वाक्य के प्रकार

वाक्य के प्रकार

                     वाक्य के प्रकार

पहले वर्ग की भाषाओं में ‘योग’ नहीं रहता अर्थात् शब्दों में उपसर्ग या प्रत्यय आदि जोड़कर अन्य शब्द या
वाक्य में प्रयुक्त होने योग्य रूप नहीं बनाये जाते । उनमें किसी भी शब्द में कोई परिवर्तन नहीं होता । वाक्य के स्थान
के अनुसार शब्दों का अर्थ लगा लिया जाता है। ऐसी भाषाओं को स्थान-प्रधान भी कहते हैं।
 
अयोगात्मक भाषाओं में अर्थतत्त्व या संबंध-तत्त्व का योग नहीं होता । या तो संबंध तत्व की आवश्यकता ही
नहीं होती, केवल स्थान-क्रम से ही संबंध का पता चल जाता है या संबंध-तत्त्व रहता भी है तो वह अर्थ-तत्त्व से
मिलता नहीं। योगात्मक भाषाओं में इसके प्रतिकूल संबंध-तत्त्व और अर्थ-तत्त्व दोनों में योग हो सकता है, अर्थात्
मिले-जुलते होते हैं।
 
इस प्रकार संसार की सभी भाषाओं पर विचार करने से हमें चार प्रकार के वाक्य दिखाई पड़ते है। परंतु ऐसा
नहीं कि किसी एक भाषा में ही इन चारों प्रकार के वाक्य हों। इन चारों प्रकार के पृथक्-पृथक् स्वरूप होते हैं-
 
1. अयोगात्मक वाक्य-अयोगात्मक वाक्य में शब्द अलग-अलग रहते हैं और उनका स्थान निश्चित रहता है।
इसका कारण यह है कि यहाँ संबंध-तत्त्व दिखाने के लिये शब्दों में कोई परिवर्तन नहीं किया जाता, अत: संबंध का
प्राकट्य शब्दों के स्थान से ही होता है । यह पदक्रम की निश्चितता एकाक्षर परिवार की चीनी आदि भाषाओं में प्रधान
रूप से मिलती है। भारोपीय कुल की आधुनिक भाषाओं में भी कुछ ऐसी प्रवृत्ति दिखाई दे रही है। संस्कृत, ग्रीक
आदि प्राचीन भारोपीय भाषाएँ श्लिष्ट योगात्मक थीं, किंतु उनसे विकसित अंग्रेजी, हिन्दी आदि आधुनिक भाषाएँ
वियोगात्मक हो गई हैं। पदक्रम यहाँ भी कुछ-कुछ निश्चित हो गया है-
 
(i) राम किल्ड मोहन ।
 
(ii) मोहन किल्ड राम।
 
इन दोनों वाक्यों में शब्द एक ही हैं, किंतु स्थान परिवर्तन से अर्थ अलग हो गया है। हिन्दी में भी लगभग
यही बात है। किंतु भारोपीय परिवार की भाषाएँ अभी चीनी जैसी अयोगात्मक नहीं हैं, अतः पदक्रम उतने निश्चित
नहीं हैं। हिन्दी में कर्त्ता पहले और क्रिया बाद में आती है, परंतु इसके अपवाद भी मिलते हैं। इसी प्रकार अंग्रेजी
में प्रश्नवाचक वाक्य में यह साधारण नियम टूट जाता है। इससे निष्कर्ष यह निकलता है कि भाषा अयोगात्मक की
ओर जितनी ही जाती है उसके वाक्यों में पदक्रम का महत्त्व उतना ही बढ़ता जाता है । अयोगात्मक वाक्य का उदाहरण
द्रष्टव्य है-‘राधा सीता कहती है’ तथा ‘सीता राधा कहती है’-इन दोनों वाक्यों में शब्द, स्थान, और प्रयोग के अनुसार
संज्ञा, विशेषण, क्रिया और क्रिया-विशेषण आदि हो सकता है। उसमें शब्दों में किसी प्रकार का विकार या परिवर्तन
नहीं होता। ‘बड़ा आदमी’ और ‘आदमी बड़ा (है) या मैं मारता हूँ तुमको ।’ और ‘तुम मारते हो मुझको’ यहाँ तक
कि विभिन्न काल की क्रियाओं के रूप बनाने में भी शब्दों में परिवर्तन नहीं होता। जैसे हिन्दी में ‘चलना’ का
भूत काल ‘चला’ बनेगा, जो देखने में ‘चलना’ से भिन्न है। यहाँ यह स्पष्ट है कि यहाँ प्रत्येक शब्द की
अलग-अलग संबंध-तत्त्व और अर्थतत्त्व व्यक्त करने की शक्ति है और वाक्य में स्थान के अनुसार ही उनके ये तत्त्व
जाने जाते हैं। इनमें शब्द-क्रम का महत्त्व तो है किंतु इनके साथ ताने । (सुर, स्वर या लहजा) का भी महत्त्व है।
 
