विरोध-परिहार आवश्यक

विरोध-परिहार आवश्यक

                      विरोध-परिहार आवश्यक

विरोध-परिहार का उपाय-
                       जो पसंद है उसमें मर्यादा साधो
                       जो नापसंद है उसमें गुण खोजो
      विरोध का भाव उठते ही अपने आप को साधो जब भी भीतर से नहीं, ना, ऐसा
क्यों ? आखिर किसलिए? मैं ही क्यूँ ? ऐसे शब्द निकलने लगे तो तुरन्त चेत जाओ.
चेतकर अपने शब्दों को वहीं रूपान्तरित कर दो. स्वयं के भीतर हर प्रवृत्ति व नैमित्तिक
वातावरण के प्रति ‘स्वीकार भाव’ विकसित करो. विरोध करना अप्राकृतिक है,
अधार्मिकपना है. धार्मिक भाव स्वीकृति है, विनम्रता है.
                     विरोध सूचक है-लगाव और अहंकार का
        जब भी आपके भीतर विरोध के स्वर उठने लगे आप तुरन्त आत्म-निरीक्षण कीजिए.
आपको पता लगेगा कि ये अहंकार के कारण हैं. कहीं-न-कहीं आप अपनी बात पर अपने
हालात पर अथवा अपने जज्बात पर अड़े हुए हों तब ही विरोध की वृत्तियाँ जाग रही
हैं. अन्यथा प्रकृति की हर घटना न्यायपूर्ण ही प्रतीत होती. उसमें व्याप्त औचित्य की
खोज रहती है. औचित्य को खोजने वाला भाव एक दिन आपको समेकित दृष्टि बना
देगा आपको हर पक्ष-विपक्ष के मध्य निष्पक्ष बनना सिखा देगा. यदि आप यह विश्वास
कर सकें कि ‘जो हुआ सो न्याय’, ‘जो हो रहा सो न्याय’ व ‘जो होगा सो न्याय तो
आप चिंता व अहंकार मुक्त हो जाएंगे.
          विरोध का भाव एक तरफ यह संकेत देता है कि आप अहंकारी हो व अपने
नज़रिए के लिए जिद्दी हो वहीं दूसरी ओर यह भी प्रकट करता है कि आप किसी-न-
किसी के प्रति अति लगावपरक हो. कहीं-न-कहीं आसक्त हो. मोहपाश से बँधे हो.
सम्भव है आपका मोह किसी व्यक्ति से हो और कोई उसके विपक्ष में कुछ कह रहा है
तो आप तुरन्त प्रतिक्रिया कर देते हो कि-नहीं ऐसा नहीं हो सकता और दुनिया
धोखेबाज हो सकती है पर मेरा मित्र कदापि नहीं. आपका लगाव आपको सत्य दर्शन से
वंचित करता रहेगा.
    सम्भव है कि आप व्यक्तियों के प्रति इतने लगावपरक ना हों, किन्तु वातावरण के
प्रति हों और तब आप जरा-सी प्रतिकूलता पाते ही झल्ला उठेंगे. आप जरा-सी सर्दी-
गर्मी की मात्रा बढ़ते ही व्यग्र व परेशान होकर चिल्लाना शुरू कर सकते हैं. उस
समय जानिए कि यह भी आपका विरोध भाव ही है. शीत उष्म में सम रहने का
अभ्यास हर एक पथ पर प्रगति के लिए आवश्यक है ही, चाहे आप साधक हो या
सैनिक, अधिकारी हो या कर्मचारी, शिक्षक हो अथवा विद्यार्थी.
        व्यक्ति व वस्तु की ही तरह कई लोग रूढ़ियों के प्रति लगावपरक होने के कारण
नवीन परिवर्तन के विरोध में झण्डे गाड़ते रहते हैं तो कई इसके विपरीत मानसिकता
वाले भी होते हैं, वे नवीनता के पक्षधर होने के कारण सदा पुरातन का विरोध करते
रहते हैं. उन्हें पुरानी मानसिकता वाले लोगों से सदा चिढ़ ही रहती है. इस प्रकार दोनों
सदा उलझे ही रहते हैं. किसी ने कहा है-
                    पुरानी रोशनी और नई में फर्क इतना है।
                     उसे किश्ती नहीं मिलती,
                     इसे साहिल नहीं मिलता।
    सच है, पुरानों के पास नई विधियाँ नहीं, नई तकनीक नहीं, नए अंदाज नहीं
अर्थात् पार जाने के लिए बातें तो हैं, किन्तु किश्ती नहीं, नौका नहीं. नयों के पास प्रचुर
संसाधन हैं, तकनीकें हैं, किन्तु उन्हें अपने जीवन लक्ष्य का बोध नहीं. वे बढ़ रहे हैं,
