व्यक्ति की आत्मा ही उसकी सर्वोत्तम शिक्षक है

व्यक्ति की आत्मा ही उसकी सर्वोत्तम शिक्षक है

                   व्यक्ति की आत्मा ही उसकी सर्वोत्तम शिक्षक है

वह हमारा सर्वोत्तम शिक्षक हो सकता है, जो चैतन्यमंत हो, जो ज्ञानवंत हो, जिसे
अनुभव होता हो, जो समझ व समझा सकता हो, जो परिपूर्ण हो, परम विशुद्ध हो,
जो हमारे सर्वाधिक निकट हो, जो हर पल हमारा मार्गदर्शक हो, जो हमारा परम
सहायक हो.
         वह आपकी आत्मा से भिन्न और अन्य कोई हो ही नहीं सकता है, जैन दर्शन का
एक प्रमुख वाक्य है, परम सूत्र है कि-
                                       “सहजात्मस्वरूप परम गुरु”
                                             ‘अप्पा सो परमप्पा”
      अर्थात् आपका सहज आत्मस्वरूप ही परमगुरु है और आत्मा ही परमात्मा है,
समण भगवान महावीर ने अपने जीवनकाल में अनेक व्यक्तियों को अज्ञान की नींद से
जगाया, उनका भ्रम मिटाया, उन्हें बहुत से प्रेरणा सूत्र दिए, उसमें से एक महत्वपूर्ण
सूत्र यह था कि-
                  ‘आप ही अपने मित्र हैं, आप ही अपने हैं रिपु
                   सुप्रतिष्ठित हैं तो मित्र हैं, दुष्प्रतिष्ठित होने से हैं.रिपु ॥”
    आप ज्ञान प्राप्त कीजिए- चाहे पुस्तकों से, चाहे शिक्षकों से विद्यालयों में अथवा
महाविद्यालयों में, किन्तु अन्ततः जो आपका मार्गदर्शक होगा, वह आपका विवेक ही
होगा, उसकी अपनी आत्मा ही होगी. समण महावीर तो यहाँ तक कहा करते थे कि
‘अगर आपको धर्म को भी स्वीकारना है तो अपनी आत्मा से परीक्षित धर्म को स्वीकारो
आत्मतुला पर रखकर हर तत्व का ज्ञान प्राप्त करो. सबसे पहले खुद को जानो और
फिर खुद से इस लोक को जानो.”
                एकाकी अबोध बालक, जो ठीक प्रकार से अपनी भावनाएं व्यक्त भी नहीं कर
पाता, जिज्ञासावश प्रत्येक नवीन वस्तु को देखने, छूने, समझने का प्रयास करता है,
सीढ़ियाँ चढ़ने का प्रयास करता है. कभी असफल होता है, कभी सफल. बहुधा उसका
मार्गदर्शन करने वाला भी कोई नहीं होता. लेकिन उसकी गतिविधियाँ जारी रहती हैं,
उसके कृत्यों और अभिव्यक्तियों को मार्गदर्शन स्वयं उसकी आत्मा से प्राप्त होता
रहता है. ऐसा मार्गदर्शन दृष्टिवान तो नहीं होता, लेकिन होता अवश्य है.
      आज की चकाचौंध भरी दुनिया में हरेक व्यक्ति अपने स्वार्थ को सर्वोपरि रखता
नजर आ रहा है. ऐसे में न केवल राजनीति में राजनीति रही है, बल्कि शिक्षा क्षेत्र हो या
सामाजिक व धार्मिक संगठन-हर स्थान पर गन्दी राजनीति पनपती जा रही है जहाँ
महत्वाकांक्षा व प्रतिस्पर्धा का बाजार गर्म हो, वहाँ शिक्षकों में बढ़ती हौड़-दौड़ व स्वार्थ-
परता भी कोई कम नहीं है. आज हर चीज़ का वैश्वीकरण (ग्लोबलाइज़ेशन) तो हो ही
रहा है, साथ ही हर चीज का बाजारीकरण भी हो रहा है. शिक्षा के क्षेत्र में भी व्याव-
सायिक सोच हावी हो चुकी है. एक-एक शिक्षक अपनी सुविधा परक जिन्दगी पाने
के लिए बालकों पर नित-नए खर्चे का बोझ बढ़ रहा है. विद्यालय में 6-7 घण्टे पढ़ाए
जाने के बाद भी लगभग हरेक छात्र को ट्यूशन जाना ही पड़ रहा वे ही
अध्यापक जो स्कूल में पढ़ाते हैं, पुनः उन्हीं विद्यार्थियों को अपने निजी केन्द्रों पर
कोचिंग क्लासेज़ में पढ़ाते हैं. ऐसा क्यों ? विद्यार्थी व अभिभावकों से पूछे जाने पर
जवाब मिलते हैं कि अगर ऐसा न करो, तो अध्यापक बालक-बालिकाओं के साथ
पक्षपात करते नज़र आते हैं, जो बच्चे उनसे ट्यूशन लेते हैं, उनके मार्क्स ज्यादा