2. योगात्मक वाक्य-योगात्मक वाक्य में संबंध-तत्त्व और अर्थ-तत्त्व दोनों में योग हो जाता है। ये मिले-जुले
रहते हैं। ‘मेरे घर आना’ वाक्य में मेरे में अर्थतत्व (मैं) तथा संबंध तत्त्व (संबंध वाचकता प्रकट करने वाला प्रत्यय
जिसके कारण ‘मेरे’ शब्द बना है और जिसके कारण इसका अर्थ ‘बँका’ हुआ है) दोनों मिले-जुले हैं। योगात्मक
वाक्य की प्रकृति के आधार पर ही इसे तीन वर्गों में बाँटा गया है :
 
(क) प्रश्लिष्ट योगात्मक इस प्रकार के वाक्य में संबंध-तत्त्व और अर्थ-तत्त्व का योग इतना मिला-जुला होता
है कि उन्हें अलग-अलग न तो पहचाना जा सकता है, और न एक-दूसरे से अलग ही किया जा सकता है। इसमें
सभी शब्द मिलकर एक बड़ा शब्द बन जाते हैं। परंतु इसी कारण इनका विश्लेषण आसानी से नहीं किया जा सकता।
यही कारण है कि ऐसे वाक्य को प्रश्लिष्ट योगात्मक वाक्य कहा जाता है। उदाहरणार्थ ‘ऋतु’ से ‘आर्तव’ या ‘शिशु’
से ‘शैशव’ । प्रश्लिष्ट योगात्मक वाक्य के भी दो भेद किये गये हैं-
 
(i) पूर्ण प्रश्लिष्ट योगात्मक वाक्य-इसमें पूरा वाक्य लगभग एक ही शब्द बन जाता है । ऐसे वाक्यों में
पूरे शब्द नहीं आते, बल्कि उनका कुछ अंश छूट जाता है और इस प्रकार आधे-आधे शब्दों के संयोग से बना हुआ
लम्बा-सा शब्द ही वाक्य ही जाता है। दक्षिण अमरीका की चेरोकी तथा ग्रीनलैंड की भाषाओं में ऐसे वाक्य बहुतायत
से पाये जाते हैं।
 
(ii) आंशिक प्रश्लिष्ट-योगात्मक वाक्य-ऐसे वाक्यों में सर्वनाम तथा क्रियाओं का ऐसा सम्मिश्रण हो जाता
है कि क्रिया अस्तित्वहीन होकर सर्वनाम की पूरक हो जाती है। गुजराती तथा मेरठ की बोली में इसके कुछ उदाहरण
मिल जाते हैं। अंग्रेजी, बंगला, फ्रेंच तथा भोजपुरी में भी बोलियों के मौखिक रूप में कुछ उदाहरण मिल जाते हैं।
कहा जाता है कि संसार की किसी भी भाषा में विशुद्ध रूप से आंशिक प्रश्लिष्ट-योगात्मक वाक्य नहीं हैं।
 
