक से अधिक शब्दों का होता है। परंतु विचार करने पर यह कथन पूर्णत: ठीक
नहीं लगता। एक शब्द का भी वाक्य होता है। एक छोटा-सा बच्चा जब माँ से ‘बिछकुट’ (बिस्कुट) कहता है।
तो यह एक वाक्य ही होता है क्योंकि इस एक शब्द के वाक्य से ही वह अपना पूरा भाव व्यक्त कर देता है।
व्यावहारिक जीवन में भी हम बातचीत में प्राय: एक ही शब्द के वाक्य का प्रयोग करते हैं। उदाहरण से समझें-
 
राम-तुम घर कब आओगे?
 
श्याम-कल, और तुम?
 
राम-परसों।
 
श्याम और मोहन गया क्या ?
 
राम-हाँ।
 
ऐसे ही ‘खाओ’, जाओ’, लिखिये’, पढ़िये’, चलिये’, आदि भी एक ही शब्द के वाक्य हैं।
 
वैसे वाक्य की ‘पूर्णता’ का प्रत्यय भी कम विवादास्पद नहीं है। यह प्रत्यय भी पूर्णतः पूर्ण नहीं है। इसे
उदाहरणों द्वारा समझा जा सकता है। व्यावहारिक जीवन में अपने भावों को व्यक्त करने के लिये प्रायः हम कई-कई
वाक्यों में व्यक्त करते हैं। वह भाव जो अपने-आप में पूर्ण है हम उसे कई-कई वाक्यों में इसलिये व्यक्त करते हैं।
क्योंकि तभी वे सभी वाक्य मिलकर उक्त भाव को व्यक्त कर पाते हैं। जाहिर है इससे यह निश्चित होता है कि
ये वाक्य पूर्ण (पूरे भाव) के खंड मात्र हैं, अत: अपूर्ण हैं । ध्यातव्य है कि इतने ही से इस विवाद की समाप्ति नहीं
होती । मनोविज्ञान के निष्णात वेत्ता तो उस भाव या उस एक पूरी बात को भी (जिसमें बहुत से वाक्य होते हैं) अपूर्ण
ही मानता है, क्योंकि जन्म से लेकर मृत्यु तक उसके अनुसार भाव की एक ही अविच्छिन्न धारा प्रवाहित होती रहती
है और बीच में आने वाले छोटे-मोटे सारे भाव या बातें उस धारा की लहरें मात्र ही तो हैं। स्पष्ट है, फिर वह
अविच्छिन्न धारा ही केवल मात्र पूर्ण है। कहने की आवश्यकता नहीं कि उस आविच्छिन्न धारा की पूर्णता की तुलना
में एक भाव या विचार भी बहुत अपूर्ण ही है। फिर उस एक पूरे वाक्य की पूर्णता के विषय में क्या कहना, जो
पूरे भाव या विचार का एक छोटा खंड मात्र है।
 
उपर्युक्त विश्लेषण से यह ज्ञात होता है कि वाक्य की जो प्रचलित परिभाषा है, वह बहुत ही अपूर्ण तथा अशुद्ध
ही है। इस प्रकार उपर्युक्त विवादग्रस्त पृष्ठभूमि में यही कहा जा सकता है कि “वह अर्थवान ध्वनि-समुदाय जो पूरी
बात या भाव की तुलना में अपूर्ण होते हुए भी व्याकरणिक दृष्टि से अपने-आप में पूर्ण हो तथा जिसमें प्रत्यक्ष या
परोक्ष रूप से क्रिया का भाव हो, वाक्य है।”
 
इसे ही यदि अत्यंत संक्षेप में कहना चाहें तो कह सकते हैं कि “वाक्य व्याकरणिक दृष्टि से लघुतम पूर्ण कथन
या भाषांश है।”
अस्तु यह कहना ही अधिक संगत है कि ये सभी परिभाषाएँ भी हर दृष्टि से पूर्ण तथा वैज्ञानिक नहीं हैं, किंतु
किसी अन्य अधिक समीचीन परिभाषा के अभाव में ये ही काम दे सकती हैं।

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