वाक्य के तत्त्व
वाक्य के तत्त्व
वाक्य के तत्त्व
वाक्य के तत्व’ से तात्पर्य वे लघुतम ईकाइयाँ जिन्हें मिलाकर किसी वाक्य की संरचना संभव होती है। इस
‘दृष्टि से संसार की सभी भाषाओं में वाक्य के दो भाग या खंड माने गये हैं-1. उद्देश्य, और 2. विधेय। आचार्य
किशोरी दास बाजपेयी भी वाक्य में उद्देश्य और विधेय । ये ही दो मुख्य तत्व मानते हैं ।
किसी के बारे में हम कुछ कहते हैं। जिसके बारे में कुछ कहते हैं, वह ज्ञात रहता है । यही उद्देश्य है । उसके
बारे में जो कुछ कहा जाता है, या बताया जाता है-वह हमें पहले से अज्ञात रहता है; इसीलिये वह ‘विधेय’ या
प्रतिपाद्य है। उद्देश्य और विधेय को ही संस्कृत में अनुवाद’ या ‘विधेय’ कहते हैं। पहले उद्देश्य बोला जाता है तब
विधेय आता है। यह स्वाभाविक स्थिति है-‘राम सोता है’ या ‘राम चोर है’। ‘सोना’ विधेय है और राम का ‘चोर
होना’ विधेय है। ‘चोर’ विधेय-विशेषण है, इसलिये इसलिये पर-प्रयोग है। इसे उलटकर ‘चोर राम है’ साधारण
स्थिति में नहीं कर सकते । उद्देश्य पर अधिक जोर देना हो तो भी जाए गा-‘चोर तो है मोहन और दंड मिल रहा
है सोहन को ।’ परंतु यदि ऐसी स्थिति न हो तो उद्देश्य का पूर्ण प्रयोग ही होगा विधेय का पर-प्रयोग । कहा गया है-
‘अनुवाद्यमनुक्लैव न विधेयमुदीरयेत्’
उद्देश्य का उच्चारण किये बिना पहले ही विधेय का उच्चारण नहीं कर देना चाहिए। यह सामान्य विधि है।
‘अनुवाद्य’ इसलिये उद्देश्य को कहते हैं, क्योंकि वह ज्ञात होता है-
‘भूमि सयन बलकल बसन, असन कंद फल-मूल’
‘सयन’ (शयन) यहाँ भावात्मक संज्ञा नहीं, अधिकरण-प्रधान शब्द है-शय्या का पर्याय । इसी तरह ‘असन’
(अशन) भी’ कर्मणि प्रत्यय से है-राजजनोचित भोज्य सामग्री का अभिधायक है। वन में भूमि ही शय्या होगी,
वल्कल ही परिधान होंगे और कंद-मूल ही वहाँ भोजन होगा। इस तरह पहले उद्देश्य फिर विधेय । यदि उपमा उपमेय
भाव हो, रूपक हो तो फिर क्रम बदल जाएगा। विरह में कहा जा सकता है-‘शय्या काँटों से भरी भूमि है अब,
भोजन विष है और भवन वन है।’ यहाँ शय्या-आदि में कंटकाकीर्ण भूमि आदि का आरोप है, ठीक है। यहाँ इस
क्रम को उलट नहीं सकते । मीरा ने कहा-‘लाओ, अमृत है विष’? यह प्रयोग गलत है। विष प्रकृत है, जो कि मीरा
के सामने लाया गया है। उसे वे अमृत के समान समझकर ग्रहण कर रही हैं-विष में अमृत का आरोप है। इसलिये
पहले विष का प्रयोग होना चाहिए, उसके बाद अमृत का । लाओ, विष अमृत है, ठीक होगा। वामन भगवान के लिये-
‘जिसकी गृहिणी लक्ष्मी, वह भी कहीं कुछ