(ख) अश्लिष्ट योगात्मक वाक्य-ऐसे वाक्यों में संबंध तत्व और अर्थतत्व ‘तिल-तंडुल’ की तरह मिले
रहकर भी स्पष्ट दीखते हैं। हिन्दी वास्तव में ऐसी भाषा है नहीं, फिर भी उदाहरणार्थ सुंदरता में (सुंदर + ता) मैंने
में (मैं +ने) करेगा में (कर + ए + गा) इनमें प्रत्ययों की प्रधानता रहती है। प्रत्ययों के कारण ही संबंध प्रकट होता
है। इसी से ऐसे वाक्यों को पारदर्शक गठनवाले वाक्य कहा जाता है।
 
(ग) श्लिष्ट योगात्मक-इन वाक्यों में विभक्तियों की प्रधानता रहती है। विभक्तियाँ अश्लिष्ट योगात्मक
वाक्यों की भाँति प्रत्यय रूप में लगती हैं, पर दोनों में भेद यह है कि अश्लिष्ट में प्रत्यय स्पष्ट रहते हैं और उनका
अस्तित्व खो नहीं जाता है, पर दूसरी ओर श्लिष्ट में इनका स्पष्ट पता नहीं चलता ।
 
संस्कृत में प्रथमा एक वचन में ‘सु’ प्रत्यय जोड़कर बनाया जाता है; पर जोड़ने के बाद जो पद बनता है, उसमें
‘सु’ का बिल्कुल पता नहीं चलता-
 
राम + सु = रामः
 
कहीं-कहीं तो जोड़ने में प्रत्यय पूर्णतया लुप्त हो जाता है।
 
विद्या + सु = विद्या।
 
इन चारों में कुछ उपभेद भी होते हैं ; जैसे अश्लिष्ट योगात्मक वाक्य को भी कई कोटियों में बाँटा गया है :
 
(i) पूर्वयोगात्मक या पुरः प्रत्यय प्रधान अश्लिष्ट योगात्मक-इनमें प्रत्यय के स्थान पर उपसर्ग प्रधान होता
है। वाक्य के अंतर्गत शब्द बिलकुल अलग-अलग होते हैं। शब्दों की रूप-रचना में संबंध तत्व केवल आरंभ में
लगता है। अफ्रीका की ‘बांट्र भाषा’ में इसके उदाहरण प्राप्य हैं।
 
(ii) मध्ययोगात्मक या अंतः प्रत्यय-प्रधान-इनमें प्रायः शब्द दो अक्षरों के होते हैं। संबंध-तत्त्व दोनों अक्षरों
के बीच में रखे या जोड़े जाते हैं। मुंडा कुल की संथाली भाषा में इसके उदाहरण प्राप्य हैं।
 
(iii) पूर्वान्त योगात्मक-इसमें संबंध-तत्त्व अर्थ-तत्त्व के आगे और पीछे या पूर्व और अंत में लगाया जाता
है। इसलिये इन्हें पूर्वान्त योगात्मक कहते हैं।
 
(iv) अंत-योगात्मक या पर प्रत्यय प्रधान वाक्य-ऐसे वाक्य में संबंध-तत्त्व केवल अंत में जोड़ा जाता है।
हंगरी, कन्नड़ और तुर्की भाषाओं में ऐसे वाक्य मिलते हैं।
 
(v) आंशिक योगात्मक या ईषत प्रत्यय-प्रधान वाक्य-ऐसे वाक्य यथार्थतः योगात्मक एवं अयोगात्मक
वर्ग के बीच में पड़ते हैं क्योंकि ऐसे वाक्य में योग और अयोग-दोनों ही के चिन्ह मिलते हैं। इतना ही नहीं, इनमें
अश्लिष्ट योगात्मक वाक्यों से भी कुछ समानता रहती है। तभी इन्हें आंशिक योगात्मक नाम दिया जाता है। जापानी
एवं न्यूजीलैंड तथा हवाई द्वीप की भाषाओं में इसके उदाहरण मिलते हैं।
 
