विशिष्ट महत्व है बिहार के जैन तीर्थों का

विशिष्ट महत्व है बिहार के जैन तीर्थों का

                              विशिष्ट महत्व है बिहार के जैन तीर्थों का

अनादि काल से धर्मप्राण रहे भारतवर्ष में प्राचीनकाल से ही जैन धर्म की विराट
सत्ता का सम्यक् बोध होता है, जिसे श्रमण संस्कृति के रूप में भी अभिहित किया जाता
है. छठी शताब्दी ईसा पूर्व के पहले से ही भारतीय ऐतिहासिक धरातल पर जैन धर्म के
तत्व पुष्पित-पल्लवित होते रहें, उनमें बिहार की भूमि का विशिष्ट स्थान है. आज भी
बिहार की भूमि में जैन धर्म से जुड़े दर्जनों स्थल हैं जहाँ जैन संस्कृति रूपी महाग्रन्थ
के अनगिनत पृष्ठ भरे पड़े हैं.
            सम्पूर्ण बिहार प्रदेश में यत्र-तत्र खण्डहर एवं भग्नावशेष के ऐसे अकाट्य प्रमाण हैं
जिनके आधार पर जैन धर्म का विस्तार एवं उनके स्वरूप का परिज्ञान हो जाता है.
बिहार के वैशाली का कुण्डग्राम भगवान महावीर की जन्म भूमि है, तो भगवान
वासुपूज्य का जन्म संस्कार भी चम्पापुरी (भागलपुर) में सम्पन्न हुआ. मल्लिनाथ का
जन्म मिथिला प्रदेश में हुआ तो कितने ही परिवर्ती जैन साधकों की साधना, बिहार व
देशना का केन्द्र बिहार ही बना. बिहार की ही भूमि में जैन संस्कृति के 24वें महारत्न
महावीर स्वामी को निर्वाण मिला तो महावीर स्वामी के प्रधान गणधर इन्द्रभूति गौतम
की निर्वाण स्थली भी बिहार के नवादा जिले में अवस्थित गुणांश है.
           जैन धर्म के 24वें तीर्थकर महावीर स्वामी के साथ बिहार की भूमि का अभिन्न
सम्बन्ध है. कारण इसी धरती पर उनका जन्म ईसा पूर्व 599 ई. में हुआ था, तो
लगभग 72 वर्ष की आयु में महावीर का निर्वाण भी नालंदा के सन्निकट पावापुरी
में हुआ. ऐसे कुछ लोग जिनमें श्वेताम्बर सम्प्रदाय प्रमुख है, लछुआड़ य क्षत्रि कुण्ड
को भगवान की जन्म स्थली का सम्मान देते हैं और वैशाली को महावीर स्वामी का
ननिहाल मात्र ही मानते हैं तो अन्य वैशाली के कुण्डग्राम को तीर्थकर महावीर का
जन्म स्थल स्वीकार करते हैं. नए जमाने में पहली बार वर्ष 1948 में यहाँ महावीर
जयन्ती मनाने के बाद जन्म स्थान वैशाली की प्रसिद्धि चहुँ ओर बढ़ी है. यहाँ प्राचीन
गढ़ व टीले के साथ जैन विहार वास्तु कुण्ड, प्राचीन जैन मन्दिर वनए जमाने का
जैन देवालय देखा जा सकता है. पावापुरी को ‘अपापुरी’ अर्थात् पापरहित 
स्थान के नाम से भी जाना जाता है, महावीर स्वामी की निर्वाण स्थली, पावा और
पुरी, दोनों गाँवों के बीच स्थित है, जहाँ प्रभु ने निर्वाण प्राप्त किया था. वहाँ एक बड़ी
झील, जिसे ‘नौखूद सरोवर’ कहा गया है। के बीचोंबीच सफेद संगमरमर से जल