माँगने के लिये लघुता प्राप्त करे यह विडम्बना है।,
यहाँ लक्ष्मी जिसकी गृहिणी, यों पद-प्रयोग होना चाहिये । परंतु-“उसकी स्त्री लक्ष्मी है। घर सँभाल लिया।’
यहाँ लक्ष्मी का पर-प्रयोग उचित है। किसी पितृभक्त के वाक्य में-‘नारायण हैं मेरे ‘पिता’ ठीक नहीं। वह अपने
‘पिता को ही नारायण समझ रहा है, इसलिये पिता मेरे नारायण हैं, प्रयोग होना चाहिये। हाँ कोई भगवान का अनन्य
भक्त कह सकता है-‘नारायण है मेरे पिता’ । यहाँ ‘नारायण’ में पिता का आरोप है।
उद्देश्य और विधेय को एक और उदाहरण से यों समझ सकते हैं ‘राम जाता है’ वाक्य में ‘राम’ उद्देश्य है।
और ‘जाता है’, विधेय। हालाँकि यह नियम संसार की सभी भाषाओं पर लागू नहीं होता।
वाक्य के निकटस्थ अवयवः
वाक्य का अध्ययन उनको निकटस्थ या निकटतम अवयवों में बाँटकर भी किया जा सकता है। जब वाक्य
में एक से अधिक पद या रूप हों तो ऐसा किया जा सकता है। वाक्य में प्रयुक्त ‘पद’ या ‘रूप’ ही उसके ‘अंग’-
या ‘अवयव’ हैं। कोई रचना जिन दो या अधिक अवयवों से मिलकर बनती है, उनमें से प्रत्येक ‘निकटस्थ अवयव’
कहलाता है। निकटस्थ का आशय आसान से नहीं हैं; अपितु अर्थ से है। अंग्रेजी वाक्य ‘इज राम गोइंग’ में यद्यपि
‘इज’ और गोइंग स्थान की दृष्टि से दूर-दूर हैं, किंतु अर्थ की दृष्टि से वे निकट हैं। इसमें ‘इज’ और गोइंग ‘इज
गोइंग’ रचना के निकटस्थ अवयव हैं। दूसरी ओर ‘द कॉज ऑफ देट मिल्कमेन आर कमिंग, में ‘मिल्कमेन’ तथा
‘आर’ स्थान की दृष्टि से ‘निकटस्थ’ हैं किन्तु अर्थ की दृष्टि से निकट नहीं; (मिल्कमेन आर या मिल्कमैन आर
कमिंग, कोई रचना नहीं है, और ये एक प्रकार से निरर्थक हैं।) अतएव उन्हें निकटस्थ अवयव नहीं माना जा सकता।
इसमें प्रथम स्तर पर निकटस्थ अवयवों के तीन वर्ग बनाए जा सकते हैं-‘द कॉज’ ‘देट मिल्केन’ तथा ‘आर कमिंग’।
दूसरे स्तर दो हैं’ ‘द कॉज ऑफ देट मिल्कमेन’ तथा ‘आर कमिंग’ । हिन्दी का एक वाक्य है-‘वह सुंदर कुत्ता जो
कल रास्ते में मिला था, आज अपने मालिक के पास भेज दिया गया। इसमें सत्रह पद हैं। ‘निकटस्थ’ ‘अवयव’
की दृष्टि से इसका विभाजन इस प्रकार होगा-
(‘वह’, सुंदर कुत्ता’, ‘जो’, ‘कल’, ‘रास्ते में मिला था’, ‘आज’, ‘अपने मालिक’, ‘के पास’, ‘भेज दिया गया ।)
इसका आशय यह है कि कई स्वरों पर निकटस्थ अवयवों को अलग किया जा सकता है। निकटस्थ अवयव
पदक्रम या शब्दक्रम पर निर्भर करते हैं। ऊपर तो सरलता से उन्हें अलग कर लिया गया है, किंतु ऐसे भी वाक्य मिलते
हैं जहाँ वे इस प्रकार अलग-अलग नहीं होते। उनके बीच में अन्य निकटस्थ अवयव या उनके अवयव भी आ जाते
