वाक्य में पदक्रम

वाक्य में पदक्रम

                   वाक्य में पदक्रम

वाक्य में किस प्रकार के पदों का क्या स्थान होता है, इसका भी अध्ययन वाक्य-विज्ञान में करते हैं। पदक्रम
की दृष्टि से भाषाएँ दो प्रकार की होती हैं: एक तो वे जिनमें वाक्यों में शब्दों (पदों) का स्थान निश्चित नहीं है।
इन भाषाओं में शब्दों में विभक्ति लगी होती है । फलतः किसी भी शब्द को उठाकर कहीं भी रख दें, अर्थ में परिवर्तन नहीं होता।
 
दूसरी वे भाषाएँ होती हैं जिनमें वाक्य में शब्द (पद) का क्रम निश्चित रहता है। हिन्दी, अंग्रेजी, आदि
आधुनिक भाषाओं में यह प्रवृत्ति देखी जा सकती है। चीनी भाषा में इसके उदाहरण बहुत हैं।
 
अंग्रेजी में सामान्यतः कर्ता, क्रिया और तब कर्म आता है, पर प्रश्नवाचक वाक्य में क्रिया का कुछ अंश पहले
ही आ जाता है। हिन्दी में कर्ता, कर्म और तब क्रिया रखते हैं । सामान्यतः विशेषण संज्ञा के पूर्व तथा क्रियाविशेषण
क्रिया के पूर्व रखते हैं । यद्यपि इसकी कुछ बोलियों में कर्म पहले भी आ जाता है। विशेषण और क्रियाविशेषण हिन्दी
की भाँति प्रायः संज्ञा और क्रिया के पूर्व आते हैं। प्रश्नवाचक शब्द (जैसे, क्या) अंग्रेजी एवं हिन्दी में वाक्य के आरंभ
में आते हैं, पर चीनी में वाक्य के अंत में। जैसे ‘खाना खा लिया क्या ?’
 
किसी भी भाषा के शब्दों के स्थान की निश्चितता के ये नियम निरपवाद नहीं होते । यहाँ तक कि इस प्रकार
की प्रधान भाषा चीनी में भी नहीं।
 
बल देने के लिये पदक्रम-प्रधान भाषाओं में भी पदक्रम में प्रायः परिवर्तन ला देते हैं। उदाहरणार्थ हिन्दी में
सामान्यत: कहेंगे-“मैं घर जा रहा हूँ” किंतु बल देने के लिये ‘घर जा रहा हूँ मैं’ या जा रहा हूँ घर मैं’ आदि भी कहते हैं ।
 
वाक्य और स्वराघात-वाक्य से संगीतात्मक और बलात्मक स्वराघात का भी गहरा संबंध है। अन्य दृष्टियों
से शब्दक्रम आदि के एक रहने पर भी इन दोनों के कारण वाक्य के अर्थ में परिवर्तन हो जाता है। आश्चर्य, शंका,
प्रश्न, निराशा आदि का भाव प्रायः संगीतात्मक स्वराघात या वाक्य-सुर से व्यक्त किया जाता है। आप जा रहे हैं
वाक्य को समसुर में कहें तो यह सामान्य अर्थ का बोधक है, किंतु विभिन्न रूप में सुर देकर इसे आश्चर्य शंका, प्रश्न
आदि का सूचक बनाया जा सकता है। यही बात बलात्मक स्वराघात के संबंध में भी है। वाक्य के पद-विशेष पर
बल देकर उसका स्थान वाक्य में प्रधान किया जा सकता है। उदाहरणार्थ ‘मैं आज उसे लाठी से मारूँगा’ के पद
विशेष पर बल देने का एक ढंग तो है, उसे आरंभ में रख देना जिसका उल्लेख ऊपर पदक्रम के सिलसिले में किया
जा चुका है। दूसरा ढंग यह भी है कि क्रम ज्यों-का-त्यों रहे, केवल बल देकर पद को प्रधान बना दिया जाय। इस
प्रकार ‘मैं’ पर बल देने का अर्थ होगा कि ‘मैं ही मारूँगा, कोई अन्य नहीं’, ‘आज’ पर बल देने का अर्थ होगा कि
से ही मारूंगा किसी और को नहीं। इस प्रकार अन्य पदों पर बल देने पर भी अर्थ में अंतर आ जायेगा ।
 
    वाक्य में पद आदि का लोप:
 
वाक्य में जब आवश्यक सभी पद तथा सहायक शब्द (परसर्ग, संयोजक और सहायक क्रिया आदि) हों तो
वह पूर्ण व्याकरणिक वाक्य होता है, किंतु प्रायः ऐसा भी देखा गया है कि इनमें एक या अधिक की कमी हो जाती
है। मैं आज नहीं जा रहा हूँ’ को ‘मैं आज नहीं जा रहा’ कहना ऐसा ही है । पदलोपी वाक्य का उदाहरण देखें-
 
राम-क्या तुम जाओगे?
 