व जो नहीं लेते हैं या कहीं और लेते हैं, तो उनके मार्क्स कम कर दिए जाते हैं. ये
व्यापारिक लाभ की आकांक्षा हमारे नैतिक चरित्र का स्तर तो घटा ही रही है, साथ ही
विद्यार्थी व शिक्षकों के पवित्र व्यवहार को भी प्रश्नांकित कर रही है. कहाँ वो युग था,
जब चाणक्य जैसे कर्मठ, तपस्वी, निःस्वार्थ शिक्षक हुआ करते थे और चन्द्रगुप्त जैसे
समर्पित निःस्वार्थ छात्र हम आज के युग में ऐसे कथानकों से कितना कुछ सीख सकते
हैं, परन्तु माता-पिता की भूमिका भी बच्चों में सादगी व उच्च विचार को प्रेरित करने वाली
अब नहीं रही. ऐसे युग में अगर कोई हमें पतन के रास्ते से बचा सकता है, तो वह न
तो सरकार है, न ही परिवार, न तो विद्यालय महाविद्यालय है, न ही मन्दिर-मस्जिद-
गुरुद्वारा एकमात्र अपना विवेक जगाना ही हमारा परम इष्ट हो आपका अपना विवेक
ही आपका सही मार्गदर्शक या शिक्षक हो सकता है. यह एक अन्तिम तथ्य है कि
आप खुद ही खुद को सँभाल सकते हैं, आपका सर्वोत्तम शिक्षक, परामर्शक व
मार्गदर्शक आप स्वयं हैं.
    जब एक बार स्वामी रामतीर्थ (वेदान्त धर्म के सत्गुरु) जापान से अमरीका जा रहे
थे. जब उनका जहाज सेन फ्रांसिस्को के बन्दरगाह पर पहुँचा, तो सब यात्री उतर
गए, किन्तु वे उस जहाज के डेक पर टहल रहे थे, उन्हें देखकर एक अमरीकी सज्जन
ने पूछ ही लिया कि “आप कौन हैं ?” वे बोले-“बादशाह राम” वह अमरीकी जरा
सोच में पड़ गया और उसने पूछा “अगर आप बादशाह हैं, तो कहाँ के हैं ? और यहाँ
आपका सामान कहाँ है ?” स्वामी रामतीर्थ बोले-“मैं सम्पूर्ण जगत् का बादशाह हूँ और
जो तुम मेरे शरीर पर देख रहे हो, उसके सिवाय मेरे पास कोई सामान नहीं है.”
स्वामीजी का गेरुआ वस्त्र, गौरवर्ण, तप्त स्वर्ण-सा शरीर, तेजस्वी नेत्र, निर्भीक वाणी
को सुन-देखकर वह अमरीकी सज्जन जरा सोच में पड़ गया. उसने पूछा- आपके
रुपए-पैसे कहाँ हैं ? मैं अपने पास कुछ नहीं रखता. समस्त जड़-चेतन में मेरी आत्मा
का ही रमण है. मुझे किसी से कुछ नहीं चाहिए. इसीलिए मैं अपना बादशाह खुद हूँ.
जब भूख लगती है, तो स्वतः प्रकृति माता मेरी व्यवस्था कर देती है. कोई रोटी का
टुकड़ा दे ही देता है और प्यास लगने पर पानी भी कोई पिला ही देता है. कभी वृक्षों
के नीचे, तो कभी गिरी कंदराओं में मेरा रात्रि निवास भी हो ही जाया करता है. मेरी
आत्मा ही मेरा गुरु है, वही शिष्य भी यहाँ कोई पर नहीं कोई ‘स्व’ भी नहीं,” पर
यहाँ अमरीका में आपका परिचित कौन है ? स्वामीजी से उस अमरीकन ने जब पूछा तो
वे मुसकराते हुए बोले कि-“आप! भाई आप! अमरीका में तो केवल में एक ही
व्यक्ति को जानता हूँ और चाहे आप उसे परिचित कह लें, मित्र कह लें अथवा कुछ
भी नाम दे देवें, वह व्यक्ति केवल आप ही हैं.” महात्मा रामतीर्थ ने उनके कंधे पर
हाथ रख दिया और वह अजनबी उनका भक्त बन गया. अमरीका में उनके काफी
प्रवचन हुए और कई लोगों ने आत्मबोध भी पाया ये सब कैसे सम्भव हुआ ? प्रश्न यह
है कि सात समुद्रों पार भी अनजानी धरती पर अनजाने लोगों के बीच भी आपका
मार्गदर्शक कौन हो सकता है ? जीवन की राहों पर सदा साथ कौन रह सकता है ?
वह सच्चा शिक्षक आपका मार्गदर्शक आपका आपकी अपनी आत्मा आपका आत्मविश्वास
है, आपका बोध-ज्ञान है. आपका विवेक है, आपकी प्रज्ञा का जागरण है, बस अपनी प्रज्ञा
को जगाइए और जीवन की राहों पर अपना हमसफर अपने आपको बताइए. आपके दीपक
आप स्वयं हैं.

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