इस प्रकार श्लिष्ट योगात्मक वाक्यों के भी दो उपवर्ग किये गये हैं: (क) अंतर्मुखी और (ख) बहिर्मुखी।
 
(क) अंतर्मुखी श्लिष्ट वाक्य-ऐसे वाक्यों में जोड़े हुए भाग मूल (अर्थ-तत्त्व) के बीच में बिलकुल
घुलमिल जाते हैं। जैसे अरबी भाषा में ‘क – त – ब धातु का अर्थ लिखना होता है, जिससे निम्न शब्द बने हैं:
 
कातिब = लिखने वाला।
 
किताब = जो लिखा (या लिखी), गया (या गयी) है।
 
कुतुब = बहुत-सी किताबें।
 
यहाँ क-त-ब व्यंजन तीनों में हैं, पर बीच-बीच में विभिन्न स्वरों में आने से अर्थ बदलता गया है।
 
इस अंतर्मुखी के भी दो रूप हैं:
 
(i) संयोगात्मक-अरबी आदि भाषाओं में वाक्य में अलग से शब्दों में सहायक संबंध तत्व लगाने की
आवश्यकता नहीं।
 
(ii) वियोगात्मक-यहाँ सहायक संबंध-तत्त्व लगाने की आवश्यकता पड़ती है। हिब्रू भाषा में
इसके उदाहरण मिलते हैं।
 
(ख) बहिर्मुखी श्लिष्ट वाक्य-इसमें जोड़ा हुआ भाग अर्थ-तत्त्व के बाद आता है। जैसे संस्कृत में गम्’
धातु से गच्छ + अ +न्ति = गच्छन्ति (= जाते हैं)।
 
इसके भी दो भेद हैं:-
 
(क) संयोगात्मक-इसमें पहले सहायक किया तथा परसर्ग आदि की जरूरत नहीं थी। जैसे संस्कृत में सः
पठति = वह पड़ता है।
 
(ख) वियोगात्मक-भारोपीय परिवार की अधिकांश भाषाओं में वाक्यों में वियोगात्मकता आ गयी है। उनकी
विभक्तियाँ घिस कर लुप्तपाय हो गयी हैं; अत: अलग से शब्द लगाने की आवश्यकता पड़ने लगी है। अंग्रेजी, हिन्दी
तथा बंगला आदि में वियोगात्मक वाक्यों की भरमार है।
 
व्याकरणिक गठन की दृष्टि से वाक्य के तीन प्रकार हैं :
 
1. साधारण वाक्य-ऐसा वाक्य जिसमें एक उद्देश्य और एक विधेय मात्र होता है, जैसे-‘राम जाता है।’
 
2. संयुक्त वाक्य-जिस वाक्य में दो या अधिक प्रधान उपवाक्य हों, वे संयुक्त वाक्य कहलाते हैं। जैसे “मैं
तुम्हारे घर गया, पर तुम वहाँ नहीं थे।”
 
3. मिश्रित वाक्य-जिसमें एक प्रधान उपवाक्य तथा अन्य आश्रित उपवाक्य (क) संज्ञा उपवाक्य, (ख)
विशेषण उपवाक्य, तथा (ग) किया विशेषण उपवाक्य हों, जैसे-
 
(क) उसने कहा कि मैं जाऊँगा।
 
(ख) वह लड़का, जिसे मैंने देखा था, मर गया।
 
(ग) वह फेल हो गया, क्योंकि उसने पढ़ा नहीं था।
 
भाव या अर्थ की दृष्टि से वाक्य के अनेक भेद हो सकते हैं। जिनमें प्रधान निम्नांकित हैं-
 
1. विधान सूचक       – राम जाता है
 
2. निषेध सूचक        – राम नहीं जाता।
 
3. आशा सूचक         – यह काम करो।
 
4. प्रश्न सूचक           – तुम्हारा क्या नाम है ?
 