किन्तु किस दिशा में उन्हें जाना है, यह अभी तय नहीं हो पा रहा है. इसीलिए नई पीढ़ी
दिग्भ्रमित नजर आती है. उसको पुरानों की खिल्ली उड़ाने में मजा आता है, किन्तु स्वयं
की वस्तुस्थिति से वह भी अनभिज्ञ हैं. उनके लिए कहा है कि-
                          निकले थे कहाँ जाने के लिए,
                          जाएंगे कहाँ मालूम नहीं।
                          राहों में भटकते कदमों को,
                          मंजिल का निशां मालूम नहीं।।
        इस प्रकार ये परस्पर विरोध में ही उलझे रहते हैं, किन्तु यदि ये परस्पर परि-
पूरक बन जाए, तो एक की किश्ती दूसरे के काम आए व दूसरा उसे भी साथ-साथ
साहिल (किनारे) तक लेकर जा सके.
        सच है, सम्पूर्ण प्रकृति परस्पर मिलजुल कर ही गति करती है, इसीलिए इतनी सुन्दर
है. यहाँ दो विरोधी ध्रुवों में भी परस्पर कोई विरोध का भाव नहीं है. विरोध के भाव का
अभाव ही सह-अस्तित्व को, सद्भावों को विकसित करता है, तब ही सम्पूर्ण सृष्टि
संगीतमय रहती है.
जब भी हम कोई कार्य करते हैं तो वह सदा ही समूह कार्य ही हुआ करता है
हमारा कोई भी काम बिना सहयोगियों के सम्भव ही नहीं हो सकता है. ऐसे में ये
बहुत सम्भव है कि हमारे सहयोगियों में कुछ हमें पसंद हो और कुछ ना पसंद.
         यदि आप पसंदीदा लोगों से मर्यादा से अधिक लगाव रखते हो, उन्हें अपना ज्यादा
समय व ध्यान देते हो, तो निश्चित है आप अपने लिए अनेक विरोधी तत्व खड़े कर
लोगे. एक से अतिलगाव औरों के मनों में आपके प्रति दुराव पैदा कर देता है वे स्वयं
को असुरक्षित महसूस करने लग जाते हैं. इसी कारण से वे बात-बेबात के आपका
विरोध करना शुरू कर देते हैं. अब अगर आप अपनी ही टीम के इन विरोध करने
वाले सदस्यों को अपना दुश्मन मान बैठोगे और स्वयं विरोध के प्रति विरोध से भर
जाओगे तो आप अपना नुकसान करोगे. अनावश्यक मुद्दों में अपना भ्रम, समय व
ऊर्जा बर्बाद कर लोगे और आवश्यक कार्य गतिहीनता के कारण सम्पन्न नहीं हो पाएंगे.
आपका एकतरफा लगाव आपके जी का जंजाल बन जाएगा, क्योंकि शेष सभी
सदस्य उसका विरोध करेंगे. यहाँ आपकी समझदारी इसी बात में है कि आप अपनी
पसंदीदा स्थितियों से लगाव को कम करो. वहाँ मर्यादा साधो
        जो नापसंद है उनके गुणों को तलाशो. उनके सामने व पीछे उनके गुणों की तारीफ
करो. इससे वे भी आपके प्रति सद्भावपरक हो सकेंगे व आपकी ऊर्जा भी सद्भावमय
होने से आपके विकास में सहयोगी बनेगी. गुणग्राहकता सदा प्रशंसनीय होती है.
          श्रीमद्भागवत में भी कहा है कि-
                          तस्मान्न कस्यचिद् द्रोहमाचरेत् स तथाविधः।
                          आत्मनः क्षेममन्विच्छन् द्रोग्धुपैं परतो भयम् ॥
      अर्थात् जो अपना कल्याण चाहता है, उसे किसी से द्रोह नहीं करना चाहिए,
क्योंकि जीव कर्म के अधीन हो गया है और जो किसी से भी द्रोह करेगा, उसको इस
जीवन में शत्रु से और जीवन के बाद परलोक से भयभीत होना ही पड़ेगा.
           इस दुनिया में एकमात्र स्थान जह आनन्द सम्भव ही नहीं, वह है-
                                   विरोध का भाव.
                                   वैर-विरोध निकले तो
                                   हर ज़िंदगानी पनपे.

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