हैं। अंग्रेजी के प्रश्न सूचक वाक्यों में जब क्रिया का सहायक अंश एक ओर तथा मूल अंश दुसरी ओर होता है, तो
यही स्थिति होती है। ‘इज द ब्लेक डॉग कमिंग, में ‘इज’ और कमिंग’ निकटस्थ अवयव हैं, और उसके बीच में
द ब्लेक डॉग’ दूसरा अवयव है।
वाक्य में निकटस्थ अवयवों का महत्त्व बहुत अधिक होता है। अर्थ की प्रतीति इसी कारण होती है। भाषा
का प्रयोक्ता या श्रोता जाने या अनजाने इससे परिचित रहता है। यदि ऐसा न हो तो वह अर्थ नहीं समझ सकता।
एक भाषा से दूसरी में अनुवाद करने में भी इसका पूरा ध्यान रखना पड़ता है। अनुवाद में जब हम कहते हैं कि शब्द
के लिये नहीं रखा जाना चाहिये तो वहाँ हमारा आशय इसी से होता है। अनुवादकर्ता ‘निकटतम अवयव’ का अनुवाद
करके ही सफल हो सकता है; पद-पद का अनुवाद करके नहीं। कुछ उदाहरण लिये जा सकते हैं-‘ही फेल इन लव
विथ हर’ का सीधा अनुवाद होगा-‘वह गिरा में प्रेम से उसके ।’ लेकिन निकटस्थ अवयव में बाँटे तो ‘ही’, ‘फेल’
इन लव, ‘विथ हर’ के रूप में लेना पड़ेगा। इसका स्पष्ट आशय है कि निकटस्थ अवयवों में बाँटने के लिये भाषा
के प्रयोगों और मुहावरों का पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए । ‘मेरा सर चक्कर खा रहा है’ का अनुवाद ‘माई हेड इज
ईटिंग सर्कल’ नहीं किया जा सकता, क्योंकि यहाँ चक्कर स्वतंत्र न होकर ‘खा रहा’ के साथ मिलकर निकटस्थ
अवयव बताता है, या ‘चक्कर खा रहा है’ निकटस्थ अवयव का अंश है।
भाषा सर्वत्र अपने अर्थ स्पष्ट नहीं कर पाती। ऐसे स्थलों पर निकटस्थ अवयवों को ठीक-ठीक अलग कर
पाना असम्भव हो जाता है। मान लें, एक वाक्य है-‘सुंदर पुस्तकें’ और कापियाँ रक्सी हैं’। यहाँ यह कहना कठिन
है कि ‘सुंदर’ विशेषण केवल पुस्तकों का है या ‘पुस्तकें और कापियाँ, दोनों के लिये । यदि केवल ‘पुस्तकें’ के लिये
है तो ‘निकटस्थ अवयव’ का विभाजन होगा-‘सुंदर पुस्तकें, ‘और कापियाँ’, किंतु यदि दोनों के लिये हैं तो होगा-
‘सुंदर’ ‘पुस्तकें और कापियाँ’ ।
वाक्य-सुर भी निकटस्थ अवयव है, क्योंकि इसके बिना कभी-कभी ठीक अर्थ की प्रतीति नहीं होती । ‘आप
जा रहे हैं’ वाक्य को ‘वाक्य-सुर’ के आधार पर प्रश्न सूचक, आश्चर्य सूचक, या सामान्य आदि कई रूप दिये जा
सकते हैं। यहाँ तीनों में ही भिन्न-भिन्न प्रकार के वाक्य-सुर वाक्य के निकटस्थ अवयव हैं
वाक्य के ये मूल तत्व हैं जिनके स्वरूप तथा प्रयोग का अभिज्ञान वाक्य-गठन की अनिवार्य शर्त होती है।
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