वाक्य-पठन में परिवर्तन
वाक्य-पठन में परिवर्तन
वाक्य-पठन में परिवर्तन
भाषा की वाक्य-संरचना समयानुसार परिवर्तित होती रहती है। जैसे संस्कृत में वाक्य-रचना के नियम एक थे
तो उसी से विकसित हिन्दी में काफी बदल गये हैं। वास्तव में वाक्य-संरचना में परिवर्तन की अनेक दिशाएँ लक्षित
की जा सकती हैं:
1. पदक्रम में परिवर्तन-वाक्य-रचना में यह परिवर्तन महत्त्वपूर्ण है। हिन्दी में पहले ‘पुस्तक मात्र’, मनुष्य
मात्र’, चलते थे अब ये ‘मात्र पुस्तक’, ‘मात्र मनुष्य’ के रूप में चल रहे हैं । हिन्दी में विशेषण प्रायः संज्ञा के पहले
आते है जैसे ‘अच्छा लड़का’ । अब नवीनता के लिये उलटा प्रयोग होने लगा है-दुल्हन एक रात की’,
2. अन्वय में परिवर्तन-यह भी एक मुख्य दिशा है। संस्कृत में क्रिया कर्ता के अनुरूप वचन तथा पुरूष
की दृष्टि से होती थी, किंतु हिंदी में कुछ अपवादों को छोड़कर लिंग की दृष्टि से भी होती है। संस्कृत में विशेषण
भी संज्ञा के अनुसार होता है। किंतु हिंदी में सुंदर लड़का, ‘सुंदर लड़की’ । अर्थात् सभी विशेषण ऐसे नहीं होते।
3. पद या प्रत्यय आदि का लोप-कभी-कभी कुछ पद लुप्त हो जाते हैं। इनके पीछे मानसिक तथा
शारीरिक प्रयत्न-लाघव काम करता है। उदाहरणार्थ ‘आँखों से देखी घटना’ के स्थान पर ‘आँखों देखी घटना’,
‘कानों से सुनी बातें से ‘कानो सुनी बाते’, ‘मैं नहीं जाता हूँ’ से ‘मैं नहीं जाता’ ।
4. अधिक पदों का प्रयोग-जैसे ‘दरअसल’ से दरअसल में’, ‘दर हकीकत’ से ‘दर हकीकत में’ ‘मुझको’
के स्थान पर ‘मेरे’ को, ‘मुझसे’ के स्थान पर ‘मेरे से, आदि ।
5. अन्य-अन्य और तरह के भी परिवर्तन होते हैं । जैसे-पुरानी हिन्दी का ‘राम ने कहा, मैं आ रहा हूँ’ के
स्थान पर अंग्रेजी प्रभाव से ‘राम ने कहा कि वह आ रहा है।’
वाक्य-गठन में परिवर्तन के कारण:-
मुख्य कारण-1. अन्य भाषा का प्रभाव-अन्य भाषा के प्रभाव के कारण वाक्य-गठन में भी परिवर्तन होता
है। हिन्दी में ‘कि’ लगाकर वाक्य बनाने की परंपरा फारसी की देन है। ‘राम ने कहा कि मैं जाऊँगा’ और राम ने
कहा कि वह जाएगा’ में दूसरे प्रकार की संरचना अंग्रेजी के प्रभाव के कारण है। अत्यंत छोटे-छोटे वाक्य लिखना
हिन्दी में अंग्रेजी की देन है। वाक्यों में क्रिया के बाद कर्म रखने की प्रवृत्ति भी हिन्दी में अंग्रेजी के प्रभाव के कारण है।
2. ध्वनि-विकास के कारण विभक्तियों का घिस जाना-भाषा के विकास के कारण जब संबंध-तत्त्व
को स्पष्ट करने वाली विभक्तियाँ घिस जाती हैं तो अर्थ की स्पष्टता के लिये सहायक शब्द (क्रिया, परसर्ग आदि)
जोड़ने पड़ते हैं। इसके कारण भाषा संयोगात्मकता से वियोगात्मकता की ओर बढ़ने लगती है और उसकी वाक्य-रचना
बहुत बदल जाती है। इसका सर्वाधिक प्रभाव शब्दक्रम पर पड़ता है।
3. स्पष्टता या बल के लिये सहायक शब्दों का प्रयोग-प्राकृत और अपभ्रंश में इसी कारण विभक्तियाँ
के न घिसने पर भी सहायक शब्दों का प्रयोग किया जाने लगा। फलतः विभक्तियाँ धीरे-धीरे समाप्त हो गयीं और
वे शब्द परसर्ग के रूप में प्रयुक्त होने लगे। ‘कृपया आइयेगा’ में ‘कृपया’ या दरअसल में ‘मैं’ आदि ऐसे ही है।
4. बोलने वालों की मानसिक स्थिति में परिवर्तन-इसके परिवर्तन से अभिव्यंजना-शैली तथा अलंकरण-शैली
प्रभावित होती है। ऐसे में वाक्य-गठन भी अछूती कैसे रहे ? युद्धकालीन व्याख्यानों में वाक्य घूम-फिर न होकर
अपेक्षाकृत सीधे होते हैं।
5. नवीनता-नवीनता के लिये लोग विशेषतः कलाकार परिवर्तन कर लेते हैं। आज के हिन्दी-लेखक ऐसे
अनेक नये प्रयोगों की ओर झक रहे हैं। जैसे, ‘पुस्तक मात्र’ से ‘मात्र पुस्तक’ या ‘एक रात का दुल्हन के स्थान
पर ‘दुल्हन एक रात की’ आदि ।
वस्तुतः वाक्य की संरचना में परिवर्तन भाषा के विकास के साथ होता रहता है । उपर्युक्त दिशाओं में होने वाले
परिवर्तनों के कारण कोई भी भाषा अपनी संप्रेषण-क्षमता बढ़ाती ही है।
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