मोहन-नहीं, या हाँ।
 
यहाँ मोहन ‘नहीं’ या ‘हाँ’ वाक्य तो हैं किंतु व्याकरण की दृष्टि से वह पदलोपी हैं। इसका रूप या भाव
है ‘नहीं’ या ‘हाँ मैं जाऊँगा’। हिन्दी में इस प्रकार के वाक्यों में कर्म के परसर्ग का लोप मिलता है। काव्य-भाषा
में पदलोपी वाक्य अनेक प्रकार से मिलते हैं। ‘पद्मावत’ ‘मानस’ ‘बिहारी सतसई’ तथा आधुनिक कवियों में इसके
उदाहरण भरे पड़े हैं। एक गीत कम उदाहरण लें-‘कोयलिया बोले अमवा (की) डार पर ।’ पद पदलोपी वाक्यों की
प्रवृत्ति बहुत अधिक मिलती है। बातचीत में तो प्रायः हर प्रकार के पदों के लोपवाले वाक्य मिल जाते हैं । बचता केवल
वह है जिसका प्रश्न से सीधा संबंध हो और इस प्रकार जो सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हो । ‘हाँ’, ‘मोहन’, ‘घर’, ‘जाना’
है आदि बोलचाल के वाक्य ऐसे उदाहरण हैं।
 
     वाक्य की आवश्यकताएँ :
 
भारतीय दृष्टि से वाक्य के लिये पाँच बातें आवश्यक हैं : सार्थकता, योग्यता, आकांक्षा, सन्निधि और अन्विति ।
सार्थकता अर्थात वाक्य के शब्द सार्थक हों, योग्यता, अर्थात् शब्दों की आपस में संगति हो; शब्दों में प्रसंगानुकूल भाव
का बोध कराने की योग्यता या क्षमता हो; आकांक्षा अर्थात् इच्छा अर्थात् जानने की इच्छा अर्थात् ‘अर्थ’ की अपूर्णता ।
वाक्य में इतनी शक्ति होनी चाहिये कि वह पूरा अर्थ दे। उससे सुनकर भाव पूरा करने के लिये कुछ जानने की
आकांक्षा न रहे । सन्निधि या आसक्ति का अर्थ है समीपता । वाक्य में शब्द समीप होने चाहिएं। और अन्विति का
अर्थ है व्याकरणिक दृष्टि से एकरूपता । यह एकरूपता या समानरूपता प्रायः वचन, कारक, लिंग और पुरुष आदि
की दृष्टि से होती है। हिन्दी में प्रायः लिंग, वचन, पुरुष में कर्ता के अनुकूल होती है। ‘सीता गये’ न तो ठीक वाक्य
है और न ‘राम जा रही है’, क्योंकि यहाँ न तो ‘सीता’ और गये में अन्विति है और न ‘राम’ और जा रही है में।
हिन्दी में तो आकारांत विशेषणों में ऐसा ही होता है। जैसे अच्छा लड़का ‘अच्छी लड़की’ । यों अन्य में नहीं होता
जैसे ‘चतुर लड़का’, ‘चतुर लड़की ।
 
रूपांतरण-वाक्य-रचना या वाक्य-विश्लेषण के क्षेत्र में तरह-तरह के प्रयोग होते रहे हैं। रूपांतरण का अर्थ
है परिवर्तन करना अर्थात् किसी भाषा में मूल वाक्य को विभिन्न प्रकार के व्याकरण सम्मत वाक्यों में बदलना ही मूलतः
रूपांतरण है।
 
उदाहरणार्थ- ‘राम इज गोइंग (अंग्रेजी)
 
  इज राम गोइंग (प्रश्न)
 
                  राम इज नोट गोइंग (नकारात्मक)
 
इस प्रकार के परिवर्तनों के लिये अपेक्षित नियमों से युक्त व्याकरण रूपांतरणात्मक व्याकरण या उत्पादक
व्याकरण कहलाते हैं।

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