5. विस्मय सूचक        – अरे, यह क्या किया?
 
6. संदेह सूचक           – वह आया होगा।
 
7. इच्छा सूचक          – ईश्वर तुम्हें दीर्घायु बनावे ।
 
भाषा में क्रिया का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में वाक्य में अवश्य वर्तमान रहती
है। वैसे संस्कृत, लैटिनय आदि पुरानी भाषाओं में तथा बँगला, रूसी आदि आधुनिक भाषाओं में बिना क्रिया के भी
वाक्य मिलते हैं किंतु सामान्यतः वाक्य क्रियायुक्त होता ही है। क्रिया के होने-न-होने के आधार पर भी वाक्य के
दो प्रकार हो सकते हैं:
 
1. क्रियायुक्त वाक्य      – जिसमें क्रिया हो।
 
2. क्रियाविहीन वाक्य    – जिसमें क्रिया न हो । समाचार पत्रों के शीर्षकों में क्रियाविहीन वाक्य प्रायः दिखाई
पड़ते हैं जैसे–’कुतुबमीनार से कूदकर आत्महत्या’, ‘देश की आजादी फिर खटाई में’ लोकोक्तियाँ में ‘जैसे नागनाथ
वैसे साँपनाथ’, ‘हाथी के दाँत खाने के और दिखाने के और’ या ‘आँख का अंधा नाम नयनसुख’।
 
      रचना की दृष्टि से भी वाक्य के दो रूप होते हैं:-
 
1. पूर्ण वाक्यात्मक         2. अपूर्ण वाक्यात्मक
 
जो पूर्ण वाक्य के रूप में हो उसे पूर्ण वाक्यात्मक रचना कहते हैं। ऐसे वाक्य में वाक्य के सारे आवश्यक
उपकरण होते हैं। दूसरी ओर अपूर्ण वाक्यात्मक में एक या अधिक वाक्य उपकरणों या पदों का लोप रहता है। प्रश्नों
के उत्तर में दी गई एक या दो शब्दों की रचनाएँ इसी श्रेणी की होती है। उदाहरण लें-
 
(क) राम-मोहन, क्या तुम आज घर जाओगे?
 
(ख) मोहन-हाँ,। (या हाँ, ‘जाऊँगा)
 
यहाँ पहली रचना पूर्ण वाक्यात्मक है और दूसरी अपूर्ण वाक्यात्मक ।
 
3. अंतः केद्रिक रचना-ऐसी रचना जिसका केंद्र उसी में हो । ‘लड़का’ और ‘अच्छा लड़का’ में वाक्य के
स्तर पर कोई अंतर नहीं है। लड़का जाता है भी कह सकते हैं’ और ‘अच्छा लड़का आता है’ भी। यहाँ प्रमुख
शब्द लड़का है । वाक्य के स्तर पर व्याकरणिक रचना की दृष्टि से अच्छा लड़का वही है जो लड़का है । यहाँ अच्छा
लड़का’ अंतः केंद्रित रचना है।
 
अंत: केंद्रित रचना भी दो प्रकार की होती हैं:
 
संवर्गी, जैसे ‘राम और मोहन’ तथा ‘आश्रितवर्गी’, जैसे अच्छा ‘लड़का’ । आश्रितवर्गी में एक या कुछ शब्द
मुख्य होते हैं शेष आश्रित । ‘अच्छा लड़का’, ‘बहुत तेज’ ‘खूब चलता है’ में अच्छा, बहुत, खूब, आश्रित है। ‘बहुत
तेज लड़का’ जैसी रचना में ‘लड़का’ मुख्य है, ‘तेज’ आश्रित और ‘बहुत’, ‘तेज’ का आश्रित ।
 
इस प्रकार वाक्य के प्रकारों का एक अच्छा-खासा जमावड़ा है। संप्रेषण की खातिर इन प्रकारों की
उपयोगिता-महत्त्वपूर्ण है।

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