मन्दिर बना है. मन्दिर तक जाने के लिए एक सुन्दर मार्ग मुख्य सिंहद्वार से जोड़
दिया गया है, जिसका अलंकरण और मीनाकारी देखते बनती है. पावापुरी में
जल मन्दिर के अलावा ‘गाँव मन्दिर’ व ‘समवशरण’ देखने लायक हैं जहाँ प्रत्येक
दीपावली (निर्वाण तिथि) के दिन लड्डू-भोग और महापूजा सम्पन्न होती है,
        एक अन्य मान्यता के अनुसार महावीर स्वामी का जन्म श्री कुण्डलपुर (नालंदा) में
हुआ इस कारण यहाँ भी एक बड़े प्रांगण के मध्य भव्य दो मंजिला मन्दिर विराजमान है
जहाँ छ: दर्जन से अधिक जैन विग्रह विद्यमान हैं मन्दिर के बाहर एक छतरी में
भगवान के चरण विराजमान हैं. मन्दिर के चारों ओर धर्मशाला बनी हैं. नालंदा के
‘गिरियक पर्वत’ को भी जैन संस्कृति के पुरातन स्थल के रूप में चिह्नित किया जाता
है. यह स्थान पावापुरी से 10 किमी के अन्दर है. तीर्थकाल से ज्ञात होता है कि
भगवान महावीर के कानों में कीलें निकालने के कारण यह गिरिहरी और बाद में
गिरियक कहलाया. यहाँ की कई गुफा व स्तूप आदि का सम्बन्ध जैन धर्म से है.
       जैन धर्म की दृष्टि से राजगीर की धरती परम पवित्र है. राजगीर में ही
बीसवें तीर्थकर मुनि सुव्रत नाथ का जन्म, दीक्षा व कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ था और
तो और इसी पंचपर्वत प्रतिष्ठान में महावीर का प्रथम समवशरण बनवाया गया. राजगीर
कि पुरातन जैन कृति में ‘मनियार मठ’ का नाम आता है, जो प्रारम्भिक काल में मूल
रूप से जैन मन्दिर था, इसकी दीवारों पर प्राचीन हिन्दू व बौद्ध चिह्नों के साथ जैन
चिह्न का अंकन देखा जा सकता है. राजगीर के आठ प्रसिद्ध दर्शनीय स्थलों में एक ‘सोन
भण्डार’ के गुफाओं में भी जैन कृतियों का दर्शन किया जा सकता है. विवरण है कि
राजा बिम्बिसार का खजाना वैभवहारा पर्वत के दक्षिण छोर पर एक बड़े पाषाण गुफा में
था. जहाँ सोने की अधिकता के कारण इसे स्वर्ण भण्डार कहा गया. इसमें महावीर
स्वामी, पार्श्वनाथ, पद्माप्रभा आदि की छोटी-छोटी मूर्तियों उकेरी गई हैं. राजगीर
ही महावीर स्वामी के जन्म कल्याणक वर्ष के अवसर पर मानवता के सेवार्थ एक
विशाल संस्थान की स्थापना की गई जिसे ‘वीरायतन’ कहा गया है. यह शिक्षा
स्वास्थ्य व संस्कृति उत्थान की दृष्टि से प्रारम्भिक काल से ही अग्रणी भूमिका
निर्वहन कर रहा है. यहाँ के श्री ब्राह्मी कला मन्दिर आर्ट गैलरी में जैन धर्म के 24वें
तीर्थकर महावीर स्वामी के जीवन वृत्त व धर्मदर्शन की विस्तृत जानकारी सहज में
प्राप्त की जा सकती है.
          जैन धर्म की निगाह में भागलपुर के चम्पानगरी (चम्पापुर) का विशिष्ट महत्व है.
जो प्राच्य काल में गंगा तट पर आबाद था विष्णु पुराण में उल्लेख है कि पृथुलाक्ष के
पुत्र चम्प ने इस नगरी की स्थापना की सम्प्रति नाथनगर (भागलपुर) में अवस्थित
यह स्थान 12वें तीर्थकर वासुपूज्य का जन्म स्थान होने के कारण यहाँ उनके नाम
का बड़ा ही खूबसूरत मन्दिर बना है. यहाँ शान्तिनाथ और महावीर श्री के अलावा अन्य
जैन तीर्थकर व श्रमण श्रेष्ठ के चिचाकर्षक देवालय शोभायमान हैं, यहाँ के मन्दिर का
प्रवेश द्वार और कीर्ति स्तम्भ का आकर्षण देखने योग्य है जिस पर जैन कलाकृति के
चिह्न बने हैं.
         बिहार के बांका जिले के बौंसी ग्राम में अवस्थित 600 फीट ऊँचे ऐतिहासिक पर्वत
‘मंदार’ के बारे में मान्यता है कि यहीं वासुपूज्य ने निर्वाण प्राप्त किया था और उन्हीं
की स्मृति में पर्वत पर एक भव्य व आकर्षक जैन मन्दिर बना है. मंदिर में गर्भगृह द्वार के
ऊपर पद्मासन प्रतिमा बनी है गर्भगृह में वासुपूज्य के प्राचीनतम चरण चिह्न विद्यमान
हैं, अनुश्रुति है कि वासुपूज्य स्वामी के एक गणधर श्री मन्दर को भी यहीं निर्वाण लाभ
प्राप्त हुआ था.
         बिहार में नवादा से 32 किमी दूरी पर मुंगेर जिले में स्थित लछुआड (लिच्छुआड)
के क्षत्रिय कुण्ड को श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार भगवान महावीर स्वामी की
कल्याणक-स्थली बताया जाता है. यहाँ भगवान महावीर का एक देवालय है. पास में
ही क्षत्रिय कुण्ड, जो पहाड़ी कहलाता है; के ऊपर दो छोटे-छोटे जिनालय हैं. जमुई
रेलवे स्टेशन से करीब सात किमी दूरी पर ‘काकन्दी’ नामक प्राचीन गाँव में श्री
सुविधिनाथ जी को समर्पित एक जिनालय व धर्मशाला है. यहाँ लछुआड जाने वाले
दर्शन करने अवश्य जाते हैं.
           नवादा जिला मुख्यालय से तीन किमी दूरी पर नवादा-नालंदा पथ पर गुणांवा जी
नामक जैन तीर्थ है जहाँ महावीर स्वामी के प्रधान गणधर इन्द्रभूति गौतम को निर्वाण
मिला था. विवरण है कि महावीर स्वामी के मोक्ष प्राप्ति के बाद गौतम स्वामी को गुणांवा
में कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हो गई. यहाँ भी विशाल तालाब के मध्य जल मन्दिर और
उससे लगी प्राचीन धर्मशाला विराजमान है. जहाँ दर्शनार्थियों के लिए उत्तम प्रबन्ध है.
       बिहार की राजधानी पटना नगर में सुदर्शन मुनि की टेकरी तथा मन्दिर का
दर्शन किया जा सकता है. टेकरी के एकदम सन्निकट ही ‘कमलदह’ तालाब है.
जैन धर्म में इसका विशिष्ट स्थान है.
         आरा में भी जैन धर्म से जुड़े चैत्यालय व मन्दिर हैं. यहाँ के धर्मकुंज में श्रीमती पं.
चन्द्रावाई द्वारा स्थापित ‘जैन महिलाश्रय’ है जहाँ दूर-दूर से महिलाएं आकर शिक्षा ग्रहण
करती हैं. यहीं पर एक कृत्रिम पहाड़ी पर बाहुबलि भगवान की 11 फीट स्थानक
प्रतिमा देखी जा सकती है. आरा में चौक पर स्व. बाबू देव कुमार जी द्वारा स्थापित
‘श्री जैन सिद्धांत भवन’ जैन धर्म दर्शन के विशिष्ट कार्यों में अपना महती योग दे रहा
है. आरा में बसाढ़ भी जैनियों के लिए पवित्र है जहाँ से जैन विग्रह भी मिली हैं. यहाँ श्री
पार्श्वनाथ का मन्दिर है.
            बक्सर और इसके आस-पास खासकर चौसा में भी जैन धर्म के प्राबाल्य स्थिति
का बोध जैन विग्रह सम्प्राप्ति से होता है. जहाँ छठी शताब्दी से नवीं शताब्दी तक के
जैन अवशेष मिले हैं. बिहार में जैन धर्म से जुड़े शोध केन्द्रों में 1955 में स्थापित प्राकृत
जैन शास्त्र और अहिंसा संस्थान वैशाली के महत्व को इनकार नहीं किया जा सकता.
         जैन धर्म से जुड़े प्राचीन व अप्रचारित स्थलों में औरंगाबाद के ‘पचार पहाड़ी’ का
नाम आता है, जो हावडा-मुम्बई रेलखण्ड पर गया से 32 किमी दूर रफीगंज रेलवे
स्टेशन से 7 किमी दूरी पर है. इसे च्यों-पचार भी कहा गया है. जहाँ सातवीं शती
की उत्कृष्ट व प्रभावोत्पाद काले चमकदार पत्थर की पार्श्वनाथ की प्रतिमा गुफा में
मौजूद है. पर्वत की दूसरी तरफ चरण चिह्न, हिन्दू मूर्तियाँ व बैठका को देखा जा सकता
है. ऐसे पार्श्वनाथ जी की नौवीं शती का एक मन्दिर मसाढ़ (शाहबाद) में भी है, जो
आरा नगर से 15 किमी दूरी पर है.
              आज भी बिहार प्रदेश में नए जमाने में पटना, गया, नवादा, हिसुआ, रफीगंज
वैशाली, मुजफ्फरपुर, राजगीर, नालंदा, औरंगाबाद, आरा, डेहरी-ऑन-सोन आदि
नगरों में जैन मन्दिर शोभायमान हैं, जहाँ नवीनता के साथ प्राचीनता के भी दर्शन
होते हैं.
        यह जानकारी की बात है कि जैन धर्म से जुड़े श्वेताम्बर, दिगम्बर, तेरापंथी, बीस
पंथी आदि सभी संवर्गों के तीर्थ बिहार प्रदेश में विराजमान हैं. ठीक इसी प्रकार इस धरती
पर जैन मूर्त्त शिल्पों का भी समृद्ध संसार प्राच्य काल से ही दृष्टिगत होता है. मूर्त
शिल्प की दृष्टि से बिहार का महत्व अप्रतिम है. डॉ. नीलकण्ठ पुरुषोत्तम जोशी अपनी
चर्चित कृति ‘प्राचीन भारतीय मूर्ति विज्ञान’ में लिखते हैं कि तीर्थकर की सर्व प्राचीन
प्रतिमा बिहार के लोहानीपुर (पटना) नामक स्थान से मिली है, जो मौर्य काल की है.
इसी में प्राचीनकाल के जैन स्तूप का उल्लेख है जिसमें पाटलिपुत्र को प्रथम स्थान दिया
गया है. गया क्षेत्र के ब्रह्मयोनि पर्वत से तीसरी शताब्दी की स्वामी सम्भवनाथ की
प्रतिमा मिलने की सूचना डॉ. कनिंघम की रिपोर्ट से मिलती है. आज भी बिहार प्रदेश
के संग्रहालय यथा राजकीय संग्रहालय पटना, नाररीय पुरातत्व संग्रहालय नवादा,
मगध सांस्कृतिक केन्द्र सह गया संग्रहालय, नालंदा, वैशाली व बोधगया पुरातत्व
संग्रहालयों के साथ कितने ही संग्रहालयों में जैन धर्म से जुड़े उत्कृष्ट मूर्त संग्रह यहाँ
की गौरव गाथा के मूक व्याख्यान हैं. ऐसे तो सम्पूर्ण देश में जैन धर्म से जुड़े तीर्थ हैं
पर इनका जहाँ बाहुल्य है वह है बिहार, तभी तो बिहार की भूमि को जैन संस्कृति
का मूल क्षेत्र कहा जाता है.

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